महाभारतम्-08-कर्णपर्व-071

← कर्णपर्व-070 महाभारतम्
अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-071
वेदव्यासः
कर्णपर्व-072 →

कर्णस्यामारणज्ञानाद्रुष्टेन युधिष्ठिरेण अर्जुनम्प्रति गर्हणपूर्वकं कृष्णकरे गाण्डीवदानचोदना।। 1 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
सञ्जय उवाच। 8-73-1x
वैकर्तनं कुशलिनं निशम्य
क्रुद्धः पार्थः फल्गूनस्यामितौजाः।
धनञ्जयं वाक्यमुवाच राजा
युधिष्ठिरः कर्णशराभितप्तः।।
8-73-1a
8-73-1b
8-73-1c
8-73-1d
इमां च वसतिं हित्वा भयात्कर्णेन फल्गुन।
अहं च भीमसेनश्च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।।
8-73-2a
8-73-2b
वासुदेवेन सहिता वयं कर्णेन निर्जिताः।
पुनरेव वनं गत्वा तपश्चर्यां च कुर्महे।
अथवा धार्तराष्ट्राणां परिचर्यां चरामहे।।
8-73-3a
8-73-3b
8-73-3c
इत्येवमुक्त्वा बीभत्सुं रोषात्संरक्तलोचनः।
अब्रवीत्पुनरेवात्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।।
8-73-4a
8-73-4b
इदं यदि द्वैतवने तु सूक्तं
कर्णं नियोद्धुं न सहे नृपेति।
वयं ततः प्राप्तकालं यथाव--
त्कृत्वाऽभ्युपेक्षाम तथैव राज्यम्।।
8-73-5a
8-73-5b
8-73-5c
8-73-5d
मयि प्रतिश्रुत्य वधं हि तस्य
बलस्य चार्धस्य तथैव युद्धे।
आनीय मां शत्रुमध्ये स कस्मा--
त्समुन्नाम्य स्थण्डिले प्रत्यपिंष्ठाः।।
8-73-6a
8-73-6b
8-73-6c
8-73-6d
अन्वास्य सत्येन यदात्थ पार्थ
सत्यं शपन्वासुदेवेन सार्धम्।
तन्नः सत्यमफलं ह्यकार्षीः
फलस्य काले चाच्छिन्नः पुष्पवृक्षम्।।
8-73-7a
8-73-7b
8-73-7c
8-73-7d
प्रच्छादितस्त्वं बालिश दुर्यशोभि--
रनर्थवाक्योऽस्यर्जुन नैव साधुः।
त्यक्त्वा भीमं सर्वभीमेषु भीमं
संयोजितस्त्वं सूतपुत्रं निहन्तुम्।।
8-73-8a
8-73-8b
8-73-8c
8-73-8d
यत्तद्वृथा वागुवाचान्तरिक्षे
सप्ताह्नि जाते त्वयि मन्दबुद्धौ।
अपापीयान्वासवात्कुन्तिजातो
बहून्सङ्ग्रामानयमेव जेता।।
8-73-9a
8-73-9b
8-73-9c
8-73-9d
अयं जेता पाण्डवो देवसङ्घान्
सर्वाणि भूतान्यपि चोत्तमौजाः।
अयं जेता मद्रकलिङ्गजाता--
न्दैत्यांश्च रक्षांसि समागतानि।।
8-73-10a
8-73-10b
8-73-10c
8-73-10d
भूमिं च सर्वां निखिलेन जेता
कुरूंश्च जेता स्वगणांश्च जेता।
अस्मात्परो नो भविता धनुर्धरो
नैष्यन्न भूतः कश्चिदेनं विजेता।।
8-73-11a
8-73-11b
8-73-11c
8-73-11d
इच्छन्नयं सर्वभूतानि कुर्या--
द्वशी वशे सर्वसमाप्तविद्यः।
कान्त्या शशाङ्कस्य जवेन वायोः
स्यैर्येण मेरोः क्षमया पृथिव्याः।।
8-73-12a
8-73-12b
8-73-12c
8-73-12d
अग्नेश्च तापे धनदस्य लक्ष्म्या
शौर्येण शक्रस्य जयेन विष्णोः।
तुल्यो महात्मा तव कुन्ति पुत्रो
जातोऽदितेर्विष्णुरिवामितौजाः।।
8-73-13a
8-73-13b
8-73-13c
8-73-13d
स्वेषां जयाय द्विषतां वधाय
जातो महात्मा तव नन्दिकर्ता।
इत्यन्तरिक्षे शतशृङ्गमूर्ध्नि
तपस्विनां शृण्वतां वागुवाच।।
8-73-14a
8-73-14b
8-73-14c
8-73-14d
एवंविधस्त्वं न च भूतस्तथाद्य
देवाश्च नूनमनृतं वदन्ति।।
8-73-15a
8-73-15b
तथा परेषामृषिसत्तमानां
श्रुत्वा गिरः पूजयतां सदा त्वाम्।
न सन्नतिं यामि सुयोधनस्य
न त्वां जानाम्याधिरथेर्भयार्तम्।।
8-73-16a
8-73-16b
8-73-16c
8-73-16d
त्वष्ट्रा कृतं वाहमकूजनाक्षं
शुभं समास्थाय कपिध्वजं तम्।
खङ्गं गृहीत्वा हेमचित्रावनद्वं
धनुर्वरं गाण्डिवं तालमात्रम्।
