महाभारतम्-08-कर्णपर्व-069

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वेदव्यासः
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युधिष्ठिरेण कर्णशरविक्षतस्यात्मनो दिदृक्षया स्वशिबिरमुपागतौ कृष्णार्जुनौ दृष्ट्वा पार्थेन राधेयस्य वधभ्रमेण पार्थस्य प्रशंसनम्।। 1 ।।

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सञ्जय उवाच। 8-69-1x
[अथोपयातौ पृथुलोहिताक्षौ
शराचिताङ्गौ रुधिरप्रदिग्धौ।
समीक्ष्य सेनाग्रनरप्रवीरौ
युधिष्ठिरो वाक्यमिदं बभाषे।।]
8-69-1a
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ततो युधिष्ठिरो दृष्ट्वा सहितौ केशवार्जुनौ।
हतमाधिरथिं मेने सङ्ख्ये गाण्डीवधन्वना।।
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तावभ्यनन्दत्कौन्तेयः साम्ना परमवल्गुना।
स्मितपूर्वममित्रघ्न पूजयन्भरतर्पभ।।
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युधिष्ठिर उवाच। 8-69-4x
स्वागतं देवकीपुत्र स्वागतं ते धनञ्जय।
प्रियं मे दर्शनं वाढं युवयोर्नरसिंहयोः।।
8-69-4a
8-69-4b
अरिष्टयोरक्षतयोः कर्णं हत्वा महारथम्।
आशीविपसमं युद्धे सर्वशस्त्रविशारदम्।।
8-69-5a
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अग्रगं धार्तराष्ट्राणां सर्वेषां शर्म वर्म च।
रक्षितं वृषसेनेन सुपेणेन च धन्विना।।
8-69-6a
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अनुज्ञातं महावीर्यं रामेणास्त्रे सुदुर्जयम्।
अग्र्यं सर्वस्य लोकस्य रथिनं लोकविश्रुतम्।।
8-69-7a
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त्रातारं धार्तराष्ट्राणां गन्तारं वाहिनीमुखे।
हन्तारं परसैन्यानाममित्रगणमर्दनम्।।
8-69-8a
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दुर्योधनहिते युक्तमस्मद्दुःखाय चोद्यतम्।
अप्रधृष्यं महायुद्धे देवैरपि सवासवैः।।
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8-69-9b
अनलानिलयोस्तुल्यं तेजसा च बलेन च।
पातालमिव गम्भीरं सुहृदां नन्दिवर्धनम्।।
8-69-10a
8-69-10b
अन्तकं मम मित्राणां हत्वा कर्णं महामृधे।
दिष्ट्या युवामनुप्राप्तौ हत्वाऽसुरमिवामरौ।।
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8-69-11b
तेन युद्धमभीतेन मयाऽद्याप्यच्युतार्जुनौ।
कृतं घोरं महाबाहू धृष्टद्युम्नस्य पश्यतः।
अन्तकेनेव क्रुद्धेन प्रजाः सर्वा जिघांसता।।
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8-69-12c
तेन केतुश्च मे च्छिन्नो हतौ च पार्ष्णिसारथी।
हतवाहः कृतश्चास्मि युयुधानस्य पश्यतः।।
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धृष्टद्युम्नस्य यमयोर्वीरस्य च शिखण्डिनः।
पश्यतां द्रौपदेयानां शतद्रोश्च महात्मनः।।
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8-69-14b
एताञ्जित्वा महावीर्यः कर्णः शत्रुगणान्बहून्।
जितवान्मां महाबाहो यतमानो महारणे।।
8-69-15a
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अनुसृत्य च मां युद्धे परुषाण्युक्तवान्बहु।
तत्र तत्र युधां श्रेष्ठ परिभूय न संशयः।।
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भीमसेनप्रभावात्तु यज्जीवामि धनञ्जय।
बहुनात्र किमुक्तेन हते सोढुं समुत्सहे।।
