महाभारतम्-08-कर्णपर्व-033
← कर्णपर्व-032 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-033 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-034 → |
कर्णगर्वोक्तिमसहमानेन शल्येन तद्ग्रर्हणम्।। 1 ।।
|
शल्य उवाच। | 8-33-1x |
मा सूतपुत्र मन्येत(थाः) सौवर्णं हस्तिषङ्गवम्। प्रयच्छसि मुधैव त्वं द्रक्ष्यस्यद्य धनञ्जयम्।। | 8-33-1a 8-33-1b |
मा सूतपुत्र दानेन सौवर्णं हस्तिषङ्गवम्। प्रयच्छ पुरुषायाद्य द्रक्ष्यसि त्वं धनञ्जयम्।। | 8-33-2a 8-33-2b |
बलेन मत्तस्त्यजसि वसु वैश्रवणो यथा। अयत्नेनैव राधेय द्रष्टास्यद्य धनञ्जयम्।। | 8-33-3a 8-33-3b |
पुरा सृजसि यच्चापि वित्तं बहु च मूढवत्। अपात्रदानाद्ये दोषास्तान्मोहान्नावबुध्यसे।। | 8-33-4a 8-33-4b |
यत्प्रवेदयसे वित्तं बहु तेन खलु त्वया। शक्यं बहुविधैर्यज्ञैर्यष्टुं सूत यजस्व तैः।। | 8-33-5a 8-33-5b |
यच्च प्रार्थयसे हन्तुं कृष्णौ मोहाद्वृथैव तत्। न हि शुश्रुम सम्मर्दे क्रोष्ट्रा सिंहौ निपातितौ।। | 8-33-6a 8-33-6b |
अप्रार्थितं प्रार्थयसे सुहृदो न हि सन्ति ते। ये त्वां निवारयन्त्याशु प्रपतन्तं हुताशने।। | 8-33-7a 8-33-7b |
कार्याकार्यं न जानीषे कालपक्कोऽस्यसंशयम्। बह्वबद्धमकर्णीयं को हि ब्रूयाज्जिजीविषुः।। | 8-33-8a 8-33-8b |
समुद्रतरणं दोर्भ्यां कण्ठे बद्ध्वा यथा शिलाम्। गिर्यग्राद्वा निपतनं तादृक्त्व चिकीर्षितम्।। | 8-33-9a 8-33-9b |
सहितः सर्वयोधैस्त्वं व्यूढानीकैः सुरक्षितः। धनञ्जयेन युध्यस्व श्रेयश्चेत्प्राप्तुमिच्छसि।। | 8-33-10a 8-33-10b |
हितार्थं धार्तराष्ट्रस्य ब्रवीमि त्वां न हिंसया। श्रद्धस्वेदं मया प्रोक्तं यदि तेऽस्ति जिजीविषा।। | 8-33-11a 8-33-11b |
कर्ण उवाच। | 8-33-12x |
स्वबाहुवीर्यमाश्रित्य प्रार्थयाम्यर्जुनं रणे। त्वं तु मित्रमुखः शत्रुर्मां भीषयितुमिच्छसि।। | 8-33-12a 8-33-12b |
न मामस्मादभिप्रायात्कश्चिदद्य निवर्तयेत्। अपीन्द्रो वज्रमुद्यम्य किमु मर्त्यः कथञ्चन।। | 8-33-13a 8-33-13b |
सञ्जय उवाच। | 8-33-14x |
इति कर्णस्य वाक्यान्ते शल्यः प्राहोत्तरं वचः। चुकोपयिषुरत्यर्थं कर्णं मद्रेश्वरः पुनः।। | 8-33-14a 8-33-14b |
यदा वै त्वां फल्गुनबाहुवेगा-- ज्ज्याचोदिता वेगवन्तोऽग्निकल्पाः। अन्वेतारः कङ्कपत्राः शिताग्रा-- स्त्यक्ष्यत्येषा स्वां तदा कर्ण बुद्धिः।। | 8-33-15a 8-33-15b 8-33-15c 8-33-15d |
यदा दिर्व्य धनुरादाय पार्थः प्रतापयन्पृतनां सव्यसाची। त्वां मर्दयिष्यत्यसुखैः पृषत्कै-- स्तदापृच्छां त्यक्ष्यसे पाण्डवस्य।। | 8-33-16a 8-33-16b 8-33-16c 8-33-16d |
बालश्चन्द्रं मातुरङ्के शयानो यथा कश्चित्प्रार्थयतेऽपहर्तुम्। तद्वन्मोहाद्दयोतामानं रथस्थं जेतुं पार्थं काङ्क्षसे सूतपुत्र।। | 8-33-17a 8-33-17b 8-33-17c 8-33-17d |
हरादस्त्रं तीक्ष्णधारं यथाऽद्य सर्वाणि गात्राणि निकर्षसि त्वम्। सुतीक्ष्णशस्त्रोपमकर्मणेह युयुत्ससे फल्गुनेनाद्य कर्ण।। | 8-33-18a 8-33-18b 8-33-18c 8-33-18d |
हन्यादसिं तीक्ष्णधारं यथाऽतः सुतेजनं निहितं वै पृथिव्याम्। तथा खनस्यद्य शितान्पृषत्का-- न्यथार्थयस्यर्जुनेनेह युद्धम्।। | 8-33-19a 8-33-19b 8-33-19c 8-33-19d |