त्वं वासुदेवेनोह्यमानः कथं नु
कर्णाद्भीतो व्यपयातोऽसि पार्थ।।
8-73-17a
8-73-17b
8-73-17c
8-73-17d
8-73-17e
8-73-17f
पूर्वं यदुक्तं हि सुयोधनेन
न फल्गुनः प्रमुखे स्थास्यतीति।
कर्णस्य युद्धे हि महाबलस्य
मौर्ख्यात्तु तन्नावबुद्धं मयाऽसीत्।।
8-73-18a
8-73-18b
8-73-18c
8-73-18d
तेनाद्य तप्स्ये भृशमप्रमेयं
यन्मित्रवर्गो नरकं प्रविष्टः।
तदैव वाच्योऽस्मि ननु त्वयाऽहं
न योत्स्येऽहं सूतपुत्रं कथञ्चित्।।
8-73-19a
8-73-19b
8-73-19c
8-73-19d
ततो नाहं सृञ्जयान्केकयांश्च
समानयेयं सुहृदो रणाय।।
8-73-20a
8-73-20b
एवं गते किं च मयाऽद्य शक्यं
कार्यं कर्तुं निग्रहे सूतजस्य।
तथैव राज्ञश्च सुयोधनस्य
ये वापि मां योद्धुकामाः समेताः।।
8-73-21a
8-73-21b
8-73-21c
8-73-21d
धिगस्तु मज्जीवितमद्य कृष्ण
योऽहं वशं सूतपुत्रस्य यातः।
मध्ये कुरूणां समुयोधनानां
ये चाप्यन्ये योद्धुकामाः समेताः।।
8-73-22a
8-73-22b
8-73-22c
8-73-22d
एकः स मे भीमसेनोऽद्यं नाथो
येनाभिपन्नोऽस्मि रणे महाभये।
विमोच्य मां चापि रुपान्वितस्ततः
शरेण तीक्ष्णेन बिभेद कर्णम्।।
8-73-23a
8-73-23b
8-73-23c
8-73-23d
त्यक्त्वा प्राणान्समरे भीमसेन--
श्चक्रे युद्धं कुरुमुख्यैः समेतैः।
गदाग्रहस्तो रुधिरोक्षिताङ्ग--
श्चरन्रणे काल इवान्तकाले।।
8-73-24a
8-73-24b
8-73-24c
8-73-24d
असौ हि भीमस्य महानिनादो
मुहुर्महुः श्रूयते धार्तराष्ट्रैः।
यदि स्म जीवेत्समरे निहन्ता
महारथानां प्रवरो नरोत्तमः।।
8-73-25a
8-73-25b
8-73-25c
8-73-25d
तवाभिमन्युस्तनयोऽद्य पार्थ
न चास्मि गन्ता समरे पराभवम्।
अथापि जीवेत्समरे घटोत्कच--
स्तथाऽपि नाहं समरे पराङ्युखः।।
8-73-26a
8-73-26b
8-73-26c
8-73-26d
भीमस्य पुत्रः समराग्रयायी
महास्त्रविन्नापि तवानुरूपः।
यं तं xxxसाद्य रिपोर्वलं नो
निमीलिताक्षं भयविप्लुतं भवेत्।।
8-73-27a
8-73-27b
8-73-27c
8-73-27d
xxxxxनिशि युद्धमेक--
स्त्यक्सा रणं यत्व भयाद्रवन्ते।।
8-73-28a
8-73-28b
स चेत्समासाद्य महानुभावः
कर्णं रणे बाणगणैः प्रमोह्यः।
धैर्ये स्थितेनापि च सूतजेन
शक्या हतो वासवदत्तया तया।।
8-73-29a
8-73-29b
8-73-29c
8-73-29d
ममैव भाग्यानि पुरा कृतानि
पापानि नूनं फलवन्ति युद्धे।
तृणं च कृत्वा समरे भवन्तं
ततोऽहमेवं निकृतो दुरात्मना।
वैकर्तनेनैव तथा कृतोऽहं
यथा ह्यशक्तः क्रियते त्वबान्धवः।।
8-73-30a
8-73-30b
8-73-30c
8-73-30d
8-73-30e
8-73-30f
आपद्ग्रतं यश्च नरो विमोक्षये--
त्स बान्धवः स्नेहयुतः सुहृच्च।
एवं पुराणा ऋषयो वदन्ति
धर्मः सदा सद्भिरनुष्ठितश्च।।
8-73-31a
8-73-31b
8-73-31c
8-73-31d
खङ्गं विभ्रज्जातरूपत्सरुं च
धनुर्वेदं गाण्डिवं तालमात्रम्।
स केशवेनोह्यमानः कथं नु
कर्णात्पार्थस्त्वमपैतुं समैषीः।।
8-73-32a
8-73-32b
8-73-32c
8-73-32d
स गाण्डीवं केशवाय प्रदाय
यन्ता भवेस्त्वं यदि केशवस्य।
ततस्तरेत्केशवः कर्णमुग्रं
मरुत्सस्वो वृत्रमिवात्तवज्रः।।
8-73-33a
8-73-33b
8-73-33c
8-73-33d
मासेऽपतिष्यो यदि पञ्चमे त्वं
न वा गर्भो यद्यभवः पृथायाः।
मत्तः श्रेयान्राजपुत्रोऽभविष्य--
न्न ते यशः फल्गुन इत्यपेयात्।।
8-73-34a
8-73-34b
8-73-34c
8-73-34d
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे एकसप्ततितमोऽध्यायः।। 71 ।।
कर्णपर्व-070 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-072