8-69-17a
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त्रयोदशाहं वर्षाणि यस्माद्भीतो धनञ्जय।
न स्म निद्रां लभे रात्रौ न चाहनि सुखं क्वचित्।।
8-69-18a
8-69-18b
तस्य द्वेषेण संयुक्तः परिदह्ये धनञ्जय।
आत्मनो मरणं जानन्वाध्रीणस इव द्विजः।।
8-69-19a
8-69-19b
तस्यायमगमत्कालश्चिन्तयानस्य मे चिरम्।
कथं कर्णो मया शक्यो युद्धे क्षपयितुं भवेत्।।
8-69-20a
8-69-20b
जाग्रत्स्वपंश्च कौन्तेय कर्णमेव स्मराह्यहम्।
पश्यामि तत्रतत्रैव कर्णभूतमिदं जगत्।।
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8-69-21b
यत्र यत्र हि गच्छामि कर्णाद्भीतो धनञ्जय।
तत्र तत्र हि पश्यामि कर्णमेवाग्रतः स्थितम्।।
8-69-22a
8-69-22b
सोऽहं तेनैव वीरेण समरेष्वपलायिना।
सहयः सरथः पार्थ जित्वा जीवन्विसर्जितः।।
8-69-23a
8-69-23b
को नु मे जीवितेनार्थो राज्येनार्थो भवेत्पुनः।
ममैवं विक्षतस्याद्य कर्णेनाहवशोभिना।।
8-69-24a
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न प्राप्तपूर्वं यद्भीष्मात्कृपाद्द्रोणाच्च संयुगे।
तत्प्राप्तमद्य मे युद्धे सूतपुत्रान्महारथात्।।
8-69-25a
8-69-25b
स त्वां पृच्छामि कौन्तेय यथा न कुशलस्तथा।
तन्ममाचक्ष्व कार्त्स्न्येन यथा कर्णो हतस्त्वया।।
8-69-26a
8-69-26b
शक्रतुल्यबलो युद्धे यमतुल्यः पराक्रमे।
रामतुल्यस्तथास्त्रेषु स कथं ते निषूदितः।।
8-69-27a
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महारथसमाख्यातः सर्वयुद्धविशारदः।
धनुर्धराणां प्रवरः सर्वेषां वै सदार्जुन।।
8-69-28a
8-69-28b
पूजितो धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण विशाम्पते।
त्वदर्थमेव राधेयः स कथं निहतस्त्वया।।
8-69-29a
8-69-29b
धार्तराष्ट्रस्य योद्धारः सर्व एव सदार्जुन।
तव मृत्युं रणे कर्णं मन्यन्ते पुरुषर्षभ।।
8-69-30a
8-69-30b
स त्वया पुरुषव्याघ्र कथं युद्धे निषूदितः।
तन्ममाचक्ष्व कौन्तेय यथा कर्णो हतस्त्वया।।
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8-69-31b
सोत्सेधमस्य च शिरः पश्यतां सुहृदां हृतम्।
त्वया पुरुषशार्दूल सिंहेनेव यथा रुरोः।।
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सर्वा दिशः पर्यपतत्त्वदर्थं
त्वां सूतपुत्रः समरे परीप्सन्।
दित्सन्नृणां शकटं रत्नपूर्णं
कथं त्वयासौ निहतोऽद्य कर्णः।।
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त्वया रणे निहतः सूतपुत्रः
कच्चित्कृतं मे परमं त्वयाद्य
प्रियं रणे सूतपुत्रं निहत्य।।
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सर्वा दिशः पर्यपतत्त्वदर्थं
मुदान्वितो गर्वितः सूतपुत्रः।
स शूरमानी समरे समेत्य
कच्चित्त्वया निहतः सूतपुत्रः।।
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राज्यं परं हस्तिगवाश्वयुक्तं
रथं दित्सुर्यः परेभ्यस्त्वर्दर्थे।
त्वया रणे स्पर्धते यः स पापः
कच्चित्त्वया निहतः पापबुद्धिः।।
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योऽसौ नित्यं शौर्यमदेन मत्तो
विकत्थते संसदि कौरवाणाम्।
प्रीत्यर्थं वै तात सुयोधनस्य
कच्चित्स पापो निहतस्त्वयाद्य।।
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कच्चित्समागम्य धनुःप्रमुक्तै--
