महाभारतम्-08-कर्णपर्व-094
← कर्णपर्व-093 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-094 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-095 → |
कर्णाल्लंनयोर्युद्धारम्भः।। 1 ।। द्रौणिना दुर्योधनाय हिताख्यानम्।। 2 ।। तेन तदनादृत्य रणाय सेनानियोजनम्।। 3 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 8-94-1x |
तद्देतनागासुरसिद्धयक्षै-- र्गन्धर्वरक्षोप्सरसां च सङ्घैः। ब्रह्मर्षिराजर्षिसुपर्णजुष्टं बभौ वियद्विस्मयनीयरूपम्।। | 8-94-1a 8-94-1b 8-94-1c 8-94-1d |
नानद्यमानं निनदैर्मनोज्ञै-- र्वादित्रगीतस्तुतिनृत्यहासैः। सर्वेऽन्तरिक्षं ददृशुर्मनुष्याः खस्थाश्च तद्विस्मयनीयरूपम्।। | 8-94-2a 8-94-2b 8-94-2c 8-94-2d |
ततः प्रहृष्टाः कुरुपाण्डुयोधा वादित्रशङ्खस्वनसिंहनादैः। विनादयन्तो वसुधां दिशश्च स्वनेन सर्वान्द्विषतो निजघ्नुः।। | 8-94-3a 8-94-3b 8-94-3c 8-94-3d |
नराश्वमातङ्गरथैः समाकुलं शरासिशक्त्यृष्टिनिपातदुःसहम्। अभीरुजुष्टं हतदेहसङ्कुलं रणाजिरं लोहितमाबभौ तदा।। | 8-94-4a 8-94-4b 8-94-4c 8-94-4d |
परस्परं प्रावृणुतां सुदंशितौ।। | 8-94-5f |
ततस्त्वदीयाश्च परे च सायकैः कृतेऽन्धकारे ददृशुर्न किञ्चन। भयातुरा एकरथौ समाश्रयं-- स्ततोऽभवत्त्वद्भुतमेव सर्वतः।। | 8-94-6a 8-94-6b 8-94-6c 8-94-6d |
ततोऽस्त्रमस्त्रेण परस्परं तौ विधूय वाताविव पूर्वपश्चिमौ। घनान्धकारे वितते तमोनुदौ यथोदितौ तद्वदतीव रेजतुः।। | 8-94-7a 8-94-7b 8-94-7c 8-94-7d |
न चाभिसर्तव्यमिति प्रचोदिताः परे त्वदीयाश्च तथाऽवतस्थिरे। महारथौ तौ परिवार्य सर्वतः सुरासुराः शम्बरवासवाविव।। | 8-94-8a 8-94-8b 8-94-8c 8-94-8d |
मृदङ्गभेरीपणवानकस्वनै-- र्निनादिते वाहनशङ्खनिस्वनैः। तौ सिंहनादैर्बभतुर्नरोत्तमौ पतङ्गचन्द्राविव दुःसहावुभौ।। | 8-94-9a 8-94-9b 8-94-9c 8-94-9d |
महाधनुर्मण्डुलमध्यगावुभौ सुवर्चसौ बाणसहस्रदीधिती। दिधक्षमाणौ सचराचरं जग-- द्युगान्तसूर्याविव दुःसहौ रणे।। | 8-94-10a 8-94-10b 8-94-10c 8-94-10d |
उभावजेयावहितान्तकावुभा-- वुभौ जिघांसू कृतिनौ परस्परम्। महाहवे वीतभयौ समीयतु-- र्महेन्द्रजम्भाविव कर्णपाण्डवौ।। | 8-94-11a 8-94-11b 8-94-11c 8-94-11d |
ततो महास्त्राणि महाधनुर्धरौ विमुञ्चमानाविषुभिर्भयानकैः। नराश्वनागानमितान्निजघ्नतुः परस्परं चापि महारथौ नृप।। | 8-94-12a 8-94-12b 8-94-12c 8-94-12d |
ततो विसस्रुः पुनरर्दिता नरा नरोत्तमाभ्यां कुरुपाण्डवाश्रयाः। सनागपत्त्यश्वरथा दिशो द्रुता-- स्तथा यथा सिंहहता वनौकसः।। | 8-94-13a 8-94-13b 8-94-13c 8-94-13d |
ततस्तु दुर्योधनभोजसौबलाः कृपो गुरोश्चापि सुतो महाहवे। महारथाः पञ्च धनञ्जयाच्युतौ शरैः शरीरार्तिकरैरताडयन्।। | 8-94-14a 8-94-14b 8-94-14c 8-94-14d |
धनूंषि तेषामिषुधीन्ध्वजान्हया-- न्रथांश्च सूतांश्च धनञ्जयः शरैः। समं प्रमध्याशु परान्समन्ततः शरोत्तमैर्द्वादशभिन्न सूतजम्।। | 8-94-15a 8-94-15b 8-94-15c 8-94-15d |
