महाभारतम्-08-कर्णपर्व-072
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xxxxxxxxxxxxx तेन तन्निवेदनम्।। 1 ।।
कृष्णेन वधप्रतिनिधित्वेन युधिष्ठिराधिक्षेपxxxxxxx।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-72-1x |
युधिष्ठिरेणैxxxxक्तः कौन्तेयः श्वेतवाहनः। असिं जग्राह सङ्क्रुद्धो जिघांसुर्भरतर्षभम्।। | 8-72-1a 8-72-1b |
तस्य कोपं समाज्ञाय चित्तज्ञः केशवस्तदा। उवाच किमिदं खङ्गं गृह्णास्यर्जुन शंम मे।। | 8-72-2a 8-72-2b |
नेह पश्यामि योद्धव्यं त्वया किञ्चिद्वनञ्जय। नेहागता धार्तराष्ट्राः सर्वे भीमेन वारिताः।। | 8-72-3a 8-72-3b |
उपागतोऽसि कौन्तेय राजा द्रष्टव्य इत्यसौ। स राजा भवता दृष्टः कुशली च युधिष्ठिरः।। | 8-72-4a 8-72-4b |
तं दृष्ट्वा नृपशार्दूलं शार्दूलसमविक्रमम्। हर्षकाले च सम्प्राप्ते कस्मात्त्वां मन्युराविशत्।। | 8-72-5a 8-72-5b |
न तं पश्यामि कौन्तेय यस्ते वध्यो भवेदिह। प्रहर्तुमिच्छसे कस्मात्किं वा ते चित्तविभ्रमः।। | 8-72-6a 8-72-6b |
कस्माद्भवान्महाखङ्गं परिगृह्णात्यकारणात्। | 8-72-7a |
तत्त्वां पृच्छामि कौन्तेय किमिदं ते चिकीर्षितम्। परामृशसि यत्क्रुद्धः खङ्गमद्भुतविक्रम।। | 8-72-8a 8-72-8b |
एवमुक्तः कटाक्षेण प्रेक्षमाणो युधिष्ठिरम्। अर्जुनः प्राह गोविन्दं क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।। | 8-72-9a 8-72-9b |
अन्यस्मै देहि गाण्डीवमिति मां यः प्रचोदयेत्। भिन्द्यामहं तस्य शिर इत्युपांशु व्रतं मम। युधिष्ठिरेण तेनाहमुक्तश्चास्मि जनार्दन।। | 8-72-10a 8-72-10b 8-72-10c |
यदुक्तोऽहमदीनार्थं राज्ञाऽनेन यशस्विना। समक्षं तव गोविन्द न तत्क्षन्तुमिहोत्सहे।। | 8-72-11a 8-72-11b |
तस्मादेनं विधिष्यामि राजानं धर्मचारिणाम्। प्रतिज्ञां पालयिष्यामि हत्वैनं नरसत्तमम्।। | 8-72-12a 8-72-12b |
एतदर्थं मया खह्गो गृहीतो यदुनन्दन। सोऽहं युधिष्ठिरं हत्वा सत्यस्यानृण्यतां गतः। विशोको विज्वरश्चापि भविष्यामि जनार्दन।। | 8-72-13a 8-72-13b 8-72-13c |
किं वा त्वं मन्यसे प्राप्तमस्मिन्कार्य उपस्थिते। त्वमस्य जगतस्तात वेत्थ सर्वं गतागतम्।। | 8-72-14a 8-72-14b |
`जातस्त्वत्तो हि धर्मश्चाधर्मश्चेति परा श्रुतिः'। तत्तथा प्रकरिष्यामि यथा मां वक्ष्यते भवान्।। | 8-72-15a 8-72-15b |
सञ्जय उवाच। | 8-72-16x |
धिग्धिगित्येव गोविन्दः पार्थमुक्त्वाब्रवीत्पुनः।। | 8-72-16a |
कृष्ण उवाच। | 8-72-17x |
