महाभारतम्-08-कर्णपर्व-007
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अश्वत्थामवचनाद्दुर्योधनेन सैनापत्येऽभिषिक्तेन कर्णेन रणाय सेनानियोजनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-7-1x |
हते द्रोणे महेष्वासे तस्मिन्नहनि भारत। कृते च मोघसंकल्पे द्रोणपुत्रे महारथे।। | 8-7-1a 8-7-1b |
द्रवमाणे महाराज कौरवाणां बलार्णवे। व्यूह्य पार्थः स्वकं सैन्यमतिष्ठद्वातृभिर्वृतः।। | 8-7-2a 8-7-2b |
तमवस्थितमाज्ञाय पुत्रस्ते भरतर्षभ। विद्रुतं स्वबलं दृष्ट्वा पौरुषेण न्यवारयत्।। | 8-7-3a 8-7-3b |
स्वमनीकमवस्थाप्य बाहुवीर्यमुपाश्रितः। युद्धा च सुचिरं कालं पाण्डवैः सह भारत।। | 8-7-4a 8-7-4b |
लब्धलक्षैः परैर्हष्टैर्व्यायच्छद्भिश्चिरं तदा। सन्ध्याकालं समासाद्य प्रत्याहारमकारयत्।। | 8-7-5a 8-7-5b |
`निवेश्य बलवद्वोरं क्षुत्पिपासाबलैर्युतम्। श्रमेण महता युक्तं तथा द्रोणवधेन च।। | 8-7-6a 8-7-6b |
दीनरूपा रणे कर्म कृत्वा घोरं च शर्वरीम्। विशं प्राप्य सा सेना विश्रम्य मुदिताऽभवत्'।। | 8-7-7a 8-7-7b |
कृत्वाऽवहारं सैन्यानां प्रविश्य शिबिरं स्वकम्। कुरवः सहिता मन्त्रं मन्त्रयाञ्चक्रिरे मिथः।। | 8-7-8a 8-7-8b |
पर्यङ्केषु परार्ध्येषु स्पर्ध्यास्तरणवत्सु च। वरासनेषूपविष्टाः सुखशय्यास्विवामराः।। | 8-7-9a 8-7-9b |
ततो दुर्योधनो राजा साम्ना परमवल्गुना। तानाभाष्य महेष्वासान्प्राप्तकालमभाषत।। | 8-7-10a 8-7-10b |
मतं मतिमतां श्रेष्ठाः सर्वे प्रब्रूत मा चिरम्। एवङ्गतेन यत्कार्यं भवेत्कार्यतरं नृपाः।। | 8-7-11a 8-7-11b |
सञ्जय उवाच। | 8-7-12x |
एवमुक्ते नरेन्द्रेण नरसिंहा युयुत्सवः। चक्रुर्नानाविधाश्चेष्टाः सिंहासनगतास्तदा।। | 8-7-12a 8-7-12b |
तेषां निशाम्येङ्गितानि युद्धे प्राणाञ्जुहूषताम्। समुद्वीक्ष्य मुखं राज्ञो बालार्कसमवर्चसम्। आचार्यपुत्रो मेधावी वाक्यज्ञो वाक्यमाददे।। | 8-7-13a 8-7-13b 8-7-13c |
रागो योगस्तथा दाक्ष्यां नयश्चेत्यर्थसाधकाः। उपायाः पण्डितैः प्रोक्तास्ते तु दैवमुपाश्रिताः।। | 8-7-14a 8-7-14b |
लोकप्रवीरा येऽस्माकं देवकल्पा महारथाः। नीतिमन्तस्तथा युक्ता दक्षा रक्ताश्च ते हताः।। | 8-7-15a 8-7-15b |
न त्वेव कार्यं नैराश्यमस्माभिर्विजयं प्रति। सुनीतैरिह सर्वार्थैर्दैवमप्यनुलोम्यते।। | 8-7-16a 8-7-16b |
ते वयं प्रवरं नॄणां सर्वैर्योधगुणैर्युतम्। कर्णमेवाभिषेभ्यामः सैनापत्येन भारत।। | 8-7-17a 8-7-17b |
कर्णं सेनापतिं कृत्वा प्रमथिष्यामहे रिपून्।। | 8-7-18a |
