महाभारतम्-08-कर्णपर्व-072

← कर्णपर्व-071 महाभारतम्
अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-072
वेदव्यासः
कर्णपर्व-073 →

xxxxxxxxxxxxx तेन तन्निवेदनम्।। 1 ।।
कृष्णेन वधप्रतिनिधित्वेन युधिष्ठिराधिक्षेपxxxxxxx।। 2 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
सञ्जय उवाच। 8-72-1x
युधिष्ठिरेणैxxxxक्तः कौन्तेयः श्वेतवाहनः।
असिं जग्राह सङ्क्रुद्धो जिघांसुर्भरतर्षभम्।।
8-72-1a
8-72-1b
तस्य कोपं समाज्ञाय चित्तज्ञः केशवस्तदा।
उवाच किमिदं खङ्गं गृह्णास्यर्जुन शंम मे।।
8-72-2a
8-72-2b
नेह पश्यामि योद्धव्यं त्वया किञ्चिद्वनञ्जय।
नेहागता धार्तराष्ट्राः सर्वे भीमेन वारिताः।।
8-72-3a
8-72-3b
उपागतोऽसि कौन्तेय राजा द्रष्टव्य इत्यसौ।
स राजा भवता दृष्टः कुशली च युधिष्ठिरः।।
8-72-4a
8-72-4b
तं दृष्ट्वा नृपशार्दूलं शार्दूलसमविक्रमम्।
हर्षकाले च सम्प्राप्ते कस्मात्त्वां मन्युराविशत्।।
8-72-5a
8-72-5b
न तं पश्यामि कौन्तेय यस्ते वध्यो भवेदिह।
प्रहर्तुमिच्छसे कस्मात्किं वा ते चित्तविभ्रमः।।
8-72-6a
8-72-6b
कस्माद्भवान्महाखङ्गं परिगृह्णात्यकारणात्। 8-72-7a
तत्त्वां पृच्छामि कौन्तेय किमिदं ते चिकीर्षितम्।
परामृशसि यत्क्रुद्धः खङ्गमद्भुतविक्रम।।
8-72-8a
8-72-8b
एवमुक्तः कटाक्षेण प्रेक्षमाणो युधिष्ठिरम्।
अर्जुनः प्राह गोविन्दं क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।।
8-72-9a
8-72-9b
अन्यस्मै देहि गाण्डीवमिति मां यः प्रचोदयेत्।
भिन्द्यामहं तस्य शिर इत्युपांशु व्रतं मम।
युधिष्ठिरेण तेनाहमुक्तश्चास्मि जनार्दन।।
8-72-10a
8-72-10b
8-72-10c
यदुक्तोऽहमदीनार्थं राज्ञाऽनेन यशस्विना।
समक्षं तव गोविन्द न तत्क्षन्तुमिहोत्सहे।।
8-72-11a
8-72-11b
तस्मादेनं विधिष्यामि राजानं धर्मचारिणाम्।
प्रतिज्ञां पालयिष्यामि हत्वैनं नरसत्तमम्।।
8-72-12a
8-72-12b
एतदर्थं मया खह्गो गृहीतो यदुनन्दन।
सोऽहं युधिष्ठिरं हत्वा सत्यस्यानृण्यतां गतः।
विशोको विज्वरश्चापि भविष्यामि जनार्दन।।
8-72-13a
8-72-13b
8-72-13c
किं वा त्वं मन्यसे प्राप्तमस्मिन्कार्य उपस्थिते।
त्वमस्य जगतस्तात वेत्थ सर्वं गतागतम्।।
8-72-14a
8-72-14b
`जातस्त्वत्तो हि धर्मश्चाधर्मश्चेति परा श्रुतिः'।
तत्तथा प्रकरिष्यामि यथा मां वक्ष्यते भवान्।।
8-72-15a
8-72-15b
सञ्जय उवाच। 8-72-16x
धिग्धिगित्येव गोविन्दः पार्थमुक्त्वाब्रवीत्पुनः।। 8-72-16a
कृष्ण उवाच। 8-72-17x