इदानीं पार्थ जानामि न वृद्धाः सेवितास्त्वया। अकाले पुरुषव्याघ्र संरम्भं यद्भवानगात्।। | 8-72-17a 8-72-17b |
न हि धर्मविगज्ञैरेवं कार्यं धनञ्जय। यथा त्वं पाण्डवाद्येह धर्मभीरुरण्डितः।। | 8-72-18a 8-72-18b |
योऽकार्याणां क्रियायाश्च संयोगं नावबुध्यते। कार्याणामक्रियायाश्च स पार्थ पुरुषाधमः।। | 8-72-19a 8-72-19b |
अनुसृत्य तु ये धर्मं कवयः समुपस्थिताः। समासविस्तरविदां न तेषां वेत्सि निश्चयम्।। | 8-72-20a 8-72-20b |
अनिश्चयज्ञो हि नरः कार्याकार्यविनिश्चये। एवं स मुह्यत्यवशो यथा त्वं पार्थ मुह्यसि।। | 8-72-21a 8-72-21b |
न हि कार्यमकार्यं वा सुखं ज्ञातुं कथञ्चन। श्रुतेन ज्ञायते सर्वं तच्च त्वं नावहुध्यसे।। | 8-72-22a 8-72-22b |
अविज्ञानादिह भवान्सत्यं रक्षति धर्मवित्। प्राणिनां त्वं वधं पार्थ धार्मिको नावबुध्यसे।। | 8-72-23a 8-72-23b |
प्राणिनां हि वधात्तात वृथा धर्मो मतो मम। अनृतं तु भवेद्वाच्यं न तु हिंसा कदाचन।। | 8-72-24a 8-72-24b |
स कथं भ्रातरं ज्येष्ठं राजानं धर्मकोविदम्। हन्याद्भवान्नरश्रेष्ठ प्राकृतोऽन्यः पुमानिव।। | 8-72-25a 8-72-25b |
अयुध्यमानस्य गुरोस्तथाऽशत्रोश्च मानद। पराङ्मुखस्य द्रवतः शरणं चापि गच्छतः।। | 8-72-26a 8-72-26b |
कृताञ्जलेः प्रपन्नस्य प्रमत्तस्य तथैव च। न वधः पूज्यते सद्भिस्तच्च सर्वं गुरौ तव।। | 8-72-27a 8-72-27b |
त्वया चैतद्व्रतं पार्थ बालेनेव कृतं पुरा। तस्मादधर्मसंयुक्तं मौर्ख्यादेव व्यवस्यसि।। | 8-72-28a 8-72-28b |
स्वगुरुं पार्थ कस्मात्त्वं हन्तुकामोऽभिधावसि। असम्प्रधार्य धर्माणां गतिं सूक्ष्मां दुरत्ययाम्।। | 8-72-29a 8-72-29b |
इदं धर्मरहस्यं च तव वक्ष्यामि पाण्डव। यद्ब्रूयात्तव भीष्मो वा राजा वापि युधिष्ठिरः।। | 8-72-30a 8-72-30b |
विदुरो वा पुनः क्षत्ता गान्धारी वा यशस्विनी। कुन्ती वा भरतश्रेष्ठ द्रौपदी वा यशस्विनी। तत्ते वक्ष्यामि तत्त्वेन निबोधैतद्धनञ्जय।। | 8-72-31a 8-72-31b 8-72-31c |
सत्यस्यं वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्। सुदुर्विदं हि तत्त्वेन तत्सत्यमिति मे सतिः।। | 8-72-32a 8-72-32b |
भवेत्सत्यमवक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत्। यत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत्।। | 8-72-33a 8-72-33b |
विवाहकाले रतिसम्प्रयोगे प्राणात्यये सर्वत्रनापहारे। विप्रस्य चार्थे ह्यनृतं वदेत पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।। | 8-72-34a 8-72-34b 8-72-34c 8-72-34d |
