महाभारतम्-08-कर्णपर्व-055
← कर्णपर्व-054 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-055 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-056 → |
अर्जुनेन संशप्तकानां वधः।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 8-55-1x |
प्रत्येत्याथ पुनर्जिष्णुर्जित्वा संशप्तकान्बभौ। वक्रानुवक्रगमनादङ्गारक इव ग्रहः।। | 8-55-1a 8-55-1b |
पार्थबाणहता राजन्नराश्वरथकुञ्जराः। विचेलुर्बभ्रमुर्नेशुः पेतुर्मम्लुश्च भारत।। | 8-55-2a 8-55-2b |
धुर्यान्धुर्येतरान्सूतान्ध्वजांश्चपासिसायकान्। पाणीन्पाणिगताञ्शस्त्रान्बाहूनपि शिरांसि च।। | 8-55-3a 8-55-3b |
भल्लैः क्षुरैरर्धचन्द्रैर्वत्सदन्तैश्च पाण्डवः। चिच्छेदामित्रवीराणां समरे प्रतियुध्यताम्।। | 8-55-4a 8-55-4b |
तं प्रवीरास्त्वदीयानां नर्दमानाऽभिदुद्रुवुः। वासितार्थे युयुत्सन्तो वृषभा वृषभं यथा। निपतन्त्यर्जुनं शूराः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 8-55-5a 8-55-5b 8-55-5c |
तेषां तस्य च तद्युद्धमभवद्रोमहर्षणम्। त्रैलोक्यविजये यादृग्दैत्यानां सह वज्रिणा।। | 8-55-6a 8-55-6b |
तमविध्यत्त्रिभिर्बाणैर्दन्दशूकैरिवाहिभिः। उग्रायुधस्य तस्याशु शिरः कायादपाहरत्।। | 8-55-7a 8-55-7b |
तेऽर्जुनं सर्वतः क्रुद्धा नानाशस्त्रैरवीवृषन्। मरुद्भिः प्रेरिता मेघा हिमवन्तमिवोष्णगे।। | 8-55-8a 8-55-8b |
अस्त्रैरस्त्राणिं संवार्य द्विषतां सर्वतोऽर्जुनः। सम्यगस्तैः शरैः सर्वानहितानहनद्बहून्।। | 8-55-9a 8-55-9b |
छिन्नत्रिवेणुजङ्घेषान्हताश्वान्हतसारथीन्। विस्रस्तहस्ततूणीरान्विचक्रथकेतनान्।। | 8-55-10a 8-55-10b |
सञ्छिन्नरश्मियोक्त्राक्षान्व्यनुकर्षयुगान्रथान्। विध्वस्तसर्वसन्नाहान्बाणैश्चक्रेऽर्जुनस्त्वरन्।। | 8-55-11a 8-55-11b |
ते रथास्तत्र विध्वस्ताः परार्द्व्या भान्त्यनेकशः। धनिनामिव वेश्मानि हतान्यग्न्यनिलाम्बुभिः।। | 8-55-12a 8-55-12b |
द्विपाः सम्भिन्नमर्माणो वज्राशनिसमैः शरैः। पेतुर्गिर्यग्रवेश्मानि वज्रवाताग्निभिर्यथा।। | 8-55-13a 8-55-13b |
अनेकैश्च शिलाधौतैर्वज्रानलविषोपमैः। शरैर्निजघ्निवान्पार्थो महेन्द्र इव दानवान्।। | 8-55-14a 8-55-14b |
सारोहास्तुरगाः पेतुर्बहवोऽर्जुनताडिताः। निर्जिह्वान्त्राः क्षितौ क्षीणा रुधिरार्द्राः सुदुर्दृशः।। | 8-55-15a 8-55-15b |
नराश्वनागा नाराचैः संस्यूताः सव्यसाचिना। बभ्रमुश्चस्खलुः पेतुर्नेदुर्मम्लुश्च मारिष।। | 8-55-16a 8-55-16b |