एष ह्यतिबलः शूरः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः। वैवस्वत इवासह्यः शक्तो जेतुं रणे निपून्।। | 8-7-19a 8-7-19b |
एतदाचार्यतनयाच्छ्रुत्वा राजंस्तवात्मजः। `दुर्योधनो महाराज भृशं प्रीतमनास्तदा'।। | 8-7-20a 8-7-20b |
आशां बहुमतीं चक्रे वर्णं प्रति स वै तदा। हते भीष्मे च द्रोणे च कर्णो जेष्यति पाण्डवान्।। | 8-7-21a 8-7-21b |
तामाशां हृदये कृत्वा समाश्वस्य च भारत। [ततो दुर्योधनः प्रीतः प्रियं श्रुत्वाऽस्य तद्वचः। प्रीतिसत्कारसंयुक्तं तथ्यमात्महितं शूभम्।।] | 8-7-22a 8-7-22b 8-7-22c |
स्वं मनः समवस्थाप्य बाहुवीर्यमुपाश्रितः।। | 8-7-23a |
`प्रियसत्कारसंयुक्तं तथ्यमात्महिते रतम्'। दुर्योधनो महाराज राधेयमिदमब्रवीत्।। | 8-7-24a 8-7-24b |
कर्ण जानामि ते वीर्यं सौहृदं परमं मयि। तथाऽपि त्वां महाबाहो प्रवक्ष्यामि हितं वचः।। | 8-7-25a 8-7-25b |
श्रुत्वा यथेष्टं च कुरु वीर यत्तव रोचते। भवान्प्राज्ञतमो नित्यं मम चैव परा गतिः।। | 8-7-26a 8-7-26b |
भीष्मद्रोणावतिरथौ हतौ सेनापती मम। सेनापतिर्भवानस्तु ताभ्यां द्रविणवत्तरः।। | 8-7-27a 8-7-27b |
वृद्धो च तौ महेष्वासौ सापेक्षो च धनञ्जये। मानितौ च मया वीरौ राधेय वचनात्तव।। | 8-7-28a 8-7-28b |
पितामहत्वं सम्प्रेक्ष्य पाण्डुपुत्रा महारणे। रक्षितास्तात भीष्मेण दिवसानि दशैव तु।। | 8-7-29a 8-7-29b |
न्यस्तशस्त्रे तु भवति हतो भीष्मः पितामहः। शिखण्डिनं पुरुस्कृत्य फल्गुनेन महाहवे।। | 8-7-30a 8-7-30b |
हते तस्मिन्महेष्वासे शरतल्पगते तथा। त्वयोक्ते पुरुषव्याघ्र द्रोणो ह्यासीत्पुरःसरः।। | 8-7-31a 8-7-31b |
तेनापि रक्षिताः पार्थाः शिष्यत्वादिति मे मतिः। स चापि निहतो वृद्धो धृष्टद्युम्नेन सत्वरम्।। | 8-7-32a 8-7-32b |
निहताभ्यां प्रधानाभ्यां ताभ्यामतुलविक्रम। त्वत्समं समरे योधं नान्यं पश्यामि चिन्तयन्।। | 8-7-33a 8-7-33b |
भवानेव तु नः शक्तो विजयाय न संशयः। पूर्वं मध्ये च पश्चाश्च तथैव विहितं हितम्।। | 8-7-34a 8-7-34b |
स भवान्धुर्यवत्सङ्ख्ये धुरमुद्वोऽढुमर्हति। अभिषेचय सैनान्ये स्वयमात्मानमात्मना।। | 8-7-35a 8-7-35b |
देवतानां यथा स्कन्दः सेनानीः प्रभुरव्ययः। तथा भवानिमां सेनां धार्तराष्ट्रीं बिभर्तु वै।। | 8-7-36a 8-7-36b |
जहि शत्रुगणान्सर्वान्महेन्द्रो दानवानिव। अवस्थितं रमे दृष्ट्वा पाण्डवास्त्वां महारथाः। द्रविष्यन्ति च पाञ्चाला विष्णुं दृष्ट्वेव दानवाः।। | 8-7-37a 8-7-37b 8-7-37c |
तस्मात्त्वं पुरुषव्याघ्र प्रकर्षैतां महाचमूम्।। | 8-7-38a |
