महाभारतम्-08-कर्णपर्व-058
← कर्णपर्व-057 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-058 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-059 → |
अर्जुनस्य द्रौणिग्रस्तधृष्टद्युम्नरक्षणपूर्वकं द्रौणिं निर्जित्य संशप्तकान्प्रति गमनम्।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 8-58-1x |
एवमुक्तः प्रत्युवाच धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्। आशिषं तां प्रवक्तव्यां मामको दास्यते तव।। | 8-58-1a 8-58-1b |
येनैव ते पितुर्दत्ता यतमानस्य संयुगे। एष ते प्रतिवाक्यं वै असिर्दास्यति मामकः। येन कृत्तं तव पितुर्यतमानस्य तच्छिरः।। | 8-58-2a 8-58-2b 8-58-2c |
यदि तावन्मया द्रोणो निहतो ब्राह्मणब्रुवः। त्वामिदानीं कथं युद्धे न हनिष्यामि किल्बिषम्।। | 8-58-3a 8-58-3b |
एवमुक्त्वा महातेजाः सेनापतिररिन्दमः। सुतीक्ष्णेनाथ भल्लेन द्रौणिं विव्याध पार्षतः।। | 8-58-4a 8-58-4b |
ततो द्रौणिः सुसङ्क्रुद्धः शरैः सन्नतपर्वभिः। आच्छादयद्दिशो राजन्धृष्टद्युम्नस्य संयुगे।। | 8-58-5a 8-58-5b |
नैवान्तरिक्षं न दिशो नापि योधाः सहस्रशः। दृश्यन्ते वै महाराज शरैश्छन्नाः समन्ततः। एकः सन्वारयामास प्रेक्षणीयः समन्ततः।। | 8-58-6a 8-58-6b 8-58-6c |
तथैव पार्षतो राजन्द्रौणिमाहवशोभिनम्। शरैः सञ्छादयामास सूतपुत्रस्य पश्यतः।। | 8-58-7a 8-58-7b |
राधेयोऽपि महाराज पाञ्चालान्सह पाण्डवैः। द्रौपदेया युधामन्युमुत्तमौजसमेव च।। | 8-58-8a 8-58-8b |
सात्यकिश्च महाराज योधांश्चान्यान्सहस्रशः। एकस्तान्वारयामास प्रेक्षणीयः समन्ततः।। | 8-58-9a 8-58-9b |
धृष्टद्युम्नस्तु समरे द्रौणेश्चिच्छेद कार्मुकम्। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन पश्यतां सर्वयोधिनाम्।। | 8-58-10a 8-58-10b |
तदपास्य धनुश्छिन्नमन्यदादत्त कार्मुकम्। वेगवत्समरे घोरं शरांश्चाशीविषोपमान्।। | 8-58-11a 8-58-11b |
स पार्षतस्य राजेन्द्र धनुः शक्तिं गदां ध्वजम्। हयान्सूतं रथं चैव निमेषाद्व्यधमच्छरैः।। | 8-58-12a 8-58-12b |
स च्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः। खङ्गमादत्त विपुलं शतचन्द्रं च भानुमत्।। | 8-58-13a 8-58-13b |
द्रौणिस्तदपि राजेन्द्र भल्लैः क्षिप्रं महारथः। चिच्छेद समरे वीरः क्षिप्रहस्तो दृढायुधः।। | 8-58-14a 8-58-14b |
रथादनवरूढस्य धन्विनो बाहुशालिनः। पश्यतां सर्वसैन्यानां तदद्भुतमिवाभवत्।। | 8-58-15a 8-58-15b |
धृष्टद्युम्नं तु विरथं हताश्वरथसारथिम्। शस्त्रैश्च बहुधा विद्धमस्त्रैश्च शकलीकृतम्। नातरद्भरतश्रेष्ठ यदमानो महारथः।। | 8-58-16a 8-58-16b 8-58-16c |
तस्यान्तमिषुभी राजन्यदा द्रौणिर्न गच्छति। अथ त्यक्त्वा रथं वीरः पार्षतं त्वरितोऽन्वगात्। प्रगृह्य विपुलं खह्गं जातरूपपरिष्कृतम्।। | 8-58-17a 8-58-17b 8-58-17c |
तस्य सम्पततो राजन्वपुरासीन्महात्मनः। गरुडस्येव ततो जिघृक्षोः पन्नगोत्तमम्।। | 8-58-18a 8-58-18b |