इदानीं पार्थ जानामि न वृद्धाः सेवितास्त्वया।
अकाले पुरुषव्याघ्र संरम्भं यद्भवानगात्।।
8-72-17a
8-72-17b
न हि धर्मविगज्ञैरेवं कार्यं धनञ्जय।
यथा त्वं पाण्डवाद्येह धर्मभीरुरण्डितः।।
8-72-18a
8-72-18b
योऽकार्याणां क्रियायाश्च संयोगं नावबुध्यते।
कार्याणामक्रियायाश्च स पार्थ पुरुषाधमः।।
8-72-19a
8-72-19b
अनुसृत्य तु ये धर्मं कवयः समुपस्थिताः।
समासविस्तरविदां न तेषां वेत्सि निश्चयम्।।
8-72-20a
8-72-20b
अनिश्चयज्ञो हि नरः कार्याकार्यविनिश्चये।
एवं स मुह्यत्यवशो यथा त्वं पार्थ मुह्यसि।।
8-72-21a
8-72-21b
न हि कार्यमकार्यं वा सुखं ज्ञातुं कथञ्चन।
श्रुतेन ज्ञायते सर्वं तच्च त्वं नावहुध्यसे।।
8-72-22a
8-72-22b
अविज्ञानादिह भवान्सत्यं रक्षति धर्मवित्।
प्राणिनां त्वं वधं पार्थ धार्मिको नावबुध्यसे।।
8-72-23a
8-72-23b
प्राणिनां हि वधात्तात वृथा धर्मो मतो मम।
अनृतं तु भवेद्वाच्यं न तु हिंसा कदाचन।।
8-72-24a
8-72-24b
स कथं भ्रातरं ज्येष्ठं राजानं धर्मकोविदम्।
हन्याद्भवान्नरश्रेष्ठ प्राकृतोऽन्यः पुमानिव।।
8-72-25a
8-72-25b
अयुध्यमानस्य गुरोस्तथाऽशत्रोश्च मानद।
पराङ्मुखस्य द्रवतः शरणं चापि गच्छतः।।
8-72-26a
8-72-26b
कृताञ्जलेः प्रपन्नस्य प्रमत्तस्य तथैव च।
न वधः पूज्यते सद्भिस्तच्च सर्वं गुरौ तव।।
8-72-27a
8-72-27b
त्वया चैतद्व्रतं पार्थ बालेनेव कृतं पुरा।
तस्मादधर्मसंयुक्तं मौर्ख्यादेव व्यवस्यसि।।
8-72-28a
8-72-28b
स्वगुरुं पार्थ कस्मात्त्वं हन्तुकामोऽभिधावसि।
असम्प्रधार्य धर्माणां गतिं सूक्ष्मां दुरत्ययाम्।।
8-72-29a
8-72-29b
इदं धर्मरहस्यं च तव वक्ष्यामि पाण्डव।
यद्ब्रूयात्तव भीष्मो वा राजा वापि युधिष्ठिरः।।
8-72-30a
8-72-30b
विदुरो वा पुनः क्षत्ता गान्धारी वा यशस्विनी।
कुन्ती वा भरतश्रेष्ठ द्रौपदी वा यशस्विनी।
तत्ते वक्ष्यामि तत्त्वेन निबोधैतद्धनञ्जय।।
8-72-31a
8-72-31b
8-72-31c
सत्यस्यं वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्।
सुदुर्विदं हि तत्त्वेन तत्सत्यमिति मे सतिः।।
8-72-32a
8-72-32b
भवेत्सत्यमवक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत्।
यत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत्।।
8-72-33a
8-72-33b
विवाहकाले रतिसम्प्रयोगे
प्राणात्यये सर्वत्रनापहारे।
विप्रस्य चार्थे ह्यनृतं वदेत
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।।
8-72-34a
8-72-34b
8-72-34c
8-72-34d