सर्वस्वस्यापहारे तु वक्तव्यमनृतं भवेत्।। तत्रानृतं भवेत्सत्यं सत्यं चाप्यनृतं भवेत्।। | 8-72-35a 8-72-35b |
तादृशो हन्यते बालो यस्य सत्यमनिश्चितम्। सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित्।। | 8-72-36a 8-72-36b |
किमाश्चर्यं कृतप्रज्ञः पुरुषोऽपि सुदारुणः। सुमहत्प्राप्नुयात्पुण्यं बलाकोऽन्धवधादिव।। | 8-72-37a 8-72-37b |
किमाश्चर्यं पुनर्मूढो धर्मकामो ह्यपण्डितः। सुमहत्प्राप्नुयात्पापमापगास्विव कौशिकः।। | 8-72-38a 8-72-38b |
अर्जुन उवाच। | 8-72-39x |
आचक्ष्व भगवन्नेतद्यथा विन्दाम्यहं तथा। वलाकस्यानुसम्बद्धं नदीनां कौशिकस्य च।। | 8-72-39a 8-72-39b |
वासुदेव उवाच। | 8-72-40x |
मृगव्याधोऽभवत्कश्चिद्बलाको नाम भारत। यात्रार्थं पुत्रदाराणां मृगान्हन्ति न कामतः।। | 8-72-40a 8-72-40b |
वृद्धौ च मातापितरौ बिभर्त्यन्यांश्च संश्रितान्। स्वधर्मनिरतो नित्यं संविभज्यानसूयकः।। | 8-72-41a 8-72-41b |
स कदाचिन्मृगप्रेप्सुर्नान्वविन्दन्मृगं क्वचित्। अथापश्यत्स पीवानं श्वापदं घ्राणचक्षुषम्।। | 8-72-42a 8-72-42b |
अदृष्टपूर्वमपि तत्सत्वं तेन हतं तदा। अन्धे हते ततो व्योम्नः पुष्पवर्षं पपात च।। | 8-72-43a 8-72-43b |
अप्सरोगीतवादित्रैर्नादितं च मनोरमम्। विमानमगमत्स्वर्गान्मृगव्याधनिनीषया।। | 8-72-44a 8-72-44b |
तद्भूतं सर्वभूतानामभावाय किलार्जुन। तपस्तप्त्वा वरं प्राप्तं कृतमन्धं स्वयम्भुवा।। | 8-72-45a 8-72-45b |
तद्धत्वा सर्वभूतानामभावकृतनिश्चयम्। बलाकोऽगात्स्वर्गलोकमेवं धर्मः सुदुर्विदः।। | 8-72-46a 8-72-46b |
कौशिकोऽप्यभवद्विप्रस्तपस्वीनो बहुश्रुतः। नदीनां सङ्गमे ग्रामाददूरे स किलावसत्।। | 8-72-47a 8-72-47b |
सत्यं मया सदा वाच्यमिति तस्याभवद्द्वतम्। सत्यवादीति विख्यातः स तदासीद्धनञ्जय।। | 8-72-48a 8-72-48b |
अथ दस्युभयात्केचित्तदा तद्वनमाविशन्। तत्रापि दस्यवः क्रुद्धास्तानमार्गन्त यत्नतः।। | 8-72-49a 8-72-49b |
अथ कौशिकमभ्येत्य प्रोचुस्ते सत्यवादिनम्। कतरेण पथा याता भगवन्निति वै जनाः। सत्येन पृष्टः प्रब्रूहि यदि तद्वेत्थ शंस नः।। | 8-72-50a 8-72-50b 8-72-50c |
श्रीकृष्ण उवाच। | 8-72-51x |
सत्यस्य त्वविभागज्ञः सत्यं तेभ्यः शशंस ह। बहुवृक्षलतागुल्ममेतद्गहनमाश्रिताः। इति तान्ख्यापयामास तेभ्यस्तत्त्वं स कौशिकः।। | 8-72-51a 8-72-51b 8-72-51c |
ततस्ते तान्समासाद्य क्रूरा जघ्नुरिति श्रुतिः। ततोऽधर्मेण महता वाग्दुरुक्तेन कौशिकः।। | 8-72-52a 8-72-52b |