महार्हवर्माभरणा नानारूपाम्बरायुधाः। सरथाश्वद्विपा वीरा हताः पार्थेन शेरते।। | 8-55-17a 8-55-17b |
निर्भयाः पुण्यकर्माणो विशिष्टाभिजनश्रुताः। गताः शरीरैर्वसुधामूर्जितैः कर्मभिर्दिवम्।। | 8-55-18a 8-55-18b |
अथार्जुनरथं वीरास्त्वदीयाः समभिद्रवन्। नानाजनपदाध्यक्षाः सगणा जातमन्यवः।। | 8-55-19a 8-55-19b |
उह्यमना रथाश्वेभैः पत्तयश्च जिघांसवः। समभ्यधावन्नस्यन्तो विविधं क्षिप्रमायुधम्।। | 8-55-20a 8-55-20b |
तदायुधमहावर्षं क्षिप्तं योधमहाम्बुदैः। व्यधमन्निशितैर्बाणैः क्षिप्रमर्जुनमारुतः।। | 8-55-21a 8-55-21b |
साश्वपत्तिद्विपरथं महाशस्त्रौघसम्प्लवम्।। सहसा सन्तितीर्षन्तं पार्थं शस्त्रास्त्रसेतुना।। | 8-55-22a 8-55-22b |
अथाब्रवीद्वासुदेवः पार्थ किं क्रीडसेऽनघ। संशप्तकान्प्रमथ्यैनांस्ततः कर्णवधे त्वर।। | 8-55-23a 8-55-23b |
तथेत्युक्त्वाऽर्जुनः कृष्णं शिष्टान्संशप्तकांस्तदा। क्षपयिष्यंस्तदा बाणैर्दैत्यानिन्द्र इवावधीत्।। | 8-55-24a 8-55-24b |
आददत्सन्दधन्नेषृन्दृष्टः कैश्चिद्रणेऽर्जुनः। विमुञ्चन्वा शराञ्शीघ्रं दृश्यन्ते वै नरा हताः।। | 8-55-25a 8-55-25b |
आश्चर्यमिति गोविन्दो ब्रुवन्नश्वानचोदयत्। हंसांशुगौरास्ते सेनां हंसाः सर इवाविशन्।। | 8-55-26a 8-55-26b |
ततः सङ्ग्रामभूमिं तां वर्तमाने जनक्षये। अवेक्षमाणो गोविन्दः सव्यसाचिनमब्रवीत्।। | 8-55-27a 8-55-27b |
एष पार्थ महारौद्रो वर्तते भरतक्षयः। पृथिव्यां पार्थिवानां वै दुर्योधनकृते महान्।। | 8-55-28a 8-55-28b |
पश्य भारत चापानि रुक्मपृष्ठानि धन्विनाम्। हतानामपविद्धानि कलापानिषुधींस्तथा।। | 8-55-29a 8-55-29b |
जातरूपमयैः पुङ्खैः शरांश्च नतपर्वणः। तैलधौतांश्च नाराचान्निर्मुक्तानिव पन्नगान्।। | 8-55-30a 8-55-30b |
आकीर्णांस्तोमरान्वाहांश्छत्रान्हेमविभूषितान्। चर्माणि चापविद्धानि रुक्मपृष्ठानि भारत।। | 8-55-31a 8-55-31b |
सुवर्णविकृतान्प्रासाञ्शक्तीः कनकभूषिताः। जाम्बूनदमयैः पट्टैर्बद्धाश्च विपुला गदाः।। | 8-55-32a 8-55-32b |
जातरूपमयीश्चर्ष्टीः पट्टसान्हेमभूषितान्। दण्डैः कनकचित्रैश्च विप्रविद्धान्परश्वथान्।। | 8-55-33a 8-55-33b |
परिघान्भिण्डिपालांश्च भुशुण्डीः कणपानपि। अयस्कुन्तांश्च पतितान्मुसलानि गुरूणि च।। | 8-55-34a 8-55-34b |
नानाविधानि शस्त्राणि प्रगृह्य जयगृद्धिनः। जीवन्त इव दृश्यन्ते गतसत्वास्तरस्विनः।। | 8-55-35a 8-55-35b |
