महाभारतम्-08-कर्णपर्व-096
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कर्णे युधि वर्धमाने कृष्णेनार्जुनप्रोत्साहनम्।। 1 ।। ततोऽर्जुनेन स्वसामर्थ्यप्रकाशनम्।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-96-1x |
अथाब्रवीच्चक्रधरोऽपि पार्थं दृष्ट्वा रथेषून्प्रतिहन्यमानान्। अमूमुषत्पश्यत एव तेऽद्य ह्यस्त्राणि कर्णोऽस्त्रगणैः किरीटिन्।। | 8-96-1a 8-96-1b 8-96-1c 8-96-1d |
स पार्थ किं मुह्यसि वेत्सि चैव ता-- न्दृष्ट्वा समेतान्नदतः कुरूस्त्वम्। कर्णं पुरस्कृत्य विदुर्हि सर्वे तवास्त्रमस्त्रैर्विनिहन्यमानम्।। | 8-96-2a 8-96-2b 8-96-2c 8-96-2d |
पार्थाहवे त्यक्तुमस्त्रं समर्थः।। | 8-96-3f |
अनेन चाशु क्षुरनेमिनाद्य मया विसृष्टेन सुदर्शनेन। छिन्ध्यस्य मूर्धानमरेः प्रसह्य वज्रेण शक्रो नमुचेरिवारेः।। | 8-96-4a 8-96-4b 8-96-4c 8-96-4d |
किरातरूपी भगवान्यया च त्वया महात्मा परितोषितोऽभूत्। स तां पुनर्वीर धृतिं गृहीत्वा सहानुबन्धं जहि सूतपुत्रम्।। | 8-96-5a 8-96-5b 8-96-5c 8-96-5d |
ततो महीं सागरमेखलां त्वं सपत्तगा ग्रामवतीं समृद्धाम्। प्रयच्छ राज्ञे निहतारिसङ्घां यशश्च पार्थातुलमाप्नुहि त्वम्।। | 8-96-6a 8-96-6b 8-96-6c 8-96-6d |
त्वां चापि दृष्ट्वा परिहीयमानम्।। | 8-96-7f |
सञ्जय उवाच। | 8-96-8x |
सञ्चोदितो भीमजनार्दनाभ्यां स्मृत्वा तदात्मानमवेत्य सर्वम्। इहात्मनश्चागमने विदित्वा प्रयोजनं केशवमित्युवाच।। | 8-96-8a 8-96-8b 8-96-8c 8-96-8d |
प्रादुष्करोभ्येष महास्त्रमुग्रं शिवाय लोकस्य वधाय सौतेः। तन्मेऽनुजानातु भवान्सुराश्च ब्रह्मा शिवो ब्रह्मविदश्च सर्वे।। | 8-96-9a 8-96-9b 8-96-9c 8-96-9d |
इति स्मोक्त्वा पाण्डवः सव्यसाची नमस्कृत्वा ब्रह्मणे सोऽमितात्मा। अनुत्तमं ब्राह्ममसह्यमस्त्रं प्रादुश्चक्रे मनसा यद्विधेयम्।। | 8-96-10a 8-96-10b 8-96-10c 8-96-10d |
ततो दिशश्च प्रदिशश्च सर्वाः समावृणोत्सायकैर्भूरितेजाः। गाण्डीवमुक्तैर्भुजगैरिवोग्रै-- र्दिवाकरांशुप्रतिमैर्ज्वलद्भिः।। | 8-96-11a 8-96-11b 8-96-11c 8-96-11d |
सृष्टास्तु बाणा भरतर्षभेण शतं शतं भीममुखाः सुतीक्ष्णाः। प्राच्छादयन्कर्णरथं क्षणेन युगान्तकालार्ककरप्रकाशाः।। | 8-96-12a 8-96-12b 8-96-12c 8-96-12d |
वैकर्तनेनाशु तदाजिमध्ये सहस्रशो बाणगणा विसृष्टाः। ते चाक्षयाः पाण्डवमभ्युपेयुः पर्जन्यसृष्टा इव वारिधाराः।। | 8-96-13a 8-96-13b 8-96-13c 8-96-13d |
