महाभारतम्-08-कर्णपर्व-100
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कर्णवधानन्तरं कृष्णार्जुनयोर्युधिष्ठिरसमीपगमनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-100-1x |
शरसङ्कृत्तवर्माणं रुधिरोक्षितवक्षसम्। गतासुमपि राधेयं नैव लक्ष्मीर्विमुञ्चति।। | 8-100-1a 8-100-1b |
तप्तजाम्बूनदनिभं बालार्कसदृशद्युतिम्। जीवन्तमिव तं शूरं सर्वभूतानि मेनिरे।। | 8-100-2a 8-100-2b |
हतस्यापि महाराज सूतपुत्रस्य संयुगे। वित्रेसुः सर्वतो योधाः सिंहस्येवेतरे मृगाः।। | 8-100-3a 8-100-3b |
हतोऽपि पुरुषव्याघ्रो व्याहरन्निव लक्ष्यते। नाभवद्विकृतिः काचिन्मृतस्यापि महात्मनः।। | 8-100-4a 8-100-4b |
चारुवेषधरं राजंश्चारुमौलिशिरोधरम्। तन्मुखं सूतपुत्रस्य पूर्णचन्द्रसमद्युति।। | 8-100-5a 8-100-5b |
कनकोत्तमसह्काशो ज्वलन्निव विभावसुः। स शान्तः पुरुषव्याघ्रः पार्थसायकवारिणा।। | 8-100-6a 8-100-6b |
यथाऽग्निर्ज्वलनो दीप्तो जलमासाद्य शाम्यति। कर्णाग्निः समरे तद्वत्पार्थमेघेन शामितः।। | 8-100-7a 8-100-7b |
आहृत्य स यशो दीप्तं सुयुद्धेनात्मनो भुवि। सपुत्रः समरे कर्णः प्रशान्तः पार्थतेजसा।। | 8-100-8a 8-100-8b |
प्रताप्य पाण्डवान्सर्वान्पाञ्चालानस्त्रतेजसा। नानाभरणवान्रजंस्तप्तजाम्बूनदप्रभः।। | 8-100-9a 8-100-9b |
वर्षित्वा शरवर्षाणि प्रताप्य रिपुवाहिनीम्। श्रीमानिव सहस्रांशुर्ज्वलन्सर्वान्प्रताप्य च। हतो वैकर्तनः कर्णः पादपोऽङ्कुरवानिव।। | 8-100-10a 8-100-10b 8-100-10c |
ददानीत्येव यः प्रादान्न नास्तीत्यर्थितोऽवदत्। सद्ध्यः सदा सत्पुरुषः स हतो द्वैरथे वृषा।। | 8-100-11a 8-100-11b |
यस्य ब्राह्मणसात्सर्वं वित्तमासीन्महात्मनः। नादेयं ब्राह्मणेष्वासीद्यस्य स्वमपि जीवितम्।। | 8-100-12a 8-100-12b |
स दातॄणां प्रियो राजन्दाता चैव मनोरथान्। स पार्थास्त्रविनिर्दग्धो गतः परमिकां गतिम्।। | 8-100-13a 8-100-13b |
यमाश्रित्याकरोद्वैरं सुतस्ते स गतो दिवम्। आदाय तव पुत्राणां जयाशां सर्म वर्म च।। | 8-100-14a 8-100-14b |
हते च कर्णे सरितो न सस्रु-- र्जगाम चास्तं कलुषो दिवाकरः। श्वेतो ग्रहश्च ज्वलितार्कवर्णो यमस्य पुत्रोऽभ्युदितः स तिर्यक्।। | 8-100-15a 8-100-15b 8-100-15c 8-100-15d |
नभश्चचालाथ ननाद चोर्वी ववुश्च वाताः परुषाश्च घोराः। दिशो बभूवुर्ज्वलिताः सधूमा महार्णवाः सस्वनुश्चुक्षुभुश्च।। | 8-100-16a 8-100-16b 8-100-16c 8-100-16d |
