महाभारतम्-08-कर्णपर्व-089
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-89-1x |
सुकल्पिता हैमवता महोत्कटा रणाभिकामैः कृतिभिः समास्थिताः। सुवर्णजालैर्वितता बभुर्गजा-- स्तथा यथा खे जलदाः सविद्युतः।। | 8-89-1a 8-89-1b 8-89-1c 8-89-1d |
कुणिन्दपुत्रो दशभिर्महायसैः कृपं ससूताश्वमपीडयद्भृशम्। ततः शरद्वत्सुतसायकैर्हतः सहैव नागेन पपात भूतले।। | 8-89-2a 8-89-2b 8-89-2c 8-89-2d |
कुणिन्दपुत्रावरजस्तु तोमरै-- र्दिवाकरांशुप्रतिमैरयस्मयैः। जघान भोजस्य हयानथापतन् क्षणाद्विशस्ताः कृतवर्मणे हयाः।। | 8-89-3a 8-89-3b 8-89-3c 8-89-3d |
अथापरे द्रौणिहता महाद्विपा-- स्त्रयः ससर्वायुधयोधकेतनाः। निपेतुरुर्व्यां व्यसवो विचेतना-- स्तथा यथा वज्रहता महाचलाः।। | 8-89-4a 8-89-4b 8-89-4c 8-89-4d |
कुणिन्दराजावरजादनन्तरः स्तनान्तरे पत्रिवरैरताडयत्। तवात्मजं तस्य तवात्मजः शरैः शितैः शरीरं व्यहनद्द्विपं च तम्।। | 8-89-5a 8-89-5b 8-89-5c 8-89-5d |
स नागराजः सह राजसूनुना पपात रक्तं बहु सर्वतः क्षरन्। महेन्द्रवज्रप्रहतोऽम्बुदागमे यथा जलं गेरिकपर्वतस्तथा।। | 8-89-6a 8-89-6b 8-89-6c 8-89-6d |
कुणिन्दपुत्रप्रहितोऽपरो द्विपः क्राथं ससूताश्वरथं व्यपोथयत्। ततोऽपतत्क्राथसराभिघातितः सहेश्वरो वज्रहतो यथा गिरिः।। | 8-89-7a 8-89-7b 8-89-7c 8-89-7d |
रथी द्विपस्थेन हतोऽपतच्छरैः क्राथाधिपः पर्वतजेन दुर्जयः। सवाजिसूतेष्वसनध्वजस्तथा यथा महावातहतो महाद्रुमः।। | 8-89-8a 8-89-8b 8-89-8c 8-89-8d |
वृको द्विपस्थं गिरिराजवासिनं भृशं शरैर्द्वादशभिः पराभिनत्। ततो वृकं साश्वरथं महाद्विपो द्रुतं चतुर्भिरणैर्व्यपोथयत्।। | 8-89-9a 8-89-9b 8-89-9c 8-89-9d |
स पोथितो नागरवेण वीर्यवा-- न्पराभिनद्द्वादशभिः शिलीमुखैः। वृकेण बाणाभिहतोऽपतत्क्षितौ सवारणो बभ्रुसुतेन सार्धम्।। | 8-89-10a 8-89-10b 8-89-10c 8-89-10d |
कुणिन्दराजस्य सुतोऽपरस्तदा स चापि शूरः सहसा समर्पितः। पपात बाणैः सुबलस्य सूनुना विषाणपुच्छापरगात्रपातिना।। | 8-89-11a 8-89-11b 8-89-11c 8-89-11d |
गजेन वाहाञ्शकुनेः कुणिन्दजो निनाय वैवस्वतमन्दिरं रणे। रथं च संक्षुभ्य ननाद नर्दत-- स्ततोऽस्य गान्धारपतिः शिरोऽहरत्।। | 8-89-12a 8-89-12b 8-89-12c 8-89-12d |
ततः कुणिन्देषु गतेषु तेषु प्रहृष्टरूपास्तव ते महारथाः। भृशं प्रदरध्मुर्लवणाम्बुसम्भवा-- न्वरांश्च बाणासनपाणयोऽभ्ययुः।। | 8-89-13a 8-89-13b 8-89-13c 8-89-13d |
तथाऽभवद्युद्धमतीव दारुणं पुनः कुरूणां सह पाण्डुसृञ्जयैः। शरासिशक्त्यृष्टिगदापरश्वथै-- र्नराश्वनागासुहरं भृशाकुलम्।। | 8-89-14a 8-89-14b 8-89-14c 8-89-14d |
रथाश्वमातङ्गपदातयस्ततः परस्परं विप्रहताः क्षितौ पतन्। यथा सविद्युत्तटितो जलप्रदाः समुत्थितैर्दिग्भ्य इवोग्रमारुतेः।। | 8-89-15a 8-89-15b 8-89-15c 8-89-15d |
ततः शतानीकहता महागजा हया रथाः पत्तिगणाश्च तावकाः। सुपर्णवातप्रहता यथोरगा-- स्तथा गता गां विवशा विचूर्णिताः।। | 8-89-16a 8-89-16b 8-89-16c 8-89-16d |
ततोऽभ्यविद्ध्यद्बहुभिः शितैः शरैः स विन्दपुत्रो नकुलात्मजं स्मयन्। ततोऽस्य कोपाद्विचकर्त नाकुलिः शिरः क्षुरेणाम्बुजसन्निभाननम्।। | 8-89-17a 8-89-17b 8-89-17c 8-89-17d |
ततः शतानीकमविध्यदायसै-- स्त्रिभिः शरैः कर्णसुतोऽर्जुनं त्रिभिः। त्रिभिश्च भीमं नकुलं च सप्तभि-- र्जनार्दनं द्वादशभिश्च सायकैः।। | 8-89-18a 8-89-18b 8-89-18c 8-89-18d |
तदस्य कर्मातिमनुष्यकर्मणः समीक्ष्य हृष्टाः कुरवोऽभ्यपूजयन्। पराक्रमज्ञास्तु धनञ्जयस्य ये हुतोऽयमग्नाविति ते तु मेनिरे।। | 8-89-19a 8-89-19b 8-89-19c 8-89-19d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89 ।। |
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