सर्वस्वस्यापहारे तु वक्तव्यमनृतं भवेत्।।
तत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत्।।
8-72-35a
8-72-35b
तादृशो हन्यते बालो यस्य सत्यमनिश्चितम्।
सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित्।।
8-72-36a
8-72-36b
किमाश्चर्यं कृतप्रज्ञः पुरुषोऽपि सुदारुणः।
सुमहत्प्राप्नुयात्पुण्यं बलाकोऽन्धवधादिव।।
8-72-37a
8-72-37b
किमाश्चर्यं पुनर्मूढो धर्मकामो ह्यपण्डितः।
सुमहत्प्राप्नुयात्पापमापगास्विव कौशिकः।।
8-72-38a
8-72-38b
अर्जुन उवाच। 8-72-39x
आचक्ष्व भगवन्नेतद्यथा विन्दाम्यहं तथा।
वलाकस्यानुसम्बद्धं नदीनां कौशिकस्य च।।
8-72-39a
8-72-39b
वासुदेव उवाच। 8-72-40x
मृगव्याधोऽभवत्कश्चिद्बलाको नाम भारत।
यात्रार्थं पुत्रदाराणां मृगान्हन्ति न कामतः।।
8-72-40a
8-72-40b
वृद्धौ च मातापितरौ बिभर्त्यन्यांश्च संश्रितान्।
स्वधर्मनिरतो नित्यं संविभज्यानसूयकः।।
8-72-41a
8-72-41b
स कदाचिन्मृगप्रेप्सुर्नान्वविन्दन्मृगं क्वचित्।
अथापश्यत्स पीवानं श्वापदं घ्राणचक्षुषम्।।
8-72-42a
8-72-42b
अदृष्टपूर्वमपि तत्सत्वं तेन हतं तदा।
अन्धे हते ततो व्योम्नः पुष्पवर्षं पपात च।।
8-72-43a
8-72-43b
अप्सरोगीतवादित्रैर्नादितं च मनोरमम्।
विमानमगमत्स्वर्गान्मृगव्याधनिनीषया।।
8-72-44a
8-72-44b
तद्भूतं सर्वभूतानामभावाय किलार्जुन।
तपस्तप्त्वा वरं प्राप्तं कृतमन्धं स्वयम्भुवा।।
8-72-45a
8-72-45b
तद्धत्वा सर्वभूतानामभावकृतनिश्चयम्।
बलाकोऽगात्स्वर्गलोकमेवं धर्मः सुदुर्विदः।।
8-72-46a
8-72-46b
कौशिकोऽप्यभवद्विप्रस्तपस्वीनो बहुश्रुतः।
नदीनां सङ्गमे ग्रामाददूरे स किलावसत्।।
8-72-47a
8-72-47b
सत्यं मया सदा वाच्यमिति तस्याभवद्द्वतम्।
सत्यवादीति विख्यातः स तदासीद्धनञ्जय।।
8-72-48a
8-72-48b
अथ दस्युभयात्केचित्तदा तद्वनमाविशन्।
तत्रापि दस्यवः क्रुद्धास्तानमार्गन्त यत्नतः।।
8-72-49a
8-72-49b
अथ कौशिकमभ्येत्य प्रोचुस्ते सत्यवादिनम्।
कतरेण पथा याता भगवन्निति वै जनाः।
सत्येन पृष्टः प्रब्रूहि यदि तद्वेत्थ शंस नः।।
8-72-50a
8-72-50b
8-72-50c
श्रीकृष्ण उवाच। 8-72-51x
सत्यस्य त्वविभागज्ञः सत्यं तेभ्यः शशंस ह।
बहुवृक्षलतागुल्ममेतद्गहनमाश्रिताः।
इति तान्ख्यापयामास तेभ्यस्तत्त्वं स कौशिकः।।
8-72-51a
8-72-51b
8-72-51c
ततस्ते तान्समासाद्य क्रूरा जघ्नुरिति श्रुतिः।
ततोऽधर्मेण महता वाग्दुरुक्तेन कौशिकः।।
8-72-52a
8-72-52b
गतः सुकष्टं निरयं धर्मसूक्ष्मेष्वतत्त्ववित्।