ततः स कृष्णं च किरीटिनं च वृकोदरं चाप्रतिमप्रभावः। त्रिभिस्त्रिभिर्भीमबलो निहत्य ननाद घोरं महता स्वनेन।। | 8-96-14a 8-96-14b 8-96-14c 8-96-14d |
ततः स बाणाभिहतः किरीटी भीमं तथा प्रेक्ष्य जनार्दनं च। अमृष्यमाणः पुनरेव पार्थः शरान्दशाष्टौ सममुद्ववर्ष।। | 8-96-15a 8-96-15b 8-96-15c 8-96-15d |
स केतुमेकेन शरेण विद्ध्वा शल्यं चतुर्भिस्त्रिभिरेव कर्णम्। ततः सुमुक्तैर्दशभिर्जघान सेनापतिं काञ्चनवर्मनद्वम्।। | 8-96-16a 8-96-16b 8-96-16c 8-96-16d |
स राजपुत्रो विशिरा विबाहु-- र्विवाजिसूतो विधनुर्विकेतुः। अथो रथाग्रादपतत्प्ररुग्णः परश्वथैः साल इवावकृत्तः।। | 8-96-17a 8-96-17b 8-96-17c 8-96-17d |
नष्टौ सहस्राणि च पत्तिवीरान्।। | 8-96-18f |
दृष्ट्वा तु मुख्यावतिविध्यमानौ वरेषुभिः शूरवरावरिघ्नौ। कर्णं च पार्थं च नियम्य वाहा- न्सर्वे वरिष्ठाश्च ततोऽवतस्थुः।। | 8-96-19a 8-96-19b 8-96-19c 8-96-19d |
प्रच्छादयामास ततः पृषत्कैः सघोषमाच्छिद्य च गाण्डिवज्याम्। अस्मिन्क्षणे फल्गुनं सूतपुत्रः समाचिनोत्क्षुद्रकाणां शतेन।। | 8-96-20a 8-96-20b 8-96-20c 8-96-20d |
निर्मुक्तसर्पप्रतिमैश्च तीक्ष्णै-- स्तैलप्रघौतैः खगपत्रवाजैः। षष्ट्या बिभेदाशु च वासुदेवं तदन्तरे प्रात्वरन्सोमकाश्च।। | 8-96-21a 8-96-21b 8-96-21c 8-96-21d |
ततो नवज्यां सुदृढां किरीटि स्वबाहुविक्षेपसहां प्रगृह्य। समादधे गाण्डिवे क्षिप्रकारी निमेषमात्रेण महाधनुष्मान्।। | 8-96-22a 8-96-22b 8-96-22c 8-96-22d |
ज्याछेदनं ज्याविधानं च तस्य नैवावबुध्यत्सूतपुत्रो लघुत्वात्। पार्थस्य सङ्ख्ये द्विषतां निहन्तु-- स्तदद्भुतं तत्र बभूव राजन्।। | 8-96-23a 8-96-23b 8-96-23c 8-96-23d |
पार्थोऽपि तां ज्यामवधाय तूर्णं शरासनज्यामाधिरथेर्विहत्य। सुसंरब्धः कर्णशरैः क्षताङ्गो रणे योधांस्तावकान्प्रत्यगृह्णात्।। | 8-96-24a 8-96-24b 8-96-24c 8-96-24d |
नैवापत्पक्षिगणोऽन्तरिक्षे पार्थेन चास्त्रेण कृतेऽन्धकारे।। | 8-96-25a 8-96-25b |
शल्यं तु पार्थो दशभिर्निमेषा-- द्भृशं तनुत्रे प्रहसन्नविध्यत्। ततः कर्णं द्वादशभिः पृषत्कै-- र्विद्ध्वा पुनः सप्तभिरप्यविध्यत्।। | 8-96-26a 8-96-26b 8-96-26c 8-96-26d |
स पार्थबाणासनवेगनुन्नै-- र्दृढाहतः पत्रिभिरुग्रवेगैः। विभिन्नगात्रः क्षतजोक्षिताङ्गः कर्णो बभौ रुद्र इवान्तकाले।। | 8-96-27a 8-96-27b 8-96-27c 8-96-27d |
ततस्त्रिभिस्तं त्रिदशाधिपोपमं शरैर्बिभेदाधिरथिर्धनञ्जयम्। शरांश्च पञ्च ज्वलनानिवोरगा-- न्प्रवेशयामास जिघांसुरच्युते।। | 8-96-28a 8-96-28b 8-96-28c 8-96-28d |
