महाभारतम्-08-कर्णपर्व-053
← कर्णपर्व-052 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-053 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-054 → |
अर्जुनेनाश्वत्थामपराजयः।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 8-53-1x |
ततः समभवद्युद्धं शुक्राङ्गिरसवर्चसोः। नक्षत्रमभितो व्योम्नि शुक्राङ्गिरसयोरिव।। | 8-53-1a 8-53-1b |
सन्तापयन्तावन्योन्यं दीप्तैः शरगभस्तिभिः। लोकत्रासकरावास्तां विमार्गस्थौ ग्रहाविव।। | 8-53-2a 8-53-2b |
ततोऽविध्यद्धुवोर्मध्ये नाराचैरर्जुनो भृशम्। स तेन विबभौ द्रौणिरूर्ध्वरश्मिर्यथा रविः।। | 8-53-3a 8-53-3b |
अथ कृष्णौ शरशतैरश्वत्थाम्नाऽर्दितौ भृशम्। स्वरश्मिजालविकचौ युगान्तार्काविवासुतः।। | 8-53-4a 8-53-4b |
ततोऽर्जुनः सर्वतोधारमस्त्र-- मवासृजद्वासुदेवेऽभिभूते। द्रौणायनिश्चाभ्यहनत्पृषत्कै-- र्वज्राग्निवैवस्वतदण्डकल्पैः।। | 8-53-5a 8-53-5b 8-53-5c 8-53-5d |
स केशवं चार्जुनं चातितेजा विव्याध मर्मस्वतिरौद्रकर्मा। बाणैः सुमुक्तैरतितीव्रवेगै-- र्यैराहतो मृत्युरपि व्यथेत।। | 8-53-6a 8-53-6b 8-53-6c 8-53-6d |
द्रौणेरिषूनिषुभिः सन्निवार्य व्यायच्छतस्तद्द्विगुणैः सुपुङ्खैः। तं साश्वसूतध्वजमेकवीर-- मावृत्य संशप्तकसैन्यमार्च्छत्।। | 8-53-7a 8-53-7b 8-53-7c 8-53-7d |
धनूंषि बाणानिषुधीर्धनुर्ज्याः पाणीन्भुजान्पाणिगतं च शस्त्रम्। छत्राणि केतूंस्तुरगान्रथेषां वस्त्राणि माल्यान्यथा भूषणानि।। | 8-53-8a 8-53-8b 8-53-8c 8-53-8d |
चर्माणि वर्माणि मनोरमाणि प्रसह्य चैषां स शिरांसि चैव। स्रिच्छेद पार्थो द्विषतां सुमुक्तै-- र्बाणैः स्थितानामपराङ्मुखानाम्।। | 8-53-9a 8-53-9b 8-53-9c 8-53-9d |
सुकल्पिताः स्मन्दनवाजिनागाः समास्थिताः कृतयत्नैर्नृवीरैः। पार्थेरितैर्बाणशतैर्निरस्ता-- स्तैरेव सार्धं नृवरैर्विनेशुः।। | 8-53-10a 8-53-10b 8-53-10c 8-53-10d |
पद्मार्कपूर्णेन्दुनिभाननानि किरीटमाल्याभरणोज्ज्वलानि। भल्लार्धचन्द्रक्षुरसन्निकृत्ता-- न्यपातयच्छत्रुशिरांस्यजस्रम्।। | 8-53-11a 8-53-11b 8-53-11c 8-53-11d |
अथ द्विपैर्दैत्यरिपुद्विपाभै-- र्देवारिकल्पा बलमन्युकल्पैः। कलिङ्गवङ्गाङ्गनिषादवीरा जिघांसवः पाण्डवमभ्यधावन्।। | 8-53-12a 8-53-12b 8-53-12c 8-53-12d |
तेषां द्विपानां निचकर्त पार्थो वर्माणि चर्माणि करान्नियन्तॄन्। ध्वजाः पताकाश्च ततः प्रपेतु-- र्वज्राहतानीव गिरेः शिरांसि।। | 8-53-13a 8-53-13b 8-53-13c 8-53-13d |
तेषु प्रभग्नेषु गुरोस्तनूजं बाणैः किरीटि नवसूर्यवर्णैः। प्रच्छादयामास महाभ्रजालै-- र्वायुः समुद्यन्तमिवांशुमन्तम्।। | 8-53-14a 8-53-14b 8-53-14c 8-53-14d |
ततोऽर्जुनेषूनिषुभिर्निरस्य द्रौणिः शितैरर्जुनवासुदेवौ। प्रच्छादयित्वा दिवि चन्द्रसूर्यौ ननाद सोऽम्भोद इवातपान्ते।। | 8-53-15a 8-53-15b 8-53-15c 8-53-15d |