दृष्टपूर्वश्रुतो मूढो धर्माणामविशारदः।।
8-72-53a
8-72-53b
वृद्धानपृच्छन्सन्देहानन्धः श्वभ्रमिवर्च्छति।। 8-72-54a
तत्र ते लक्षणोद्देशः कश्चिदेव भविष्यति।
दुष्करं प्रतिसंख्यानं कार्त्स्न्येनात्र व्यवस्थितिः।।
8-72-55a
8-72-55b
सत्यं धर्म इति ह्येके वदन्ति बहवो जनाः।
न च पार्थाभ्यसूयामि नैतत्सर्वत्र शिष्यते।।
8-72-56a
8-72-56b
श्रुतिस्तु धार्या इत्येके वदन्ति बहवो जनाः।
न त्वेतत्प्रत्यसूयामि तत्र सर्वं विधीयते।।
8-72-57a
8-72-57b
यत्स्यादहिंसासंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।
अहिंसार्थाय हिंस्राणां धर्मप्रवचनं कृतम्।
धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः।।
8-72-58a
8-72-58b
8-72-58c
प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्।
यस्मात्प्रभवसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।
8-72-59a
8-72-59b
येऽन्यायेन जिगीषन्तो धर्मं पृच्छन्ति मानवाः।
अकूजनेन चेन्मोक्षो नात्र कूजेत्कथञ्चन।।
8-72-60a
8-72-60b
अवश्यं कूजितव्ये ह शङ्केरन्वाप्यकूजनात्।
येऽन्यायेन जिहीर्षन्तो धर्मं पृच्छन्ति कस्यचित्।
श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विनिश्चित्म्।।
8-72-61a
8-72-61b
8-72-61c
प्राणात्यये विवाहे वा सर्वजात्या महाभये।
सर्वस्वस्य च लोपे वा वक्तव्यमनृतं भवेत्।।
8-72-62a
8-72-62b
अधर्मं हि न पश्यन्ति मृषोद्यं तत्र पण्डिताः।
सर्वथाऽभिवदेत्तत्तु नानृतं स्याद्विचक्षणः।।
8-72-63a
8-72-63b
यः स्तेनैः सह सम्बन्धो मुच्यते शपथादपि।
भवेत्तत्रानृतं श्रेयः सत्यादिति विचारितम्।।
8-72-64a
8-72-64b
न च तेभ्यो धनं देयं सत्यादिति कथञ्चन।
पापेभ्योऽपि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेत्।
तस्माद्धर्मार्थमनृतमुक्त्‌वा नानृतवाग्भवेत्।।
8-72-65a
8-72-65b
8-72-65c
एष ते लक्षणोद्देशो मयोद्दिष्टो यथाविधि।
एतज्ज्ञात्वा ब्रूहि पार्थ यदि वध्यो युधिष्ठिरः।।
8-72-66a
8-72-66b
अर्जुन उवाच। 8-72-67x
यथा ब्रूयान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयान्महायशाः।। 8-72-67a
सुहृद्ब्रूयाद्यथाऽस्माकं तथोक्तं वचनं त्वया।
भवान्मातृसमोऽस्माकं भवान्पितृसमोऽपि च।
गतिश्च परमा कृष्ण त्वमेव च परायणम्।।
8-72-68a
8-72-68b
8-72-68c
न हि ते त्रिषु लोकेषु विद्यतेऽविदितं क्वचित्।
तस्माद्भवान्परं धर्मं वेद सर्वं यथातथम्।।
8-72-69a
8-72-69b
अवध्यं पाण्डवं मन्ये धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
