महाभारतम्-08-कर्णपर्व-095
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रणे कर्णस्यार्जुनसाम्यमसहमानेन भीमेन सकोपं पार्थप्रोत्साहनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-95-1x |
तौ शङ्खभेरीनिनदे समृद्धे समीयतुः श्वेतहयौ नराग्र्यौ। वैकर्तनः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च दुर्मन्त्रिते ते ससुतस्य राजन्।। | 8-95-1a 8-95-1b 8-95-1c 8-95-1d |
`आशीविषावग्निमिवोत्सृजन्तौ तथा मुखाभ्यामभिनिः श्वसन्तौ। यशस्विनौ जज्वलतुर्मृधे तदा घृतावसिक्ताविव हव्यवाहौ'।। | 8-95-2a 8-95-2b 8-95-2c 8-95-2d |
यथा गजौ हैमवतौ प्रभिन्नौ प्रवृद्धदन्ताविव वासितार्थे। तथा समाजग्मतुरुग्रवीर्यौ धनञ्जयश्चाधिरथिश्च वीरौ।। | 8-95-3a 8-95-3b 8-95-3c 8-95-3d |
बलाहकेनेव महाबलाहको यदृच्छया वा गिरिणा यथा गिरिः। तथा धनुर्ज्यातलनेमिनिःस्वनौ समीयतुस्ताविषुवर्षवर्षिणौ।। | 8-95-4a 8-95-4b 8-95-4c 8-95-4d |
शरास्त्रशक्त्यृष्टिगदासिसर्पौ रोषानिलोद्वूतमहोर्मिमालौ। यथाऽचलौ द्वौ चलतस्तथा तौ यथाऽर्णवौ चाशु चतुर्युगान्ते'।। | 8-95-5a 8-95-5b 8-95-5c 8-95-5d |
प्रवृद्धशृङ्गद्रुमवीरुदोषधी प्रवृद्वनानाविधनिर्झरौघौ। यथाऽचलौ वा चलितौ महाजलै-- स्तथा महास्त्रैरितरेतरं हतः।। | 8-95-6a 8-95-6b 8-95-6c 8-95-6d |
स सन्निपातो रथयोर्महानभू-- त्सुरेशवैरोचनयोर्यथा पुरा। शरैर्विनुन्नाश्वनियन्तृदेहयोः सुदुःसहास्त्रैः परिभिन्नदेहयोः।। | 8-95-7a 8-95-7b 8-95-7c 8-95-7d |
प्रभूतपद्मोत्पलमत्स्यकच्छपौ महाहदौ पक्षिगणानुनादितौ। सुसन्निकृष्टावनिलोद्धतौ यथा तथा रथौ तौ ध्वजिनौ समीयतुः।। | 8-95-8a 8-95-8b 8-95-8c 8-95-8d |
उभौ महेन्द्रस्य समानविक्रमा-- वुभौ महेन्द्रप्रतिमौ महारथौ। महेन्द्रवज्रप्रतिमैश्च सायकै-- र्महेन्द्रवृत्राविव सम्प्रजघ्नतुः।। | 8-95-9a 8-95-9b 8-95-9c 8-95-9d |
सनागपत्त्यश्वरथे उभे बले विचित्रवर्माभरणाम्बरायुधे। चकम्पतुश्चोन्नदतुश्च विस्मया-- द्धरा वियच्चार्जुनकर्णसङ्गमे।। | 8-95-10a 8-95-10b 8-95-10c 8-95-10d |
भुजाः सवस्त्राङ्गुलयः समुच्छ्रिताः ससिंहनादैर्हृषितैर्दिदृक्षुभिः। यदाऽर्जुनं मत्त इव द्विपो द्विपं समभ्ययादाधिरथिर्जिघांसया।। | 8-95-11a 8-95-11b 8-95-11c 8-95-11d |
उदक्रोशन्सोमकास्तत्र पार्थं त्वरस्व याह्यर्जुन भिन्धि कर्णम्। छिन्ध्यस्य मूर्धानमलं चिरेण श्रद्धां च राज्याद्वृतराष्ट्रसूनोः।। | 8-95-12a 8-95-12b 8-95-12c 8-95-12d |
तथाऽस्माकं बहवस्तत्र योधाः कर्णं तथा याहि याहीत्यवोचन्। जह्यर्जुनं कर्ण ततः सुदीनाः पुनर्वनं यान्त्वचिराय पार्थाः।। | 8-95-13a 8-95-13b 8-95-13c 8-95-13d |
कर्णोऽथ पूर्वं दशभिः पृषत्कै-- र्गाण्डीवधन्वानमविध्यदाशु। जघान तं चापि ततः किरीटी शरैस्तदाष्टादशभिः सुमुक्तैः।। | 8-95-14a 8-95-14b 8-95-14c 8-95-14d |
पुनश्च कर्णस्त्वरितोऽपि पार्थं रथेषुभिस्तं दशभिर्जघान। तं चापि पार्थो दशभिः शिताग्रैः कक्ष्यान्तरे तीक्ष्णमुखैरविध्यत्।। | 8-95-15a 8-95-15b 8-95-15c 8-95-15d |
कर्णस्ततो भारत साम्पराये घोरेऽतिवेलं रणसंविमर्दी। जघान पार्थं नवभिः शिताग्रैः कक्ष्यान्ते नागमिव प्रभिन्नम्।। | 8-95-16a 8-95-16b 8-95-16c 8-95-16d |