गतः सुकष्टं निरयं धर्मसूक्ष्मेष्वतत्त्ववित्। दृष्टपूर्वश्रुतो मूढो धर्माणामविशारदः।। | 8-72-53a 8-72-53b |
वृद्धानपृच्छन्सन्देहानन्धः श्वभ्रमिवर्च्छति।। | 8-72-54a |
तत्र ते लक्षणोद्देशः कश्चिदेव भविष्यति। दुष्करं प्रतिसंख्यानं कार्त्स्न्येनात्र व्यवस्थितिः।। | 8-72-55a 8-72-55b |
सत्यं धर्म इति ह्येके वदन्ति बहवो जनाः। न च पार्थाभ्यसूयामि नैतत्सर्वत्र शिष्यते।। | 8-72-56a 8-72-56b |
श्रुतिस्तु धार्या इत्येके वदन्ति बहवो जनाः। न त्वेतत्प्रत्यसूयामि तत्र सर्वं विधीयते।। | 8-72-57a 8-72-57b |
यत्स्यादहिंसासंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः। अहिंसार्थाय हिंस्राणां धर्मप्रवचनं कृतम्। धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः।। | 8-72-58a 8-72-58b 8-72-58c |
प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। यस्मात्प्रभवसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।। | 8-72-59a 8-72-59b |
येऽन्यायेन जिगीषन्तो धर्मं पृच्छन्ति मानवाः। अकूजनेन चेन्मोक्षो नात्र कूजेत्कथञ्चन।। | 8-72-60a 8-72-60b |
अवश्यं कूजितव्ये ह शङ्केरन्वाप्यकूजनात्। येऽन्यायेन जिहीर्षन्तो धर्मं पृच्छन्ति कस्यचित्। श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विनिश्चित्म्।। | 8-72-61a 8-72-61b 8-72-61c |
प्राणात्यये विवाहे वा सर्वजात्या महाभये। सर्वस्वस्य च लोपे वा वक्तव्यमनृतं भवेत्।। | 8-72-62a 8-72-62b |
अधर्मं हि न पश्यन्ति मृषोद्यं तत्र पण्डिताः। सर्वथाऽभिवदेत्तत्तु नानृतं स्याद्विचक्षणः।। | 8-72-63a 8-72-63b |
यः स्तेनैः सह सम्बन्धो मुच्यते शपथादपि। भवेत्तत्रानृतं श्रेयः सत्यादिति विचारितम्।। | 8-72-64a 8-72-64b |
न च तेभ्यो धनं देयं सत्यादिति कथञ्चन। पापेभ्योऽपि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेत्। तस्माद्धर्मार्थमनृतमुक्त्वा नानृतवाग्भवेत्।। | 8-72-65a 8-72-65b 8-72-65c |
एष ते लक्षणोद्देशो मयोद्दिष्टो यथाविधि। एतज्ज्ञात्वा ब्रूहि पार्थ यदि वध्यो युधिष्ठिरः।। | 8-72-66a 8-72-66b |
अर्जुन उवाच। | 8-72-67x |
यथा ब्रूयान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयान्महायशाः।। | 8-72-67a |
सुहृद्ब्रूयाद्यथाऽस्माकं तथोक्तं वचनं त्वया। भवान्मातृसमोऽस्माकं भवान्पितृसमोऽपि च। गतिश्च परमा कृष्ण त्वमेव च परायणम्।। | 8-72-68a 8-72-68b 8-72-68c |
न हि ते त्रिषु लोकेषु विद्यतेऽविदितं क्वचित्। तस्माद्भवान्परं धर्मं वेद सर्वं यथातथम्।। | 8-72-69a 8-72-69b |