गदाविमथितैर्गात्रैर्मुसलैर्भिन्नमस्तकान्। गजवाजिरथैः क्षुण्णान्पश्य योधान्सहस्रशः।। | 8-55-36a 8-55-36b |
मनुष्यगजवाजीनां शरशक्त्यृष्टितोमरैः। निस्त्रिंशैः पट्टसैः प्रासैर्नखरैर्लगुडैरपि।। | 8-55-37a 8-55-37b |
शरीरैर्बहुघा छिन्नैः शोणितौघपरिप्लुतैः। गतासुभिरमित्रघ्न संवृता रणभूमयः।। | 8-55-38a 8-55-38b |
बाहुभिश्चन्दनादिग्धैः साङ्गदैः शुभभूषणैः। सतलत्रैः सकेयूरैर्भाति भारत मेदिनी।। | 8-55-39a 8-55-39b |
साङ्गुलित्रैर्भुजाग्रैश्च विप्रविद्वैरलङ्कृतैः। हस्तिहस्तोपमैश्छिन्नैरूरुभिश्च तरस्विनाम्।। | 8-55-40a 8-55-40b |
बद्धचूडामणिवरैः शिरोभिश्च सकुण्डलैः। `निकृत्तैर्वृषभाक्षाणां शरीरैश्चापि सङ्घशः।। | 8-55-41a 8-55-41b |
गजवाजिमनुष्याणां शरशक्त्यृष्टितोमरैः। कबन्धैः शोणितादिग्धैश्छिन्नगात्रशिरोधरैः। भूर्भाति भरतश्रेष्ठ शान्ताग्निभिरिवाध्वरे'।। | 8-55-42a 8-55-42b 8-55-42c |
रथांश्च बहुधा भग्नान्हेमकिङ्किणिनः शुभान्। अश्वांश्च बुहधा पश्य शोणितेन परिप्लुतान्।। | 8-55-43a 8-55-43b |
अनुकर्षानुपासङ्गान्पताका विविधान्ध्वजान्। योधानां च महाशङ्खान्पाण्डुरांश्च प्रकीर्णकान्। निरस्तजिह्वान्मातङ्गाञ्शयानान्पर्वतोपमान्।। | 8-55-44a 8-55-44b 8-55-44c |
वैजयन्तीर्विचित्राश्च हतांश्च गजयोधिनः। वारणानां परिस्तोमान्संयुक्तानेककम्बलान्।। | 8-55-45a 8-55-45b |
विपाटितविचित्राश्च रूपचित्राः कुथास्तथा। भिन्नाश्च बहुधा घण्टाः पतद्भिश्चूर्णिता गजैः।। | 8-55-46a 8-55-46b |
वैदूर्यमणिदण्डांश्च पतितांश्चाङ्कुशान्भुवि। अश्वानां च युगापीडान्रत्नचित्रानुरश्छदान्।। | 8-55-47a 8-55-47b |
विद्धाः सादिध्वजाग्रेषु सुवर्णविकृताः कुथाः। विचित्रान्मणिचित्रांश्च जातरूपपरिष्कृतान्।। | 8-55-48a 8-55-48b |
अश्वास्तरपरिस्तोमान्राङ्कवान्पतितान्भुवि। चूडामणीन्नरेन्द्राणां विचित्राः काञ्चनस्रजः। छत्राणि चापविद्धानि चामरव्यजनानि च।। | 8-55-49a 8-55-49b 8-55-49c |
चन्द्रनक्षत्रभासैश्च वदनैश्चारुकुण्डलैः। क्लृप्तश्मश्रुभिरत्यर्थं वीराणां समलङ्कृतैः। वदनैः पश्य सञ्छन्नां महीं शोणितकर्दमाम्।। | 8-55-50a 8-55-50b 8-55-50c |
सजीवांश्च नरान्पश्य कूजमानान्समन्ततः। उपास्यमानांश्च बहून्न्यस्तशस्त्रैश्च भूपते। ज्ञातिभिश्च जलक्लिन्नान्रोदमानैर्मुहुर्मुहुः।। | 8-55-51a 8-55-51b 8-55-51c |