तमर्जुनस्तांश्च पुनस्त्वदीया-- नभ्यर्दितस्तैरभिसृत्य शस्त्रैः। वाणान्धकारं सहसैव कृत्त्वा विव्याध पार्थो वरहेमपुङ्खैः।। | 8-53-16a 8-53-16b 8-53-16c 8-53-16d |
नाप्याददत्सन्दधन्नैव मुञ्च-- न्बाणान्रथेऽदृश्यत सव्यसाची। रथांश्च नागांस्तुरगान्पदातीन् संस्यूतदेहान्ददृशुर्हतांश्च।। | 8-53-17a 8-53-17b 8-53-17c 8-53-17d |
सन्धाय नाराचवरान्दशाशु द्रौणिस्त्वरन्नेकमिवोत्ससर्ज। तेषां च पञ्चार्जुनमभ्यविध्य-- न्पञ्चाच्युतं निर्बिभुदुः सुपुङ्खाः।। | 8-53-18a 8-53-18b 8-53-18c 8-53-18d |
तैराहतौ सर्वमनुष्यमुख्या-- वसृक्स्रवन्तौ धनदेन्द्रकल्पौ। समाप्तविद्येन तथाऽभिभूतौ हतौ रणे ताविति मेनिरेऽन्ये।। | 8-53-19a 8-53-19b 8-53-19c 8-53-19d |
अथार्जुनं प्राह दशार्हनाथः प्रमाद्यसे किं जहि योधमेतम्। कुर्याद्धि दोषं समुपेक्षितोऽयं कष्टो भवेद्व्याधिरिवाक्रियावान्।। | 8-53-20a 8-53-20b 8-53-20c 8-53-20d |
तथेति चोक्त्वाऽच्युतमप्रमादी द्रौणेः प्रहस्याशु किरीटमाली। भुजौ वरौ चन्दनसारदिग्धौ वक्षः शिरोऽथाप्रतिमौ तथोरू।। | 8-53-21a 8-53-21b 8-53-21c 8-53-21d |
गाण्डीवमुक्तैः कुपिताहिकल्पै-- द्रौणिं शरैः संयति निर्बिभेद। छित्त्वा तु रश्मींस्तुरगानविध्य-- त्ते तं रणादूहुरतीव दूरम्।। | 8-53-22a 8-53-22b 8-53-22c 8-53-22d |
स तैर्हृतो वातजवैस्तुरङ्गै- र्द्रौणिर्दृढं पार्थशराभिभूतः। आवृत्य नैव व्यषहत्स योद्धुं पार्थेन सार्धं मतिमान्विमृश्य। | 8-53-23a 8-53-23b 8-53-23c 8-53-23d |
जानञ्जयं नियतं वृष्णिवीरे धनञ्जये चाङ्गिरसां वरिष्ठः।। विवेश कर्णस्य बलं तरस्वी भग्नोत्साहः क्षीणवाणास्त्रयोगः।। | 8-53-24a 8-53-24b 8-53-24c 8-53-24d |
प्रतीपकामे तु रणादश्वत्थाम्नि हृते हयैः। मन्त्रौषधिक्रियायोगैर्व्याधौ देहादिवाहृते।। | 8-53-25a 8-53-25b |
संशप्तकानभिमुखौ प्रयातौ केशवार्जुनौ। वातोद्वूतपताकेन स्यन्दनेनौघनादिना।। | 8-53-26a 8-53-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।। 53 ।। |
8-53-1 नक्षत्रमभितः नक्षत्रं लक्षीकृत्य।। 8-53-2 विमार्गस्थौ वक्रातिचारगौ।। 8-53-4 कृष्णौ कृष्णार्जुनौ आसतुः दीपयाञ्चक्रतुः।। 8-53-5 सर्वतोधारं सर्वतोऽस्त्रधारावर्षकं। सर्वतोवारमिति घ.ङ.पाठः। वज्रकल्पैः अमोधैः। अग्निकल्पैः दाहकैः। वैवस्वतदण्डकल्पैः प्राणहरैः।। 8-53-7 ध्यायच्छतो यतमानस्य। आर्च्छतगतवान्।। 8-53-10 सुकल्पिताः सुसन्नद्धाः।। 8-53-13 करान् शुण्डाः।। 8-53-16 तं अश्वत्थामानम्। तान् तदन्यान्। तैः कृतं न्नाणान्धकारं कृत्त्वा छित्त्वा। कृती छेदन।। 8-53-17 संस्यूताः अन्योन्यं सन्धट्टवन्तः।। 8-53-19 समाप्तविद्येन समग्रधनुर्वेदविदा।। 8-53-20 अक्रियावान् प्रतिकाररहितः।। 8-53-22 अविकर्णैः अविकर्णतुत्याग्रैः।। 8-53-23 अङ्गिरसां अङ्गिरोगोत्राणां मध्ये।। 8-53-26 ओघनादिना जलौघवन्नादवता।। 8-53-53 त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-052 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-054 |