अधर्मयुक्ते संयोगे ब्रूहि किञ्चिदनुग्रहम्।।
8-72-70a
8-72-70b
इदं चापरमत्रैव ब्रूहि तत्त्वं विवक्षितम्।। 8-72-71a
जानासि दाशार्ह मम व्रतं तु
यो मां ब्रूयात्कश्चन मानुषेषु।
अन्यस्मै त्वं गाण्डिवं देहि पार्थ
यो मत्तोऽस्त्रे वीर्यतो वा विशिष्टः।।
8-72-72a
8-72-72b
8-72-72c
8-72-72d
हन्यामहं केशव तं प्रसह्य
भीमो हन्यात्तूवरकेति चोक्तः।
वन्मां राजा ह्युक्तवांस्ते समक्षं
धनुर्देहीत्यसकृद्वृष्णिवीरे।।
8-72-73a
8-72-73b
8-72-73c
8-72-73d
तं हन्यां चेत्केशव जीवलोके
स्थाता नाहं कालमप्यल्पमात्रम्।
ध्यात्वा नूनं ह्येनसा चापि मुक्तो
वधं राज्ञो भ्रष्टवीर्यो विचेताः।।
8-72-74a
8-72-74b
8-72-74c
8-72-74d
यथा प्रतिज्ञा मम लोकबुद्धौ
भवेत्सत्या धर्मभृतां वरिष्ठ।
यथा जीवत्पाण्डवोऽहं च कृष्ण
तथा बुद्धिं दातुमप्यर्हसि त्वम्।।
8-72-75a
8-72-75b
8-72-75c
8-72-75d
वासुदेव उवाच। 8-72-76x
राजा श्रान्तो विक्षतो दुःखितश्च
कर्णेन सह्ख्ये निशितैर्बाणसङ्घैः।
यश्चानिशं सूतपुत्रेण वीर
शरैर्भृशं ताडितो युध्यमानः।।
8-72-76a
8-72-76b
8-72-76c
8-72-76d
अतस्त्वमेतेन सरोषमुक्तो
दुःखान्वितेनेदमयुक्तरूपम्।
अकोपितो ह्येष यदि स्म सङ्ख्ये
कर्णं न हन्यादिति चाब्रवीत्सः।।
8-72-77a
8-72-77b
8-72-77c
8-72-77d
जानाति तं पाण्डव एष चापि
पापं लोके कर्णमसह्यमन्यैः।
ततस्त्वमुक्तो भृशरोषितेन
राज्ञा समक्षं परुषाणि पार्थ।।
8-72-78a
8-72-78b
8-72-78c
8-72-78d
नित्योद्युक्ते सततं चाप्रसह्ये
कर्णे द्यूतं ह्यद्य रणे निबद्धम्।
तस्मिन्हते कुरवो निर्जिताः स्यु--
रेवं बुद्धिः पार्थिवे धर्मपुत्रे।।
8-72-79a
8-72-79b
8-72-79c
8-72-79d
ततो बधं नार्हति धर्मपुत्र--
स्त्वया प्रतिज्ञाऽर्जुन पालनीया।
जीवन्नयं येन मृतो भवेद्धि
तन्मे निबोधेह तवानुरूपम्।।
8-72-80a
8-72-80b
8-72-80c
8-72-80d
यदा मानं लभते माननार्ह--
स्तदा स वै जीवति जीवलोके।
यदाऽवमानं लभते महान्तं
तदा जीवन्मृत इत्युच्यते सः।।
8-72-81a
8-72-81b
8-72-81c
8-72-81d
सम्मानितः पार्थिवोऽयं सदैव
त्वया च भीमेन तथा यमाभ्याम्।
वृद्धैश्च लोके पुरुषैश्च शूरै--
स्तस्यापमानं कलया प्रयुङ्क्ष्व।।
8-72-82a
8-72-82b
8-72-82c
8-72-82d
त्वमित्यत्रभवन्तं हि ब्रूहि पार्थ युधिष्ठिरम्।
त्वमित्युक्तो हि निहतो गुरुर्भवति भारत।।
8-72-83a
8-72-83b
एवमाचर कौन्तेय धर्मराजे युधिष्ठिरे।
अधर्मयुक्तं संयोगं कुरुष्वैनं कुरूद्वह।।
