महाभारतम्-08-कर्णपर्व-023
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दुर्योधनप्रार्थनया शल्येन कृच्छ्रात्कर्णरथसारथ्यकरणाक्ष्युपगमः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-23-1x |
एवमुक्तो महाराज तव पुत्रः प्रतापवान्। मद्रेश्वरं प्रति रणे सुरसैन्यभयङ्करम्। सर्वं तथाऽकरोत्तूर्णं राधेयस्तद्यथाऽब्रवीत्।। | 8-23-1a 8-23-1b 8-23-1c |
मद्राजं च समरे प्रणम्य च महारथम्। विनयेनोपसङ्गम्य प्रणयाद्वाक्यमब्रवीत्।। | 8-23-2a 8-23-2b |
सत्यव्रत महाभाग द्विषतां तापवर्धन। मद्रेश्वर रणेशूर परसैन्यभयङ्कर।। | 8-23-3a 8-23-3b |
`मत्प्रियार्थं हितार्थं च तथा पार्थवधाय च'। श्रुतवानसि कर्णस्य ब्रुवतो वदतां वर। यथा नृपतिसिंहानां मध्ये त्वां वरये स्वयम्।। | 8-23-4a 8-23-4b 8-23-4c |
तत्त्वामप्रतिवीर्याद्य शत्रुपक्षक्षयावह। मद्रेश्वर प्रयाचेऽहं शिरसा विनयेन च।। | 8-23-5a 8-23-5b |
तस्मात्पार्थविनाशार्थं हितार्थं मम चैव हि। त्वं पाहि सर्वतः कर्णं भवं ब्रह्मेव सुव्रत।। | 8-23-6a 8-23-6b |
सारथ्यं रथिनां श्रेष्ठ प्रणयात्कर्तुमर्हसि। त्वयि यन्तरि राधेयो विद्विषो मे विजेष्यते।। | 8-23-7a 8-23-7b |
अभीषूणां हि कर्णस्य ग्रहीतान्यो न विद्यते। ऋते हि त्वां महाभाग वासुदेवसमं युधि।। | 8-23-8a 8-23-8b |
स पाहि सर्वथा कर्णं यथा ब्रह्मा महेश्वरम्। यथा च सर्वथाऽऽपत्सु वार्ष्णेयः पाति पाण्डवम्। तथा मद्रेश्वराद्य त्वं राधेयं प्रतिपालय।। | 8-23-9a 8-23-9b 8-23-9c |
भीष्मो द्रोणः कृपः कर्णो भवान्भोजश्च वीर्यवान्। शकुनिः सौबलो द्रौणिरहमेव च नो बलम्।। | 8-23-10a 8-23-10b |
एवमेष कृतो भागो नवधा पृथिवीपते। न च भागोऽत्र भीष्मस्य द्रोणस्य च महात्मनः।। | 8-23-11a 8-23-11b |
ताभ्यामतीत्य तौ भागौ निहता मम शत्रवः। वृद्वौ हि तौ महेष्वासौ छलेन निहतौ युधि।। | 8-23-12a 8-23-12b |
कृत्वा चासुकरं कर्म गतौ स्वर्गमितोऽनघ। तथान्ये पुरुषव्याघ्राः परैर्विनिहता युधि।। | 8-23-13a 8-23-13b |
अस्मदीयाश्च बहवः स्वर्गाय गमिताः परैः। त्यक्त्वा प्राणानय्थाशक्ति चेष्टां कृत्वा च पुष्कलाम्। | 8-23-14a 8-23-14b |
तदिदं हतभूयिष्ठं बलं मम नराधिप। पूर्वमप्यल्पकैः पार्थैर्हतं किमुत साम्प्रतम्।। | 8-23-15a 8-23-15b |
बलवन्तो महात्मानः कौन्तेयाः सत्यविक्रमाः। बलं शेषं न हन्युर्मे यथा तत्कुरु पार्थिव।। | 8-23-16a 8-23-16b |
हतवीरमिदं सैन्यं पाण्डवैः समरे विभो। कर्णो ह्येको महाबाहुरस्मत्प्रियहिते रतः।। | 8-23-17a 8-23-17b |
भवांश्च पुरुषव्याघ्र सर्वलोकमहारथः। शल्य कर्णोऽर्जुनेनाद्य योद्वुमिच्छति संयुगे।। | 8-23-18a 8-23-18b |