अवध्यं पाण्डवं मन्ये धर्मराजं युधिष्ठिरम्। अधर्मयुक्ते संयोगे ब्रूहि किञ्चिदनुग्रहम्।। | 8-72-70a 8-72-70b |
इदं चापरमत्रैव ब्रूहि तत्त्वं विवक्षितम्।। | 8-72-71a |
जानासि दाशार्ह मम व्रतं तु यो मां ब्रूयात्कश्चन मानुषेषु। अन्यस्मै त्वं गाण्डिवं देहि पार्थ यो मत्तोऽस्त्रे वीर्यतो वा विशिष्टः।। | 8-72-72a 8-72-72b 8-72-72c 8-72-72d |
हन्यामहं केशव तं प्रसह्य भीमो हन्यात्तूवरकेति चोक्तः। वन्मां राजा ह्युक्तवांस्ते समक्षं धनुर्देहीत्यसकृद्वृष्णिवीरे।। | 8-72-73a 8-72-73b 8-72-73c 8-72-73d |
तं हन्यां चेत्केशव जीवलोके स्थाता नाहं कालमप्यल्पमात्रम्। ध्यात्वा नूनं ह्येनसा चापि मुक्तो वधं राज्ञो भ्रष्टवीर्यो विचेताः।। | 8-72-74a 8-72-74b 8-72-74c 8-72-74d |
यथा प्रतिज्ञा मम लोकबुद्धौ भवेत्सत्या धर्मभृतां वरिष्ठ। यथा जीवत्पाण्डवोऽहं च कृष्ण तथा बुद्धिं दातुमप्यर्हसि त्वम्।। | 8-72-75a 8-72-75b 8-72-75c 8-72-75d |
वासुदेव उवाच। | 8-72-76x |
राजा श्रान्तो विक्षतो दुःखितश्च कर्णेन सह्ख्ये निशितैर्बाणसङ्घैः। यश्चानिशं सूतपुत्रेण वीर शरैर्भृशं ताडितो युध्यमानः।। | 8-72-76a 8-72-76b 8-72-76c 8-72-76d |
अतस्त्वमेतेन सरोषमुक्तो दुःखान्वितेनेदमयुक्तरूपम्। अकोपितो ह्येष यदि स्म सङ्ख्ये कर्णं न हन्यादिति चाब्रवीत्सः।। | 8-72-77a 8-72-77b 8-72-77c 8-72-77d |
जानाति तं पाण्डव एष चापि पापं लोके कर्णमसह्यमन्यैः। ततस्त्वमुक्तो भृशरोषितेन राज्ञा समक्षं परुषाणि पार्थ।। | 8-72-78a 8-72-78b 8-72-78c 8-72-78d |
नित्योद्युक्ते सततं चाप्रसह्ये कर्णे द्यूतं ह्यद्य रणे निबद्धम्। तस्मिन्हते कुरवो निर्जिताः स्यु-- रेवं बुद्धिः पार्थिवे धर्मपुत्रे।। | 8-72-79a 8-72-79b 8-72-79c 8-72-79d |
ततो बधं नार्हति धर्मपुत्र-- स्त्वया प्रतिज्ञाऽर्जुन पालनीया। जीवन्नयं येन मृतो भवेद्धि तन्मे निबोधेह तवानुरूपम्।। | 8-72-80a 8-72-80b 8-72-80c 8-72-80d |
यदा मानं लभते माननार्ह-- स्तदा स वै जीवति जीवलोके। यदाऽवमानं लभते महान्तं तदा जीवन्मृत इत्युच्यते सः।। | 8-72-81a 8-72-81b 8-72-81c 8-72-81d |
सम्मानितः पार्थिवोऽयं सदैव त्वया च भीमेन तथा यमाभ्याम्। वृद्धैश्च लोके पुरुषैश्च शूरै-- स्तस्यापमानं कलया प्रयुङ्क्ष्व।। | 8-72-82a 8-72-82b 8-72-82c 8-72-82d |
त्वमित्यत्रभवन्तं हि ब्रूहि पार्थ युधिष्ठिरम्। त्वमित्युक्तो हि निहतो गुरुर्भवति भारत।। | 8-72-83a 8-72-83b |