सुवर्णचित्रं पुरुषोत्तमस्य वर्माथ भित्त्वाभ्यपतन्सुपुङ्खाः। वेगेन गां ते विविशुश्च राज-- न्स्नात्वा कर्णाऽभिमुखाः प्रतीयुः।। | 8-96-29a 8-96-29b 8-96-29c 8-96-29d |
तान्पञ्चभल्लैर्दशभिः सुमुक्तै-- स्त्रिधात्रिधैकैकमथोच्चकर्त। धनञ्जयस्ते न्यपतन्पृथिव्यां यथाऽहयस्तार्क्ष्यमुखेन कृत्ताः।। | 8-96-30a 8-96-30b 8-96-30c 8-96-30d |
द्धैर्यात्तुं तस्थावतिमात्रधैर्यः।। | 8-96-31f |
प्रादुश्चकाराथ शरान्महात्मा देहं विचिन्वन्निव सूतजस्य। शरास्तु ते काञ्चनचित्रपुङ्खाः सम्पेतुरुर्व्यां शतशो महान्तः।। | 8-96-32a 8-96-32b 8-96-32c 8-96-32d |
ततः शरौघैः प्रदिशो दिशश्च रविप्रभाः कर्णरथश्च राजन्। अदृश्य आसीत्कुपिते धनञ्जये तुषारनीहारवृतो गिरिर्यथा।। | 8-96-33a 8-96-33b 8-96-33c 8-96-33d |
सचक्ररक्षा अपि पृष्ठगोपाः कर्णस्य ये चापि पुरःसराश्च। भीता द्रवन्ति स्म निहन्यमाना महेषुभिः पार्थकरप्रणुन्नैः।। | 8-96-34a 8-96-34b 8-96-34c 8-96-34d |
ततोऽर्जुनो वै भरतप्रवीरो महानुभावः समरे निहन्ता। सुयोधनेनानुमतान्विनिघ्न-- न्समुच्छ्रितान्सरथान्सारभूतान्।। | 8-96-35a 8-96-35b 8-96-35c 8-96-35d |
गाण्डीवधन्वा द्विगुणं सहस्रं कुरुप्रवीरानृषभः कुरूणाम्। क्षणेन सर्वान्सरथान्ससूता-- न्निनाय राजन्क्षयमेकवीरः।। | 8-96-36a 8-96-36b 8-96-36c 8-96-36d |
अथो पलायन्त विहाय कर्णं तवात्मजा ये कुरवश्च शिष्टाः। एतानवाकीर्य शरक्षतांश्च विलप्यमानांस्तनयान्विमृद्गन्।। | 8-96-37a 8-96-37b 8-96-37c 8-96-37d |
सर्वे प्रणेशुः कुरवो विभग्नाः पार्थेषुभिः सम्परितप्यमानाः। सुयोधनेनाथ पुनर्वरिष्ठाः प्रचोदिताः कर्णरथानुयाने।। | 8-96-38a 8-96-38b 8-96-38c 8-96-38d |
भोः क्षत्रियाः शूरतमास्तु सर्वे क्षत्रे च धर्मे निरताः स्थ यूयम्। न युक्तरूपं भवतां समीपा-- त्पलायनं कर्णमतिप्रहाय।। | 8-96-39a 8-96-39b 8-96-39c 8-96-39d |
तवात्मजेनापि तथोच्यमाना नैवावतिष्ठन्त भयाद्विवर्णाः। क्षणेन नष्टाः प्रदिशो दिशश्च सर्वे ततः प्रेक्ष्य दिशो विशून्याः।। | 8-96-40a 8-96-40b 8-96-40c 8-96-40d |
भयावदीर्णः कुरुभिर्विहीनः पार्थेषुभिः सम्परितप्यमानः। न विव्यधे भारत तत्र कर्णः प्रतीपमेवार्जुनमभ्यधावत्।। | 8-96-41a 8-96-41b 8-96-41c 8-96-41c |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे षण्णवतितमोऽध्यायः।। 96 ।। |
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