तस्मिञ्जयाशा विपुला मद्रराज नराधिप। तस्याभीषुग्रहवरो नान्योऽस्ति भुवि कश्चन।। | 8-23-19a 8-23-19b |
पार्थस्य समरे कृष्णो यथाऽभीषुग्रहो वरः। तथा त्वमपि कर्णस्य रथेऽभीषुग्रहो भव।। | 8-23-20a 8-23-20b |
तेन युक्तो रणे पार्थो रक्ष्यमाणश्च पार्थिव। यानि कर्माणि कुरुते प्रत्यक्षाणि तथैव तत्।। | 8-23-21a 8-23-21b |
पूर्वं नः समरे ह्येवमधीदर्जुनो रिपून्। इदानीं विक्रमो ह्यस्य कृष्णेन सहितस्य च।। | 8-23-22a 8-23-22b |
कृष्णेन सहितः पार्थो धार्तराष्ट्रीं महाचमूम्। अहन्यहनि मद्रेश द्रावयन्दृश्यते युधि।। | 8-23-23a 8-23-23b |
भागोऽवशिष्टः कर्णस्य तव चैव महाद्युते। तं भागं सह कर्णेन युगपन्नाशयाद्य हि।। | 8-23-24a 8-23-24b |
अरुणेन यथा सार्धं तमः सूर्यो व्यपोहति। तथा कर्णेन सहितो जहि पार्थं महाहवे।। | 8-23-25a 8-23-25b |
उद्यन्तौ च यथा सूर्यौ बालसूर्यसमप्रभौ। कर्णशल्यौ रणे दृष्ट्वा विद्रवन्तु महारथाः।। | 8-23-26a 8-23-26b |
सूर्यारुषौ यथा दृष्ट्वा तमो नश्यति मारिष। तथा नश्यन्तु कौन्तेयाः सपाञ्चालाः ससृञ्जयाः।। | 8-23-27a 8-23-27b |
रथिनां प्रवरः कर्णो यन्तॄणां प्रवरो भवान्। संयोगो युवयोर्लोके नाभून्न च भविष्यति।। | 8-23-28a 8-23-28b |
यथा सर्वास्ववस्थासु वार्ष्मेयः पाति पाण्डवम्। तथा भवान्परित्रातु कर्णं वैकर्तनं रणे। `सारथ्यं क्रियतां तस्य युध्यमानस्य संयुगे।। | 8-23-29a 8-23-29b 8-23-29c |
यथा च समरे कृष्णो रक्षते सर्वतोऽर्जुनम्। तथा त्वमपि राधेयं रक्षस्व च महारणे'।। | 8-23-30a 8-23-30b |
त्वया सारथिना ह्येष अप्रधृष्यो भविष्यति। देवतानामपि रणे सशक्राणां महीपते। किं पुनः पाण्डवेयानां मा विशङ्कीर्वचो मम।। | 8-23-31a 8-23-31b 8-23-31c |
सञ्जय उवाच। | 8-23-32x |
दुर्योधनवचः श्रुत्वा शल्यः क्रोधसमन्वितः। `धार्तराष्ट्रमथोवाच सृक्विणी परिलेलिहन्'।। | 8-23-32a 8-23-32b |
त्रिशिखां भ्रुकुटिं कृत्वा धुन्वन्हस्तौ पुनःपुनः। क्रोधरक्ते महानेत्रे परिवृत्य महाभुजः। कुलैश्वर्यश्रुतबलैर्दृप्तः शल्योऽब्रवीदिदम्।। | 8-23-33a 8-23-33b 8-23-33c |
शल्य उवाच। | 8-23-34x |
न मामर्हसि राजेद्र नियोक्तुं कर्मणीदृशे। न हि पापीयसः श्रेयान्प्रेष्यत्वं कर्तुमर्हति।। | 8-23-34a 8-23-34b |
यो ह्यभ्युपगतं मित्रं गरीयांसं विशेषतः। वशे पापीयसो धत्ते तत्कार्यमधरोत्तरम्।। | 8-23-35a 8-23-35b |
ब्रह्मणा ब्राह्मणाः सृष्टा मुखात्क्षत्रं च बाहुतः। ऊरुभ्यामथ वैश्या वै शूद्राः पद्भ्यामिति श्रुतिः।। | 8-23-36a 8-23-36b |