एतस्मिन्नेव काले तु केशवः परवीरहा। अब्रवीद्भरतश्रेष्ठमर्जुनं जयतां वरम्।। | 8-58-19a 8-58-19b |
पश्य द्रौणिं पार्षतस्य यतमानं वधं प्रति। यत्नं करोति विपुलं हन्याच्चैनं न संशयः।। | 8-58-20a 8-58-20b |
त्रायस्वैनं महाबाहो पार्षतं युद्धदुर्मदम्। द्रौणेरास्यगतं वीर मृत्योरास्यगतं यथा।। | 8-58-21a 8-58-21b |
एवमुक्त्वा महाराज वासुदेवः प्रतापवान्। प्रैषयत्तुरगान्यत्र द्रौणिर्वीरो व्यवस्थितः।। | 8-58-22a 8-58-22b |
ते हयाश्चन्द्रसङ्काशाः केशवेन प्रचोदिताः। पिबन्त इव चाकाशं जग्मुद्रौणेर्महारथम्।। | 8-58-23a 8-58-23b |
दृष्ट्वा द्रौणिर्महाराज वासुदेवधनंजयौ। धृष्टद्युम्नवधे राजंश्चक्रे यत्नं महाबलः।। | 8-58-24a 8-58-24b |
विकृष्यमाणं दृष्ट्वै धृष्टद्युम्नं जनेश्वर। शरांश्चिक्षेप वै पार्थो द्रौणिं प्रति महारथः।। | 8-58-25a 8-58-25b |
ते शरा हेमविकृता गाण्डीवप्रेषिता भृशम्। द्रौणिमासाद्य विविशुर्वल्मीकमिव पन्नगाः।। | 8-58-26a 8-58-26b |
विद्धस्तु तैः शरैर्घोरैद्रोणपुत्रः प्रतापवान्। उत्सृज्य समरे राजन्पाञ्चालममितौजसम्।। | 8-58-27a 8-58-27b |
आरुरोह रथं वीरो धनञ्जयशरार्दितः। प्रगृह्य च धनुः श्रेष्ठं पार्थं विव्याध सायकैः।। | 8-58-28a 8-58-28b |
एतस्मिन्नन्तरे शूरः सहदेवो जनाधिप। अपोवाह रथेनाजौ पार्षतं शत्रुतापनम्।। | 8-58-29a 8-58-29b |
अर्जुनोऽपि महाराज द्रौणिं विव्याध पत्रिभिः। तं द्रोणपुत्रः संरब्धो बाह्वोरुरसि चार्पयत्।। | 8-58-30a 8-58-30b |
क्रोधितस्तु रणे पार्थो नाराचं कालसन्निभम्। द्रोणपुत्राय चिक्षेप यमदण्डमिवापरम्।। | 8-58-31a 8-58-31b |
स ब्राह्मणस्यांसदेशे निपपात महाद्युतेः। स विह्वलो महाराज शरवेगेन संयुगे। निषसाद रथोपस्थे वैक्लव्यं परमं ययौ।। | 8-58-32a 8-58-32b 8-58-32c |
तं तु मत्वा हतं वीरं सारथिः शत्रुकर्शनम्। अपोवाह रणेनाजौ त्वरमाणो रणाजिरात्।। | 8-58-33a 8-58-33b |
अथोद्धृष्टं महाराज पाञ्चालैर्जितकाशिभिः। मोक्षितं पार्षतं दृष्ट्वा द्रोणपुत्रं च पीडितम्।। | 8-58-34a 8-58-34b |
वादित्राणि च दिव्यानि प्रावाद्यन्त सहस्रशः। सिंहनादश्च सञ्जज्ञे दृष्ट्वा युद्धं तदद्भुतम्।। | 8-58-35a 8-58-35b |
ततः कर्णो महाराज व्याक्षिपद्विजयं धनुः। दृष्ट्वार्जुनं रणे क्रुद्धः प्रेक्षते च मुहुर्मुहुः। द्वैरथं चापि पार्थेन गन्तुकामो महाद्युतिः।। | 8-58-36a 8-58-36b 8-58-36c |
एवं कृत्वाऽब्रवीत्पार्थो वासुदेवं धनञ्जयः। याहि संशप्तकान्कृष्ण कार्यमेतत्परं मम।। | 8-58-37a 8-58-37b |
ततः प्रयातो गोविन्दः श्रुत्वा पाण्डवभाषितम्। रथेनातिपताकेन मनोमारुतरंहसा।। | 8-58-38a 8-58-38b |
एवमेष क्षयो वृत्तः पृथिव्यां पृथिवीपते। तावकानां परेषां च राजन्दुर्मन्त्रिते तव।। | 8-58-39a 8-58-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे अष्टपञ्चाशोऽध्यायः।। 58 ।। |
कर्णपर्व-057 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-059 |