भवत्यवस्थिते यत्ते पाण्डवा मन्दचेतसः। द्रविष्यन्ति सहामात्याः पाञ्चालाः सृञ्जयाश्च ह। | 8-7-39a 8-7-39b |
यथा ह्यभ्युदितः सूर्यः प्रतपन्स्वेन तेजसा। व्यपोहति तमस्तीव्रं तथा शत्रून्प्रतापय।। | 8-7-40a 8-7-40b |
सञ्जय उवाच। | 8-7-41x |
एवमुक्तस्तु राधेयो राज्ञा दुर्योधनेन ह। राज्ञां मध्ये महाबाहुः प्रीतात्मा स महाबलः। हर्षयन्नब्रवीत्कर्णो दुर्योधनमिदं वचः।। | 8-7-41a 8-7-41b 8-7-41c |
कर्ण उवाच। | 8-7-42x |
उक्तमेतन्मया पूर्वं गान्धारे तव सन्निधौ। जेष्यामि पाण्डवान्सर्वान्सपुत्रान्सजनार्दनान्।। | 8-7-42a 8-7-42b |
सेनापतिर्भविष्यामि तवाहं नात्र संशयः। स्थिरो भव महाराज जितान्विद्वि च पाण्डवान्।। | 8-7-43a 8-7-43b |
सञ्जय उवाच। | 8-7-44x |
एवमुक्तो महाराज ततो दुर्याधनो नृपः। उत्तस्थौ राजभिः सार्धं देवैरिव शतक्रतुः।। | 8-7-44a 8-7-44b |
सैनापत्येन सत्कर्तुं कर्णं स्कन्दमिवामराः। ततोऽभिषिषिचुः कर्णं विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 8-7-45a 8-7-45b |
दुर्योधनमुक्ता राजन्राजानो विजयैषिणः। शातकुम्भमयैः कुम्भेर्माहेयैश्चाभिमन्त्रितैः।। | 8-7-46a 8-7-46b |
तोयपूर्णैर्विषाणैश्च द्विपखङ्गमहर्षभैः। मणिमुक्तायुतैश्चान्यैः पुण्यगन्धैस्तथौषधैः।। | 8-7-47a 8-7-47b |
औदुम्बरे सुखासीनमासने क्षौमसंवृते। शास्त्रदृष्टेन विधिना सम्भारैश्च सुसम्भृतैः।। | 8-7-48a 8-7-48b |
ब्राह्मणः क्षत्रिया वैश्यास्तथा शूद्राश्च सम्मताः। तुष्टुवुस्तं महात्मानमभिषिक्तं वरासने।। | 8-7-49a 8-7-49b |
ततोऽभिषिक्ते राजेन्द्र निष्कैर्गोभिर्धनेन च। वाचयामास विप्राग्र्यान्राधेयः परवीरहा।। | 8-7-50a 8-7-50b |
`स व्यरोचत राधेयः सूतमागधबन्दिभिः। स्तूयमानो यथा भानुरुदये ब्रह्मवादिभिः।। | 8-7-51a 8-7-51b |
ततः पुण्याहघोषेण वादित्रनिनदेन च। जयशब्देन शूराणां तुमुलः सर्वतोऽभवत्।। | 8-7-52a 8-7-52b |
जयेत्यूचुर्नृपाः सर्वे राधेयं तत्र सङ्गताः'।। | 8-7-53a |
जय पार्थान्सगोविन्दान्सानुगांस्तान्महामृधे। इति तं बन्दिनः प्राहुर्द्विजाश्च पुरुषर्षभम्।। | 8-7-54a 8-7-54b |
जहि पार्थान्सपाञ्चालान्राधेय विजयाय नः। उद्यन्निव सदा भानुस्तमांस्युग्रैर्गभस्तिभिः।। | 8-7-55a 8-7-55b |
न ह्यलं त्वद्विसृष्टानां शराणां वै सकेशवाः। उलूकाः सूर्यरश्मीनां ज्वलतामिव दर्शने।। | 8-7-56a 8-7-56b |
न हि पार्थाः सपाञ्चालाः स्थातुं शक्तास्तवाग्रतः। आत्तवज्रस्य समरे महेन्द्रस्येव दानवाः।। | 8-7-57a 8-7-57b |
`सञ्जय उवाच। | 8-7-58x |