तेभ्यो वर्णविशेषाश्च प्रतिलोमानुलोमजाः। अथान्योन्यस्य संयोगाच्चातुर्वर्ण्यस्य भारत।। | 8-23-37a 8-23-37b |
गोप्तारः सङ्गृहीतारो दातारः क्षत्रियाः स्मृताः।। | 8-23-38a |
याजनाध्यापनैर्विप्रा विशुद्वैश्च प्रतिग्रहैः। लोकस्यानुग्रहार्थाय स्थापिता ब्राह्मणा भुवि।। | 8-23-39a 8-23-39b |
कृषिश्च पाशुपाल्यं च विशां दानं च धर्मतः। ब्रह्मक्षत्रविशां शूद्रा विहिताः परिचारकाः।। | 8-23-40a 8-23-40b |
ब्रह्मक्षत्रस्य विहिताः सूता वै परिचारकाः। न क्षत्रियो वै सूतानां शृणुयाच्च कथञ्चन।। | 8-23-41a 8-23-41b |
अहं मूर्धाभिषिक्तो हि राजर्षिकुलजो नृपः। महारथसमाख्यातः सेव्यः स्तुत्यश्च वन्दिनां।। | 8-23-42a 8-23-42b |
सोऽमहेतादृशो भूत्वा नेहारिबलसूदनः। सूतपुत्रस्य सङ्ग्रामे सारथ्यं कर्तुमुत्सहे।। | 8-23-43a 8-23-43b |
अवमन्यसे मां गान्धारे ध्रुवं चाप्यतिशङ्कसे। यस्माद्ब्रवीषि विस्रब्धः सारथ्यं क्रियतामिति।। | 8-23-44a 8-23-44b |
अस्मत्तोऽभ्यधिकं कर्णं मन्वानस्तं प्रशंससि। न चाहं युधि राधेयं गणये तुल्यमात्मनः।। | 8-23-45a 8-23-45b |
आदिश्यतामभ्यधिको ममांशः पृथिवीपते। तमहं समरे हत्वा गमिष्यामि यथागतम्।। | 8-23-46a 8-23-46b |
अथवाप्येक एवाहं योत्स्यामि तव शत्रुभिः। पश्य वीर्यं ममाद्य त्वं सङ्ग्रामे दहतो रिपून्।। | 8-23-47a 8-23-47b |
न चापि कामान्कौरव्य निधाय हृदये पुमान्। अस्मद्विधः प्रवर्तेत मा मा त्वमतिशङ्किथाः।। | 8-23-48a 8-23-48b |
अपि चाप्यवमानो मे न कर्तव्यः कथञ्चन। पश्य भीमौ मम भुजौ वज्रसंहननौ दृढौ।। | 8-23-49a 8-23-49b |
धनुः पश्य च मे चित्रं शरांश्चाशीविषपमान्। रथं च पश्य मे चित्रं सदश्वैर्वातवेगिभिः।। | 8-23-50a 8-23-50b |
गदां च पश्य गान्धारे हेमपट्टविभूषिताम्। दारयेयं महीं क्रुद्धो विकिरेयं च पर्वतान्। शोषयेयं समुद्रांश्च पातयेयं च भास्करम्।। | 8-23-51a 8-23-51b 8-23-51c |
तं मामेवंविधं राजन्समर्थमरिनिग्रहे। कस्माद्युनङ्क्षि सारथ्ये सूतस्याधिरथेस्तु माम्।। | 8-23-52a 8-23-52b |
न चापि मम राधेयः कलामर्हति षोडशीम्।। | 8-23-53a |
सकर्णा ये त्रयो लोकाः सार्जुनाः सजनार्दनाः। निबद्वांस्तन्त्रणे राजन्न गणेयं कथञ्चन।। | 8-23-54a 8-23-54b |
न चाहं प्राकृतः कश्चिन्न चास्म्यधिगतः स्वयम्। अयं चाप्यवमानो मे न कर्तव्यः कथञ्चन।। | 8-23-55a 8-23-55b |
आपृच्छे त्वाद्य गान्धारे यास्यामि विषयं प्रति। न चाहं सूतपुत्रस्य सारथ्यमुपजग्मिवान्।। | 8-23-56a 8-23-56b |
अवमानमहं प्राप्य न योत्स्यामि कथञ्चन। आपृच्छे त्वाऽद्य गान्धारे गमिष्यामि गृहाय वै।। | 8-23-57a 8-23-57b |
सञ्जय उवाच। | 8-23-58x |