अथाभ्यधावंस्त्वरिताः शतं रथाः शतं गजाश्चार्जुनमाततायिनः। शकास्तुषारा यवनाश्च सादिनः सहैव काम्भोजवरैर्जिघांसवः।। | 8-94-16a 8-94-16b 8-94-16c 8-94-16d |
वरायुधान्पाणिगतैः शरैः सह क्षुरैर्न्यकृन्तत्प्रपतञ्शिरांसि च। हयांश्च नागांश्च रथांश्च युध्यतो धनञ्जयऋ शत्रुगणान्क्षितौ क्षिणौत्।। | 8-94-17a 8-94-17b 8-94-17c 8-94-17d |
ततोऽन्तरिक्षे सुरतूर्यनिःस्वनाः ससाधुवादा हृषितैः समीरिताः। निपेतुरप्युत्तमपुष्पवृष्टयः सुरूपगन्धाः पवनेरिताः शुभाः।। | 8-94-18a 8-94-18b 8-94-18c 8-94-18d |
तदद्भुतं देवमनुष्यसाक्षिकं समीक्ष्य भूतानि विसिस्मियुस्तदा। तवात्मजः सूतसुतश्च न व्यथां न विस्मयं जग्मतुरेकनिश्चयौ।। | 8-94-19a 8-94-19b 8-94-19c 8-94-19d |
अथाब्रवीद्द्रोणसुतस्तवात्मजं करं करेण प्रतिपीड्य सान्त्वयन्। प्रसीद दुर्योधन शाम्य पाण्डवै-- रलं विरोधेन धिगस्तु विग्रहम्।। | 8-94-20a 8-94-20b 8-94-20c 8-94-20d |
हतो गुरुर्ब्रह्मसमो महास्त्रवि-- त्तथैव भीष्मप्रमुखा महारथाः। अहं त्ववध्यो मम चापि मातुलः प्रशाधि राज्यं सह पाण्डवैश्चिरम्।। | 8-94-21a 8-94-21b 8-94-21c 8-94-21d |
धनञ्जयः स्यास्यति वारितो मया जनार्दनो नैव विरोधमिच्छति। युधिष्ठिरो भूतहिते रतः सदा वृकोदरस्तद्वशगस्तथा यमौ।। | 8-94-22a 8-94-22b 8-94-22c 8-94-22d |
ध्रुवं हि तप्तोऽसि हतोऽरिभिर्युधि।। | 8-94-23f |
वृद्धं पितरमालोक्य गान्धारीं च यशस्विनीम्। कृपालुर्धर्मराजो हि याचितः शममेष्यति।। | 8-94-24a 8-94-24b |
यथोचितं च वै राज्यमनुज्ञास्यति ते प्रभुः। विपश्चित्सुमतिर्वीरः सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित्।। | 8-94-25a 8-94-25b |
वैरं नेष्यति धर्मात्मा स्वजने नास्त्यतिक्रमः। न विग्रहमतिः कृष्णा स्वजने प्रतिनन्दति।। | 8-94-26a 8-94-26b |
भीमसेनार्जुनौ चोभौ माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। वासुदेवमते चैव पाण्डवस्य च धीमतः। स्थास्यन्ति पुरुषव्याघ्रास्तयोर्वचनगौरवात्।। | 8-94-27a 8-94-27b 8-94-27c |
रक्ष दुर्योधनात्मानमात्मा सर्वस्य भाजनम्। जीवने यत्नमातिष्ठ जीवन्भद्राणि पश्यति।। | 8-94-28a 8-94-28b |
राज्यं श्रीश्चैव भद्रं ते जीवमाने च कल्पते। मृतस्य तु खलु कौरव्य नैव राज्यं कुतः सुखम्।। | 8-94-29a 8-94-29b |
लोकवृत्तमिदं वृत्तं प्रवृत्तं पश्य भारत। शाम्य त्वं पाण्डवैः सार्धं शेषं रक्ष कुलस्य च।। | 8-94-30a 8-94-30b |
मा भूत्स कालः कौरव्य यदाऽहमहितं वचः। ब्रूयां कामं महाबाहो माऽवमंस्था वचो मम।। | 8-94-31a 8-94-31b |
धर्मिष्ठमिदमत्यर्थं राज्ञश्चैव कुलस्य च। एतद्धि परमं श्रेयः कुरुवंशस्य वृद्धये। प्रयाहि तं च गान्धारे कुलस्य च सुखावहम्।। | 8-94-32a 8-94-32b 8-94-32c |
पथ्यमायतिसंयुक्तं कर्णोऽप्यर्जुनमाहवे। न जेष्यति नरव्याघ्र इति मे निश्चिता मतिः।। | 8-94-33a 8-94-33b |
