महाभारतम्-08-कर्णपर्व-025

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वेदव्यासः
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देवै रुद्रवचनात्तस्य स्वस्वार्धबलदानपूर्वकं त्रिपुरसंहारायाभिषेचनम्।। 1 ।।

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दुर्योधन उवाच। 8-25-1x
पितृदेवर्षिसङ्घेभ्योऽभये दत्ते महात्मना।
सत्कृत्य शंकरं प्राह ब्रह्मा लोकपितामहः।।
8-25-1a
8-25-1b
इमान्यसुरदुर्गाणि लोकांस्त्रीनाक्रमन्ति हि।
कश्च प्रजापतिर्घोरांस्तान्स्रर्वाञ्जहि मा चिरम्।।
8-25-2a
8-25-2b
वरातिसर्गाद्देवेश प्राजापत्यमिदं परम्।
मयाऽधितिष्ठता दत्तो दानवेभ्यो महान्वरः।।
8-25-3a
8-25-3b
नास्त्यन्यो युधि तेषां वै निहन्ता इति नः श्रुतम्।
तानतिक्रान्तमर्यादान्नान्यः संहर्तुमर्हति।
त्वामृते सर्वभूतेश त्वं ह्येषां प्रत्यरिर्वधे।।
8-25-4a
8-25-4b
8-25-4c
स त्वं देव प्रपन्नानां याचतां च दिवोकसाम्।
कुरु प्रसादं वरद दानवाञ्जहि संयुगे।।
8-25-5a
8-25-5b
त्वत्प्रसादाज्जगत्सर्वं सुखमैधत मानद।
शरण्यस्त्वं हि देवानां वयं त्वां शरणं गताः।।
8-25-6a
8-25-6b
ईश्वर उवाच। 8-25-7x
हन्तव्याः शत्रवः सर्वे युष्माकमिति मे मतिः।
न त्वेकश्चोत्सहे हन्तुं बलिनः सुरविद्विषः।।
8-25-7a
8-25-7b
ते यूयं सहिताः सर्वे मदीयेनापि तेजसा।
जयध्वं युधि तान्सर्वान्सङ्घातेन महाबलान्।।
8-25-8a
8-25-8b
देवा ऊचुः। 8-25-9x
अस्मत्तेजोबलं यावत्तावद्द्विगुणमेव वा।
तत्तेषामिति मन्यामो दृष्टतेजोबला हि ते।।
8-25-9a
8-25-9b
ईश्वर उवाच। 8-25-10x
वध्यास्ते सर्वथा पापा ये युष्मास्वपराधिनः।
मम तेजोबलार्धेन सर्वे मृद्गथ शात्रवान्।।
8-25-10a
8-25-10b
देवा ऊचुः। 8-25-11x
बिभर्तुं तव तेजोर्धं न शक्ष्याम सुरेश्वर।
सर्वेषां नो बलार्धेन त्वमेव जहि शात्रवान्।।
8-25-11a
8-25-11b
वयं च सर्वथा देव रक्षणीयास्तथैव च।
स नो रक्ष महादेव त्वमेव जहि शात्रवान्।।
8-25-12a
8-25-12b
ईश्वर उवाच। 8-25-13x
मम तेजो न शक्ता हि सर्वे धारयितुं यदि।
अहमेनान्वधिष्यामि युष्मत्तेजोर्धसंयुतः।।
8-25-13a
8-25-13b
बलार्धं यदि मे देवा न धारयितुमाहवे।
शक्ताः सर्वे हि सङ्गम्य यूयं तत्प्रब्रवीमि वः।।
8-25-14a
8-25-14b
समा भवन्ति मे सर्वे दानवाश्चामराश्च ये।
शिवोऽस्मि सर्वभूतानां शिवत्वं तेन मे सुराः।।
8-25-15a
8-25-15b
किन्त्वधर्मेण वर्तन्ते यस्मात्ते सुरशत्रवः।
तस्माद्वध्या मयाप्येते युष्माकं च हितेप्सया।।
8-25-16a
8-25-16b
शरणं वः प्रपन्नानां धर्मेण च जिगीषताम्।
साहाय्यं वः करिष्यामि निहनिष्यामि वो रिपून्।।
8-25-17a
8-25-17b
दीयतां च बलार्धं मे सर्वैरपि पृथक्पृथक्।
पशुत्वं चैव मे लोकाः सर्वे कल्पन्तु पीडिताः।।
8-25-18a
8-25-18b
पशूनां तु पतित्वं मे भवत्वद्य दिवौकसः।
एवं न पापं प्राप्स्यामि पशून्हत्वा सुरद्विपः।।
8-25-19a
8-25-19b
कल्पयध्वं रथं दिव्यं रथाश्वांश्चैव पारगान्।
धनुः शरं सारथिं च ततो जेष्यामि वो रिपून्।।
8-25-20a
8-25-20b
इति श्रुत्वा वचो देवा देवदेवस्य भूपतेः।
विषादमगमन्सर्वे पशुत्वं प्रति शङ्किताः।।
8-25-21a
8-25-21b
तेषां भावं भवो ज्ञात्वा देवस्तानब्रवीदिदम्।
मा वोस्तु पशुभावेऽस्मिन्भयं विबुधसत्तमाः।।
8-25-22a
8-25-22b
श्रूयतां पशुभावस्य विमोक्षः क्रियतां च सः।। 8-25-23a
यो वः पशुपतेश्चर्यां चरिष्यति स मोक्ष्यते।
पशुत्वादिति सत्यं वः प्रतिजाने समागमे।।
8-25-24a
8-25-24b
ये चाप्यन्ये चरिष्यन्ति व्रतं मोक्ष्यन्ति तेऽपि च।। 8-25-25a
नै(त्य)ष्ठिकं द्वादशाब्दं वा अर्धमब्दमृतुत्रयम्।
मासं द्वादशरात्रं गुह्यं व्रतं दिव्यं चरिष्यथ।।
8-25-26a
8-25-26b
तं तथेत्यब्रुवन्देवा देवदेवनमस्कृतम्।
ऊचुश्चेदं गृहाणेदं तेजसोऽर्धमिति प्रभुम्।।
8-25-27a
8-25-27b
प्रत्युवाच तथेत्येव शूलधृद्राजसत्तम।
ततस्ते प्रददुः सर्वे तेजसोऽर्धं महात्मने।।
8-25-28a
8-25-28b
सर्वमादाय सर्वेषां तेजसोऽर्धं दिवौकसाम्।
तेजसाप्यधिको भूत्वा भूयोऽप्यतिबलोऽभवत्।।
8-25-29a
8-25-29b
ततः प्रभृति देवानां देवदेवोऽभवद्भवः।
पतिश्च सर्वभूतानां पशूनां चाभवत्तदा।।
8-25-30a
8-25-30b
तस्मात्पशुपतिश्चोक्तो भवत्वाच्च भवेति वै।।
अर्धमादाय सर्वेषां तेजसा प्रज्वलन्निव।
8-25-31a
8-25-31b
भासयामास तान्सर्वान्देवदेवो महाद्युतिः।।
ततोऽभिषिषिच्युः सर्वे सुरा रुद्रं पुरारिणम्।
8-25-32a
8-25-32b
महादेव इति ह्यासीद्देवदेवो महेश्वरः।। 8-25-33a
।। इति श्रीमन्महाभारते
कर्णपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः।। 25 ।।
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