एवमुक्त्वा महाराज शल्यः समितिशोभनः। उत्थाय प्रययौ तूर्णं राजमध्यादमर्षितः।। | 8-23-58a 8-23-58b |
प्रणयाद्बहुमानाच्च तं निगृह्य सुतस्तव। अब्रवीन्मधुरं वाक्यं साम्ना सर्वार्थसाधकम्।। | 8-23-59a 8-23-59b |
यथा शल्य त्वमात्थेदमेवमेतदसंशयम्। अभिप्रायस्तु मे कश्चित्तं निबोध जनेश्वर।। | 8-23-60a 8-23-60b |
न कर्णोऽभ्यधिकस्त्वत्तो न चान्ये चैव पार्थिवाः। न च मद्रेश्वर त्वां वै कृष्णः सोढुं च शक्ष्यति।। | 8-23-61a 8-23-61b |
ऋतमेव हि पूर्वास्ते वदन्ति पुरुषोत्तमाः। तस्मादार्तायनिः प्रोक्तो भवानिति मतिर्मम।। | 8-23-62a 8-23-62b |
शल्यबूतस्तु शत्रूणां यस्मात्त्वं युधि मानद। तस्माच्छल्येति ते नाम कथ्यते पृथिवीतले।। | 8-23-63a 8-23-63b |
यदेतद्व्याहृतं पूर्वं भवता भूरिदक्षिण। तदेव कुरु धर्मज्ञ मदर्थं यद्यदुच्यते।। | 8-23-64a 8-23-64b |
न च त्वत्तो हि राधेयो न चाहमपि वीर्यवान्। वृणेऽहं त्वां हयाग्र्याणां यन्तारमिह संयुगे।। | 8-23-65a 8-23-65b |
मन्ये चाभ्यधिकं शल्य गुणैः कर्णं धनञ्जयात्। भवन्तं वासुदेवाच्च लोकोऽयमतिमन्यते।। | 8-23-66a 8-23-66b |
कर्णो ह्यभ्यधिकः पार्थादस्त्रैरेव नरर्षभ। भवानभ्यधिकः कृष्णादश्वज्ञाने बले तथा।। | 8-23-67a 8-23-67b |
यथाऽश्वहृदयं वेद वासुदेवो महामनाः। द्विगुणं त्वं तथा वेत्सि मद्रराजेश्वरात्मज।। | 8-23-68a 8-23-68b |
शल्य उवाच। | 8-23-69x |
यन्मां ब्रवीषि गान्धारे मध्ये सैन्यस्य कौरव। विशिष्टं देवकीपुत्रात्प्रीतिमानस्म्यहं त्वयि।। | 8-23-69a 8-23-69b |
एष सारथ्यमातिष्ठे राधेयस्य यशस्विनः। युध्यतः पाण्डवाग्र्येण यथा त्वं वीर मन्यसे।। | 8-23-70a 8-23-70b |
समयश्च हि मे वीर कश्चिद्वैकर्तनं प्रति। उत्सृजेयं यथाश्रद्वमहं वाचोऽस्य सन्निधौ।। | 8-23-71a 8-23-71b |
सञ्जय उवाच। | 8-23-72x |
तथेति राजन्पुत्रस्ते सह कर्णेन भारत। | 8-23-72a |
अब्रवीन्मद्रराजस्य मतं भरतसxxxx।। | 8-23-72a |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः।। 23 ।। |
8-23-8 अभीषूणां हयरश्मीनाम्।। 8-23-22 पुनर्नः समरे राजन्मावधीदर्जुनो रिपून्। इति क.पाठः।। 8-23-29 त्रातु त्रायताम्।। 8-23-34 पापीयसः नीचयोनेः प्रेष्यत्वं दासत्वम्।। 8-23-41 न विट्शूद्रस्य संयोगं शृणु चान्यं ममानघ इति क.ख.पाठः।। 8-23-62 ऋतमेव अयनं आश्रयो येषां ते ऋतायनास्तेषां गोत्रापत्यमार्तायनिस्त्वम्।। 8-23-71 वाच उत्सृजेयं ताः अनेन क्षन्तव्या इति भावः।। 8-23-23 त्रयोविंशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-022 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-024 |