त्रिशूलमाश्लिष्य सुतीक्ष्णधारं सर्वाणि गात्राणि विघर्षसि त्वम्। सुतीक्ष्णधारोपमकर्मणा त्वं युयुत्ससे योऽर्जुनेनाद्य कर्ण।। | 8-33-20a 8-33-20b 8-33-20c 8-33-20d |
क्रुद्धं सिंहं केसरिणं बृहन्तं बालो मूढः क्षुद्रमृगस्तरस्वी। समाह्वयेद्वृष्टमुपेत्य योद्धुं तथा त्वमद्याह्वयसे हि पार्थम्।। | 8-33-21a 8-33-21b 8-33-21c 8-33-21d |
मा सूतपुत्राह्वय राजपुत्रं महावीर्यं केसरिणं यथैव। वने शृगालः पिशितेन तृप्तः पार्थं समासाद्य विनङ्क्ष्यसि त्वम्।। | 8-33-22a 8-33-22b 8-33-22c 8-33-22d |
ईषादन्तं महानागं प्रभिन्नकरटामुखम्। शशको हयसे युद्वे कर्ण पार्थं धनञ्जयम्।। | 8-33-23a 8-33-23b |
विलस्थं कृष्णसर्पं त्वं जाल्यात्काष्ठेन विध्यसि। महाविषं पूर्णकोपं यत्पार्थं योद्वुमिच्छसि।। | 8-33-24a 8-33-24b |
सिंहं केसरिणं क्रुद्धमभिक्रम्याभिनर्दसे। शृगाल इव मूढस्त्वं नृसिंहं कर्ण पाण्डवम्।। | 8-33-25a 8-33-25b |
सुपर्णं पतगश्रेष्ठं वैनतेयं तरस्विनम्। स्वगेवाह्वयसे पार्थं तथा कर्णं धनञ्जयम्।। | 8-33-26a 8-33-26b |
सर्वाम्भसां निधिं भीमं मूर्तिमन्तं झषाकुलम्। चन्द्रोदये विवर्धन्तमप्लुवस्त्वं तितीर्षसि।। | 8-33-27a 8-33-27b |
ऋषभं दुन्दुभिग्रीवं तीक्ष्णशृङ्गं प्रहारिणम्। वत्स आह्वयसे युद्वे कर्ण पार्थं धनञ्जयम्।। | 8-33-28a 8-33-28b |
महामेघं महाघोषं दर्दुरः प्रतिनर्दसि। बाणतोयप्रदं काले नरपर्जन्यमर्जुनम्।। | 8-33-29a 8-33-29b |
यथा च श्वा गृहस्थस्तु व्याघ्रं वनगतं भषेत्। तथा त्वं भषसे कर्ण नरव्याघ्रं धनञ्जयम्।। | 8-33-30a 8-33-30b |
शृगालो हि वने कर्ण शशैः परिवृतो वसन्। मन्यते सिंहमात्मानं यावत्सिंहं न पश्यति।। | 8-33-31a 8-33-31b |
तथा त्वमपि राधेय सिंहमात्मानमिच्छसि। अपश्यञ्शत्रुदमनं नरसिंहं रणेऽर्जुनम्।। | 8-33-32a 8-33-32b |
व्याघ्रं त्वं मन्यसेऽऽत्मानं यावत्कृष्णौ न पश्यसि। समास्थितावेकरथे सूर्याचन्द्रमसाविव।। | 8-33-33a 8-33-33b |
यावद्ग्राण्डीवघोषं त्वं न शृणोषि महाहवे। तावदेव त्वया कर्ण शक्यं वक्तुं यथेच्छसि।। | 8-33-34a 8-33-34b |
रथशङ्खधनुःशब्दैर्नादयन्तं दिशो दश। नर्दन्तमिव शार्दूलं दृष्ट्वा क्रोष्टा भविष्यसि।। | 8-33-35a 8-33-35b |
नित्यमेव शृगालस्त्वं नित्यं सिंहो धनञ्जयः। वीरप्रद्वेषणान्मूढ तस्मात्क्रोष्टेव लक्ष्यसे।। | 8-33-36a 8-33-36b |
यथाऽऽखुः स्याद्विडालश्च श्वा व्याघ्रश्च बलाबले। यथा शृगालः सिंहश्च यथा च शशकुञ्जरौ।। | 8-33-37a 8-33-37b |
यथाऽनृतं च सत्यं च यथा चापि विषामृते। तथा त्वमपि पार्थश्च प्रख्यातावात्मकर्मभिः।। | 8-33-38a 8-33-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33 ।। |
8-33-3 वसु वित्तम्। द्रष्टासि द्रक्ष्यसि।। 8-33-8 अबद्धं अनर्थकम्। अकर्णीयं अनाकर्णनीयम्।। 8-33-10 सहितो युध्यस्व नत्वेकाकी।। 8-33-27 झषैर्मीनैराकुलं पूर्णम्। अप्लवः बाहुभ्यामित्यर्थः।। 8-33-28 दुर्न्दुभिग्नीवं दुन्दुभिखनकण्ठम्।। 8-33-33 त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-032 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-034 |