8-72-84a
8-72-84b
अथर्वाङ्गिरसी ह्येषा श्रुतीनामुत्तमा श्रुतिः।
अविचार्यैव कार्यैषा श्रेयस्कामैर्नरैः सदा।।
8-72-85a
8-72-85b
अवधेन वधः प्रोक्तो यद्गुरुस्त्वमिति प्रभुः।
तद्ब्रूहि त्वं यन्मयोक्तं धर्मराजस्य धर्मवित्।।
8-72-86a
8-72-86b
यदा ह्यं पाण्डव धर्मराज--
सत्वत्तोऽयुक्तं लप्स्यते चैव साधु।
ततोऽस्य पादावभिवाद्य पश्चा--
च्छ्रेयो ब्रूयात्सान्त्वयुक्तं हितं च।।
8-72-87a
8-72-87b
8-72-87c
8-72-87d
भ्राता प्राज्ञस्तव कोपं न जातु
कुर्याद्राजा धर्ममार्गानुसारी।
मुक्तोऽनृताद्वातृवधाच्च पापा--
द्धृष्टः कर्णं त्वं जहि पार्थ पश्चात्।।
8-72-88a
8-72-88b
8-72-88c
8-72-88d
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे द्विसप्ततितमोऽध्यायः।। 72 ।।

सम्पाद्यताम्

8-72-22 सुखं अनधीत्येत्यर्थः। श्रुतेन शास्त्रेण।। 8-72-26 अशत्रोः अशातनीयस्य अवध्यस्य।। 8-72-47 तपस्वीनः तपस्विनामिनः श्रेष्ठः।। 8-72-52 यथा चाल्पश्रुतो मूढो धर्माणामविभागवित्। वृद्धानपृष्ट्वा सन्देहं महच्छ्वभ्रमिहार्हति। इति ङ. पाठः।। 8-72-57 तत्र ते लक्षणोद्वेशात्कश्चिदत्र भविष्यति इति क.ड.पाठः। दुष्करं परमं ज्ञानं तर्केणानुव्यवस्याति इति ड.पाठः। दुष्करं प्रतिसङ्ख्यानं कार्त्स्न्येनास्य व्यवस्यति इति व.घ.ड.पाठः। श्रुतेर्धर्म इति ह्येके इति ड.पाठः।। 8-72-62 प्राणात्यये विधाहे वा सर्वज्ञातिवधात्यये। नर्मण्यभिप्रवृत्ते वा न च प्रोक्तं मृषा भवेत् इति झ.ङ.पाठः।। 8-72-63 अधर्मं नात्र पश्यन्ति धर्मतत्वार्थदर्शिनः इति ङ.पाठः।। 8-72-64 यः स्तेनैः सह सम्बन्धान्मुच्यते शपथैरपि। श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं तत्सत्यमविचारितम्। इति ङ. पाठः।। 8-72-65 शक्ये सति कथञ्चन इति ङ. पाठः।। 8-72-70 अनुग्रहं अवधेन प्रतिज्ञारक्षणम्।। 8-72-74 तं हन्यामिति स्थाता न न स्थास्ये। एनसा मुक्तोपि कृतप्रायश्चित्तोऽपि न स्थास्ये इत्यर्थः। किं कृत्वा राज्ञो वधं ध्यात्वा।। 8-72-78 समक्षं आवयोरिति शेषः।। 8-72-79 कर्णे पणीकृते। द्युतं युद्धरूपम्।। 8-72-83 अत्र भवन्तं मान्यं त्वमिति ब्रूहि।। 8-72-84 एवं पूज्यावमानरूपं संयोगं आत्मनानुष्ठितं कुरुष्व।। 8-72-86 यत् गुरुस्त्वमिति प्रोक्तस्तत् अवधेन शंस्त्रपातनमन्तरेणैव वधः वधकरं भवतीत्यर्थः।। 8-72-72 द्विसप्ततितमोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-071 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-073