महाभारतम्-08-कर्णपर्व-032
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कर्णेन स्वस्यार्जुनप्रदर्शकाय तदभिमतपारितोषिकप्रदानप्रतिज्ञानम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-32-1x |
प्रयत्नेन तदा कर्णो हर्षयन्वाहिनीं तव। एकैकं समरे दृष्ट्वा पाण्डवं पर्यपृच्छत।। | 8-32-1a 8-32-1b |
यो ममाद्य महात्मानं दर्शयेच्छ्वेतवाहनम्। तस्मै दद्यामभिप्रेतं धनं यन्मनसेच्छति।। | 8-32-2a 8-32-2b |
न चेत्तदभिमन्येत तस्मै दद्यामहं पुनः। शकटं रत्नसम्पूर्णं यो मे ब्रूयाद्वनञ्जयम्।। | 8-32-3a 8-32-3b |
न चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान्। शतं दद्यां गवां तस्मै नैत्यकं कांस्यदोहनम्।। | 8-32-4a 8-32-4b |
शतं ग्रामवरांश्चैव दद्यामर्जुनदर्शिने। तथा तस्मै पुनर्दद्यां श्वेतमश्वतरीरथम्। युक्तमञ्जनकेशीभिर्यो मे ब्रूयाद्वनञ्जयम्।। | 8-32-5a 8-32-5b 8-32-5c |
न चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान्। अन्यं वाऽस्मै पुनर्दद्यां सौवर्णं हस्तिषङ्गवम्।। | 8-32-6a 8-32-6b |
तथाप्यस्मै पुनर्दद्यां स्त्रीणां शतमलङ्कृतम्। श्यामानां निष्ककण्ठीनां गीतवाद्यविपश्चिताम्।। | 8-32-7a 8-32-7b |
न चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान्। तस्मै दद्यां शतं नागाञ्शतं ग्रामाञ्शतं रथान्।। | 8-32-8a 8-32-8b |
सुवर्णस्य च मुख्यस्य हयाग्र्याणां शतं शतान्। ऋद्व्या गुणैः सुदान्तांश्च धुर्यवाहान्सुशिक्षितान्।। | 8-32-9a 8-32-9b |
तथा सुवर्णशृङ्गीणां गोधेनूनां चतुःशतम्। दद्यां तस्मै सवत्सानां यो मे ब्रूयाद्वनञ्जयम्।। | 8-32-10a 8-32-10b |
न चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान्। अन्यदस्मै वरं दद्यां श्वेतान्पञ्चशतान्हयान्।। | 8-32-11a 8-32-11b |
हेमभाण्डपरिच्छन्नान्सुमृष्टमणिभूषणान्। सुदान्तानपि चैवाहं दद्यामष्टादशापरान्।। | 8-32-12a 8-32-12b |
रथं च शुभ्रं सौवर्णं दद्यां तस्मै स्वलङ्कृतम्। युक्तं परमकाम्भोजैर्यो मे ब्रूयाद्वनञ्जयम्।। | 8-32-13a 8-32-13b |
न चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान्। अन्यदस्मै वरं दद्यां कुञ्जराणां शतानि षट्।। | 8-32-14a 8-32-14b |
काञ्चनैर्विविधैर्भाण्डैराच्छन्नान्हेममालिनः। उत्पन्नानपरान्तेषु विनीतान्हस्तिशिक्षकैः।। | 8-32-15a 8-32-15b |
न चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान्। अन्यदस्मै वरं दद्यां वैश्यग्रामांश्चतुर्दश।। | 8-32-16a 8-32-16b |
सुस्फीतान्धनसंयुक्तान्प्रत्यासन्नवनोदकान्। अकुतोभयान्सुसम्पन्नान्राजभोज्यांश्चतुर्दश।। | 8-32-17a 8-32-17b |
दासीनां निष्ककण्ठीनां मागधीनां शतं तथा। प्रत्यग्रवयसां दद्यां यो मे ब्रूयाद्धनञ्जयम्।। | 8-32-18a 8-32-18b |
न चेत्तदभिमन्येत पुरुषोऽर्जुनदर्शिवान्। अन्यं तस्मै वरं दद्यां यमसौ कामयेत्स्वयम्।। | 8-32-19a 8-32-19b |
पुत्रदारान्विहायैव यदन्यद्वित्तमस्ति मे। तच्च तस्मै पुनर्दद्यां यद्यच्च मनसेच्छति।। | 8-32-20a 8-32-20b |
हत्वा च सहितौ कृष्णौ तयोर्वित्तानि सर्वशः। तस्मै दद्यामहं यो मे प्रब्रूयात्केशवार्जुनौ।। | 8-32-21a 8-32-21b |
सञ्जय उवाच। | 8-32-22x |
एता वाचः सुबहुशः कर्ण उच्चारयन्युधि। दध्मौ सागरसम्भूतं सुस्वरं शङ्खमुत्तमम्।। | 8-32-22a 8-32-22b |
ता वाचः सूतपुत्रस्य तथा युक्ता निशम्य तु। दुर्योधनो महाराज संहृष्टः सानुजोऽभवत्।। | 8-32-23a 8-32-23b |
ततो दुन्दुभिनिर्घोषो मृदङ्गानां च सर्वशा। सिंहनादः सवादित्रः कुञ्चराणां च निःस्वनः।। | 8-32-24a 8-32-24b |
प्रादुरासीत्तदा राजंस्त्वत्सैन्ये पुरुषर्षभ। योधानां सम्प्रहृष्टानां तथा समभवत्स्वनः।। | 8-32-25a 8-32-25b |
तथा प्रहृष्टे सैन्ये तं प्लुवमानं महारथम्। विकत्थमानं च तदा राधेयमरिकर्शनम्। मद्रराजः प्रहस्येदं वचनं प्रत्यभाषत।। | 8-32-26a 8-32-26b 8-32-26c |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32 ।। |
8-32-3 अभिमन्येत अल्पमित्यवजानीत।। 8-32-5 अञ्जनकेशीभिः कृष्णकेशीभिरश्वतरीभिर्युवतीभिर्वा युक्तम्।। 8-32-6 हस्तिषङ्गवं हस्तिषट्कम् षट्रत्वे षङ्गवजित्यनेन षङ्गवच्प्रत्ययः। हस्तिषङ्गवमिच्छन्ति वीराः षट्के च दन्तिनामिति प्राञ्चः। अन्यं वा सौवर्णरथमिति शेषः। हस्तितुल्याः षट् गाव उक्षाणो यस्मिन् तम्। षट्हस्तिन एव गोवत् वोढारो यस्य तादृशम्।। 8-32-7 श्यामानामप्रजातानाम्। निष्कमुरोभूषणम्।। 8-32-9 शतंशतान्दशसहस्राणि। ऋद्व्या पुष्ट्या। सुदान्तान् विनीतान्। धुर्यवाहान् रथोद्वहनक्षमान्।। 8-32-12 भाण्डमाभरणम्।। 8-32-15 अपरान्तेषु पश्चिमकच्छेषु।। 8-32-18 प्रत्यग्रवयसामभिनवयौवनानाम्।। 8-32-26 प्लवमानं प्रयान्तम्।। 8-32-32 द्वात्रिंशोऽध्यायः।।
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