रोचतां ते नरश्रेष्ठ ममैतद्वचनं शुभम्। अतोऽन्यथा हि राजेन्द्र विनाशः सुमहान्भवेत्।। | 8-94-34a 8-94-34b |
इदं च दृष्टं जगता सह त्वया कृतं यदेकेन किरीटमालिना। यथा न कुर्याद्बलभिन्न चान्तको न च प्रचेता भगवान्न यक्षराट्।। | 8-94-35a 8-94-35b 8-94-35c 8-94-35d |
अतोऽपि भूयान्स्वगुणैर्धनञ्जयो न चातिवर्तिष्यति मे वचोऽखिलम्। तवानुयात्रां च सदा करिष्यति प्रसीद राजेन्द्र शमं त्वमाप्नुहि।। | 8-94-36a 8-94-36b 8-94-36c 8-94-36d |
ममाभिमानः परमः सदा त्वयि ब्रवीम्यतस्त्वां परमाच्च सौहृदात्। निवारयिष्यामि च कर्णमाहवे महान्हि मेऽस्ति प्रणयोऽथ सूतजे।। | 8-94-37a 8-94-37b 8-94-37c 8-94-37d |
वदन्ति मैत्रीं सहजां विचक्षणा-- स्तथैव साम्ना च धनेन चार्जिताम्। प्रतापतश्चोपनतां चतुर्विधां तदस्ति सर्वं तव पाण्डवेषु।। | 8-94-38a 8-94-38b 8-94-38c 8-94-38d |
निसर्गतस्ते तव वीर बान्धवाः पुनश्च साम्ना हितमाप्नुयुः प्रभो। त्वयि प्रसन्ने यदि मित्रतां गते हितं कृतं स्याज्जगतस्त्वयाऽतुलम्।। | 8-94-39a 8-94-39b 8-94-39c 8-94-39d |
इतीदमुक्तः सुहृदा वचो हितं विचिन्त्य निःश्वस्य च दुर्मनाऽब्रवीत्। यथा भवानाह सखे तथैव त-- न्ममापि विज्ञापयतो वचः शृणु।। | 8-94-40a 8-94-40b 8-94-40c 8-94-40d |
निहत्य दुःशासनमुक्तवान्बहु प्रहस्य शार्दूलवदेष दुर्मतिः। वृकोदरस्तद्वृदये मम स्थितं न तत्परोक्षं भवतः कुतः शमः।। | 8-94-41a 8-94-41b 8-94-41c 8-94-41d |
न चापि कर्णं प्रसहेद्रणेऽर्जुनो महागिरिं मेरुमिवोग्रमारुतः। न चाश्वसिष्यन्ति पृथात्मजा मयि प्रसह्य वैरं बहुशो विचिन्त्य।। | 8-94-42a 8-94-42b 8-94-42c 8-94-42d |
न चापि कर्णं गुरुपुत्र संयुगा-- दुपारमेत्यर्हसि वीर भाषितुम्। श्रमेण युक्तो महताद्य फल्गुन-- स्तमेष कर्णः प्रसभं हनिष्यति।। | 8-94-43a 8-94-43b 8-94-43c 8-94-43d |
`वसुन्धरायाः परिवर्तनं भवे-- द्व्रजेच्च शोषं मकरालयोऽर्णवः। प्लवेयुरप्यद्रिवरा महाम्बुधौ न चार्जुनो जेष्यति कर्णमाहवे।। | 8-94-44a 8-94-44b 8-94-44c 8-94-44d |
अपां पृथिव्या नभसो नभस्वतः सुतिग्मदीप्तेश्च हिरण्यरेतसः। अभाव एषामपि सर्वतो भवे-- न्न चार्जुनो जेष्यति कर्णमाहवे'।। | 8-94-45a 8-94-45b 8-94-45c 8-94-45d |
तमेवमुक्त्वाऽप्यनुनीय चासकृ-- त्तवात्मजः स्वाननुशास्ति सैनिकान्। द्रुतं घ्नताभिद्रवताहितानिमा-- नहीनसत्वाः किमु जोषमासते।। | 8-94-46a 8-94-46b 8-94-46c 8-94-46d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94 ।। |
8-94-6 एकौ मुख्यौ रथौ रथिनौ कर्णार्जुनौ।। 8-94-7 तमोनुदौ सूर्यबन्द्रौ।। 8-94-8 नच अभिसर्तव्यं नापयातव्यमिति नियमेन प्रचोदिताः प्रेरिताः।। 8-94-23 ध्रुवं हि तप्तासि इति क.ख.ड.पाठः।। 8-94-41 दुःशासनमुक्तवान्वच इति झ.पाठः तत्र वचो दुर्योधनस्य हतस्य शिरः पदा ताडयिष्यामीत्येवंरूपम्।। 8-94-94 चतुर्नवतितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-093 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-095 |