ततोऽपराभ्यां युधि सूतपुत्रो द्वाभ्यां क्षुराभ्यां हरिमाशुकारी। समाजघान त्वरया महात्मा यथा सुरेन्द्रं नमुचिः प्रसह्य।। | 8-95-17a 8-95-17b 8-95-17c 8-95-17d |
तं पाण्डवः पञ्चभिरायसाग्रै-- राकर्णपूर्णैर्निजघान कर्णम्। ते शोणितं तस्य पपुस्तदानीं कालस्य दूता इव पार्थबाणाः।। | 8-95-18a 8-95-18b 8-95-18c 8-95-18d |
कर्णोऽपि पार्थं सह वासुदेवं समाचिनोद्भारत वत्सदन्तैः। परस्परं तौ विशिखैः प्रमुक्तै-- स्ततक्षतुः सूतपुत्रोऽर्जुनश्च।। | 8-95-19a 8-95-19b 8-95-19c 8-95-19d |
परस्परं छिद्रदिदृक्षया च सुभीममभ्याययतुः प्ररुष्टौ।। | 8-95-20a 8-95-20b |
ततोऽस्त्रमाग्नेयममित्रतापनं मुमोच कर्णाय सुरेश्वरात्मजः। धनञ्जयात्संयुगमूर्ध्नि निःसृतं तदा प्रजज्वाल तदस्त्रमुत्तमम्।। | 8-95-21a 8-95-21b 8-95-21c 8-95-21d |
समीक्ष्य कर्णो ज्वलनास्त्रमुद्यतं स वारुणं तत्प्रशमार्थमाहवे। समुत्सृजत्सूतपुत्रः प्रतापवान् स तेन वह्निं शमयाञ्चकार।। | 8-95-22a 8-95-22b 8-95-22c 8-95-22d |
वलाहकास्त्रेण दिशस्तरस्वी चकार सर्वास्तिमिरेण संवृताः। अपावहन्मेघगणांस्ततस्तान् समीरणास्त्रेण समीरितेन।। | 8-95-23a 8-95-23b 8-95-23c 8-95-23d |
ततः सोऽस्त्रं दयितं देवराज्ञः प्रादुश्चक्रे वज्रममित्रतापनः। गाण्डीवज्या विमृशंश्चातिमन्यु-- र्धनञ्जयः शत्रुसङ्घप्रमाथी।। | 8-95-24a 8-95-24b 8-95-24c 8-95-24d |
नाराचनालीकवराहकर्णा गाण्डीवतः प्रादुरासन्सुतीक्ष्णाः। सहस्रशो वज्रसमानवेगा-- स्ते सर्वतः पर्यधावन्त घोराः।। | 8-95-25a 8-95-25b 8-95-25c 8-95-25d |
पार्थेषवः कर्णरथं विलग्ना अधोमुखाः पक्षिगणा दिनान्ते। निशानिकेतार्थमिवाशु वृक्षं जग्राह तान्सूतपुत्रः पृषत्कैः।। | 8-95-26a 8-95-26b 8-95-26c 8-95-26d |
क्षिप्तांस्तथा पाण्डवबाणसङ्घा-- नमृष्यमाणस्य धनञ्जयस्य। रणाजिरे त्वन्तकतुल्यकर्मा वैकर्तनो रोषपरीतचेताः।। | 8-95-27a 8-95-27b 8-95-27c 8-95-27d |
ज्योतिष्प्रभां यद्वदुपागतः स-- न्दिवाकरो नाशयते क्षणेन। पार्थस्य तान्बाणगणान्समग्रा-- न्व्यनाशयद्युध्यत एव कर्णः।। | 8-95-28a 8-95-28b 8-95-28c 8-95-28d |
रोषात्प्रदीप्तः सुमहाविमर्दे भीमस्ततोऽक्रुध्यददीनसत्वः। पाणिं स्वपाणौ स विनिष्पिष्य रोषा-- दमर्षितो वाक्यमुवाच पार्थम्।। | 8-95-29a 8-95-29b 8-95-29c 8-95-29d |
त्वां सूतपुत्रो नु कथं किरीटि-- न्रथेषुभिर्हन्ति शिताग्रधारैः। धृत्या हि भूतानि ययाऽजयस्त्वं ग्रासं ददत्खाण्डवे पावकाय।। | 8-95-30a 8-95-30b 8-95-30c 8-95-30d |
धृत्या तया सूतपुत्रं जहि त्व-- महं वैनं गदया पोथयिष्ये। समेत्य पार्थं सुनृशंसवादी जीवन्नायं यास्यति कालपक्वः।। | 8-95-31a 8-95-31b 8-95-31c 8-95-31d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे म?ञ्जनवतितमोऽध्यायः।। 95 ।। |
8-95-6 हतः जघ्नतुरित्यर्थः।। 8-95-7 सुदुःसहान्यैः परिशोणितोदकैः इति क.ट.पाठः।। 8-95-31 मा जीवनं यास्यति सूतपुत्र इति क.पाठः।। 8-95-95 पञ्चनवतितमोऽध्यायः।।
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