एवमाचर कौन्तेय धर्मराजे युधिष्ठिरे। अधर्मयुक्तं संयोगं कुरुष्वैनं कुरूद्वह।। | 8-72-84a 8-72-84b |
अथर्वाङ्गिरसी ह्येषा श्रुतीनामुत्तमा श्रुतिः। अविचार्यैव कार्यैषा श्रेयस्कामैर्नरैः सदा।। | 8-72-85a 8-72-85b |
अवधेन वधः प्रोक्तो यद्गुरुस्त्वमिति प्रभुः। तद्ब्रूहि त्वं यन्मयोक्तं धर्मराजस्य धर्मवित्।। | 8-72-86a 8-72-86b |
यदा ह्यं पाण्डव धर्मराज-- सत्वत्तोऽयुक्तं लप्स्यते चैव साधु। ततोऽस्य पादावभिवाद्य पश्चा-- च्छ्रेयो ब्रूयात्सान्त्वयुक्तं हितं च।। | 8-72-87a 8-72-87b 8-72-87c 8-72-87d |
भ्राता प्राज्ञस्तव कोपं न जातु कुर्याद्राजा धर्ममार्गानुसारी। मुक्तोऽनृताद्वातृवधाच्च पापा-- द्धृष्टः कर्णं त्वं जहि पार्थ पश्चात्।। | 8-72-88a 8-72-88b 8-72-88c 8-72-88d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे द्विसप्ततितमोऽध्यायः।। 72 ।। |
8-72-22 सुखं अनधीत्येत्यर्थः। श्रुतेन शास्त्रेण।। 8-72-26 अशत्रोः अशातनीयस्य अवध्यस्य।। 8-72-47 तपस्वीनः तपस्विनामिनः श्रेष्ठः।। 8-72-52 यथा चाल्पश्रुतो मूढो धर्माणामविभागवित्। वृद्धानपृष्ट्वा सन्देहं महच्छ्वभ्रमिहार्हति। इति ङ. पाठः।। 8-72-57 तत्र ते लक्षणोद्वेशात्कश्चिदत्र भविष्यति इति क.ड.पाठः। दुष्करं परमं ज्ञानं तर्केणानुव्यवस्याति इति ड.पाठः। दुष्करं प्रतिसङ्ख्यानं कार्त्स्न्येनास्य व्यवस्यति इति व.घ.ड.पाठः। श्रुतेर्धर्म इति ह्येके इति ड.पाठः।। 8-72-62 प्राणात्यये विधाहे वा सर्वज्ञातिवधात्यये। नर्मण्यभिप्रवृत्ते वा न च प्रोक्तं मृषा भवेत् इति झ.ङ.पाठः।। 8-72-63 अधर्मं नात्र पश्यन्ति धर्मतत्वार्थदर्शिनः इति ङ.पाठः।। 8-72-64 यः स्तेनैः सह सम्बन्धान्मुच्यते शपथैरपि। श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं तत्सत्यमविचारितम्। इति ङ. पाठः।। 8-72-65 शक्ये सति कथञ्चन इति ङ. पाठः।। 8-72-70 अनुग्रहं अवधेन प्रतिज्ञारक्षणम्।। 8-72-74 तं हन्यामिति स्थाता न न स्थास्ये। एनसा मुक्तोपि कृतप्रायश्चित्तोऽपि न स्थास्ये इत्यर्थः। किं कृत्वा राज्ञो वधं ध्यात्वा।। 8-72-78 समक्षं आवयोरिति शेषः।। 8-72-79 कर्णे पणीकृते। द्युतं युद्धरूपम्।। 8-72-83 अत्र भवन्तं मान्यं त्वमिति ब्रूहि।। 8-72-84 एवं पूज्यावमानरूपं संयोगं आत्मनानुष्ठितं कुरुष्व।। 8-72-86 यत् गुरुस्त्वमिति प्रोक्तस्तत् अवधेन शंस्त्रपातनमन्तरेणैव वधः वधकरं भवतीत्यर्थः।। 8-72-72 द्विसप्ततितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-071 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-073 |