सकाननाश्चाद्रिवराश्चकम्पिरे प्रविव्यथुर्भूतगणाश्च मारिष। बृहस्पतिः सम्परिवार्य रोहिणीं बभूव चन्द्रार्कसमो विशाम्पते।। | 8-100-17a 8-100-17b 8-100-17c 8-100-17d |
हते कर्णे न दिशो विप्रचाराः सचन्द्रार्का द्यौर्विचचाल भूमिः। पपात चोल्का ज्वलनप्रभा च निशाचरा हृष्टतरा बभूवुः।। | 8-100-18a 8-100-18b 8-100-18c 8-100-18d |
शशिप्रकाशाननमर्जुनो यदा जहार कर्णस्य शिरः शरेण। ततोऽन्तरिक्षे सहसैव शब्दो बभूव हाहेति सुरैर्विमुक्तः।। | 8-100-19a 8-100-19b 8-100-19c 8-100-19d |
सदेवगन्धर्वमनुष्यपूजितं निहत्य कर्णं रिपुमाहवेऽर्जुनः। रराज राजन्परमेण तेजसा यथा पुरा वृत्रवधे शतक्रतुः।। | 8-100-20a 8-100-20b 8-100-20c 8-100-20d |
पताकिना भीमनिनादकेतुना रथेन शङ्खस्फटिकावभासिना। महेन्द्रवाहप्रतिमेन तावुभौ महेन्द्रवीर्यप्रतिमानपौरुषौ।। | 8-100-21a 8-100-21b 8-100-21c 8-100-21d |
समानयोगाविव विष्णुवासवैः।। | 8-100-22f |
मनांस्यरीणामुपतापयन्तौ।। | 8-100-23f |
सुवर्णजालावततौ महास्वनौ हिमावदातौ परिगृह्य पाणिमिः। चुचुम्बतुः शङ्खवरौ नृणां वरौ विघोषयन्तौ विजयं जगत्त्रये।। | 8-100-24a 8-100-24b 8-100-24c 8-100-24d |
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषो देवदत्तस्य चोभयोः। पृथिवीमन्तरिक्षं च दिशश्च समपूरयत्।। | 8-100-25a 8-100-25b |
वित्रस्ताश्चाभवन्सर्वे कुरवो राजसत्तम। शूरयोः शङ्खशब्देन माधवस्यार्जुनस्य च।। | 8-100-26a 8-100-26b |
तौ शङ्खशब्देन निनादयन्तौ वनानि शैलान्सरितो गुहाश्च। वित्रासयन्तौ तव पुत्रसेनां युधिष्ठिरं नन्दयितुं प्रयातौ।। | 8-100-27a 8-100-27b 8-100-27c 8-100-27d |
ततः प्रजग्मुः कुरवो जवेन श्रुत्वैव शङ्खस्वनमीर्यमाणम्। विहाय मद्राधिपतिं पतिं च दुर्योधनं भारत भारतानाम्।। | 8-100-28a 8-100-28b 8-100-28c 8-100-28d |
ततो रथेनाम्बुदबृन्दनादिना शरद्वहर्मध्यदिवाकरत्विषा। धनञ्जयस्याधिरथेश्च विस्मिताः प्रशंसमानाः प्रययुस्तदाऽर्जुनम्।। | 8-100-29a 8-100-29b 8-100-29c 8-100-29d |
महाहवे तं बहुशोभमानं धनञ्जयं योधगणैः समेताः। तावन्वमोदंश्च जनाः प्रकामं प्रभाकरावभ्युदितौ यथैव।। | 8-100-30a 8-100-30b 8-100-30c 8-100-30d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि शततमोऽध्यायः।। 100 ।। |
8-100-13 सदा स्त्रीणां प्रिय इति झ.पाठः।। 8-100-100 शततमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-099 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-101 |