उत्क्रान्तानपरान्योधाञ्छादयित्वा तरस्विनः। पुनर्युद्धाय गच्छन्ति जये लुब्धाः प्रमन्यवः।। | 8-55-52a 8-55-52b |
अपरे तत्रतत्रैव परिधावन्ति मानवाः। सन्निवृत्ताश्च ते शूरा दृष्टा चैतान्विचेतसः।। | 8-55-53a 8-55-53b |
जलं त्यक्त्वा प्रधावन्ति क्रोशमानाः परस्परम्। जलं पीत्वा मृतान्पश्य पिबतोऽन्यांश्च भारत।। | 8-55-54a 8-55-54b |
परिष्वज्य प्रियानन्ये बान्धवान्बन्धुवत्सलाः। विसंज्ञान्समरे योधांस्तत्रतत्र महारणे।। | 8-55-55a 8-55-55b |
पश्यापरान्नरश्रेष्ठ सन्दष्टोष्ठपुटान्पुनः। भृकुटीकुटिलैर्वक्त्रैः प्रेक्षमाणान्महारणम्।। | 8-55-56a 8-55-56b |
एतत्तवैवानुरूपं कर्मार्जुन महाहवे। दिवि वा देवराजस्य त्वया यत्कृतमाहवे।। | 8-55-57a 8-55-57b |
सञ्जय उवाच। | 8-55-58x |
एवं तां दर्शयन्कृष्णो युद्धभूमिं किरीटिने। गच्छन्नेवाशृणोच्छब्दं दुर्योधनबले महत्।। | 8-55-58a 8-55-58b |
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषं भेरीपणवनिःस्वनम्। रथाश्वनरनागानां पादशब्दांश्च दारुणान्।। | 8-55-59a 8-55-59b |
प्रविश्य तद्बलं कृष्णस्तुरगैर्वातवेगितैः। पाण्ड्येनाभ्यर्दितं सैन्यं त्वदीयं वीक्ष्य विस्मितः।। | 8-55-60a 8-55-60b |
स हि नानाविधैर्बाणैरिष्वस्त्रप्रवरो युधि। न्यहनद्द्विषतां पूगान्गतासूनन्तको यथा।। | 8-55-61a 8-55-61b |
गजवाजिमनुष्याणां शरीराणि शितैः शरैः। भित्त्वा प्रहरतां श्रेष्ठो विदेहासूनपातयत्।। | 8-55-62a 8-55-62b |
शत्रुप्रवीरैरस्त्राणि नानाशस्त्राणि सायकैः। छित्त्वा तानवधीच्छत्रून्पाण्ड्यः शक्र इवासुरान्।। | 8-55-63a 8-55-63b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः।। 55 ।। |
8-55-3 धुर्यान् श्रेष्ठान्। धुर्यगतानिति पाठे वाहान्।। 8-55-5 वासितार्थे स्त्रीनिमित्तम्।। 8-55-7 दन्दशूकैः दंशनशीलैः। अपाहरदर्जुन इति शेषः।। 8-55-8 उष्णगे ग्रीष्मे गते सति प्रावृषीत्यर्थः। उष्णे ग्रीध्मो गतोऽतीतो यत्र स उष्णगः कालविशेष इति विग्रहः।। 8-55-9 अस्तैः क्षिप्तैः।। 8-55-11 अनुकर्षः रथाधस्थं दारु।। 8-55-15 निर्जिह्वान्त्राः निर्गताः जिह्वाः अन्त्राणि च येषां ते।। 8-55-29 कलापान् अलङ्कारान्।। 8-55-31 आकीर्णान् सर्वतोविक्षिप्तान्।। 8-55-37 वाजीनां शरीरैरिति सम्बन्धः। दैर्ध्यमार्षम्।। 8-55-55 पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः।। 55 ।।
कर्णपर्व-054 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-056 |