स सत्कृतः स्तूयमानः सुहृद्गणवृतो रुषा। कर्णो दुर्योधनं वाक्यमब्रवीत्प्रहसन्प्रियम्।। | 8-7-58a 8-7-58b |
दुर्योधनाद्य सगणं पाण्डूनां प्रवरैः सह। फल्गुनं सूदयिष्यामि त्वत्प्रियार्थं सबान्धवम्।। | 8-7-59a 8-7-59b |
सपर्वतार्णवद्वीपां शाधि गां गतपाण्डवाम्। पुत्रपौत्रप्रपौत्रेषु प्रतिष्ठां गमयिष्यमि।। | 8-7-60a 8-7-60b |
नासह्यं विद्यते मह्यं त्वत्प्रियार्थमरिन्दम। सत्यधर्मानुरक्तस्य सिद्धिरात्मवतो यथा।। | 8-7-61a 8-7-61b |
अभिषिक्तस्तु राघेयः प्रभया सोऽमितप्रभः। अत्यरिच्यत रूपेण दिवाकर इवापरः।। | 8-7-62a 8-7-62b |
सैनापत्ये तु राधेयमभिषिच्य सुतस्तव। अमन्यत तदात्मानं कृतार्थं कालचोदितः।। | 8-7-63a 8-7-63b |
कर्णोऽपि राज्ञः संप्राप्य सैनापत्यमरिन्दमः। योगमाज्ञापयामास सूर्यस्योदयनं प्रति।। | 8-7-64a 8-7-64b |
तव पुत्रैर्वृतः कर्णः शुशुभे तत्र भारत। देवैरिव यथा स्कन्दः सङ्ग्रामे तारकामये।। | 8-7-65a 8-7-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तमोऽध्यायः।। 7 ।। |
8-7-3 स्वबलम्प्रति विद्रुतं दृष्ट्वा।। 8-7-5 लब्धलक्षैः प्राप्ताजयैः। व्यायच्छद्भिः यतमानैः। प्रत्याहारं प्रत्यक्हारम्। प्रत्यहारमिति वा पाठः।। 8-7-9 पर्यङ्केष्वेव वरासनेषु ।। 8-7-11 कार्यतरं आवश्यकतरं यत्कार्यं कर्तव्यं परं मतं सम्मतं तत् प्रब्रूत।। 8-7-12 चेष्टाः शौर्याभिनयरूपाः भुजास्फालनाद्याः।। 8-7-13 निशाम्य आलोच्य। वर्चसं छान्दसष्टच्।। 8-7-14 रागः स्वामिभक्तिः। योगो देशकालादिसम्पत्तिः। दाक्ष्यं बलम्। नयो नीतिः।। 8-7-16 सर्वार्थैः रागादिभिः सुनीतैः दैवमनुलोम्यतेऽनुकूलं क्रियते। न केवलं रागाद्यपेक्षया दैवस्य प्राबल्यमपितु दैवापेक्षयापि सुप्रणीता रागादयः प्रबला इत्यर्थः।। 8-7-21 बहुमतीं वाहुल्यवतीं अतिशयितामिति यावत्।। 8-7-22 शुभं वचः श्रुत्वा मनः समवस्थाप्य समाधायाब्रवीदिति द्वयोः सम्बन्धः।। 8-7-27 ताभ्यां सकाशात् द्रविणवत्तरः बलवत्तरः।। 8-7-34 विहितं त्वयेति शेषः।। 8-7-35 सैनान्ये सेनानीत्ये।। 8-7-46 शातकुम्भमयैः सौवर्णैर्माहेयैर्महीमयैश्च कुम्भैः।। 8-7-47 विषाणैः द्विपस्य गजस्य दन्तमयैः पात्रैः। खङ्गस्य गण्डकस्य। महर्षभस्य गवयस्य च शृङ्गैः। विषाणं दन्तशृङ्गयोरिति विश्वः। द्विपखङ्गमहर्षभीयैरिति तद्धितलोप आर्षः।। 8-7-56 शराणां दर्शनेपि नालं किमुत स्पर्शे इत्यर्थः।। 8-7-7 सप्तमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-006 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-008 |