स्त्वत्प्रेषितैर्लोहमयैर्विहंगैः।
शेते भिन्नः पांसुषु सूतपुत्रः
कच्चिद्भग्रौ धार्तराष्ट्रस्य बाहू।।
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योऽसौ सदा श्लाघते राजमध्ये
दुर्योधनं हर्षयन्दर्पयुक्तः।
हन्ताऽस्मि सर्वानिति पाण्डुपुत्रा--
नहं हन्ता फल्गुनस्येति मोहात्।।
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कच्चिद्वचोऽस्य वितथं त्वया कृतं
यत्तत्प्रियामवदत्तात कर्णः।
सभामथ्ये रूक्षमनेकरूपं
धिक्पाण्डवानपतिस्त्वं हि कृष्णे।।
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कच्चिद्भुवं शत्रुरयं महात्मा
ह्यधारयद्द्वादश यः समास्तु।
कर्णो व्रतं घोरममित्रसाहो
दुर्योधनस्यार्थनिविष्टबुद्धिः।।
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पादौ न धावे यावदहं न हन्मि
धनञ्जयं समरेषूग्रवेगम्।
कच्चिद्रणे फल्गुन तं निहत्य
कच्चिद्व्रतं तस्य भग्नं त्वयाऽद्य।।
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योऽसौ कृष्णामब्रवीद्दुष्टबुद्धिः
कर्णः सभायां कुरुवीरमध्ये।
किं पाण्डवांस्त्वं न जहासि कृष्णे
सुदुर्बलान्पतितान्हीनसत्वान्।।
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योऽसौ कर्णः प्रत्यजानात्त्वदर्थे
नाहं हत्वा सह कृष्णेन पार्थम्।
इहोपयातेति स पापबुद्धिः
कच्चिच्छेते शरसम्भिन्नगात्रः।।
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कच्चित्सङ्ग्रामो विदितो वै तवायं
समागमे सृञ्जय कौरवाणाम्।
येनावस्थामीदृशीं प्रापितोऽहं
कच्चित्त्वया सोऽद्य हतो दुरात्मा।।
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कच्चित्त्वया तस्य सुमन्दबुद्धे--
र्गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैर्ज्वलद्भिः।
सकुण्डलं भानुमदुत्तमाङ्गं
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यत्तन्मया बाणसमर्पितेन
ध्यातोऽसि कर्णस्य वधाय वीर।
तन्मे त्वया कच्चिदमोघमद्य
ध्यानं कृतं कर्णनिपातनेन।।
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यद्दर्पपूर्णः स सुयोधनोऽस्मा--
न्दिधक्षते कर्णसमाश्रयेण।
कच्चित्त्वया सोऽद्य समाश्रयोऽस्य
भग्नः पराक्रम्य सुयोधनस्य।।
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यो नः पुरा षण्ढतिलानवोच--
त्सभामध्ये कौरवाणां समक्षम्।
स दुर्मतिः कच्चिदुपेत्य सङ्ख्ये
त्वया हतः सूतपुत्रोऽत्यमर्षी।।
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यः प्राहिणोत्सूतपुत्रो दुरात्मा
कृष्णां जितां सौबलेहानयेति।
स मन्दबुद्धिर्निहतः प्रसह्य
वैकर्तनस्त्वद्य कच्चिन्महात्मन्।।
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यः शस्त्रभृच्छ्रेष्ठतमं पृथिव्यां
पितामहं व्याक्षिपदल्पचेताः।
सङ्ख्यायमानोऽर्धरथः स कच्चि--
त्त्वयां हतोऽद्याधिरथिर्महात्मन्।।
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अमर्षजं निकृतिसमीरणेरितं
हृदि स्थितं ज्वलनमिमं सदा मम।
हतो मया सोऽद्य समेत्य कर्ण
इति ब्रुवन्प्रशमयसेऽद्य फल्गुन।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे एकोनसप्ततितमोऽध्यायः।। 69 ।।

8-69-5 अरिष्टयोः शुभयोः।। 8-69-7 अनुज्ञातं अनुगृहीतम्।। 8-69-10 अनलानिलयोरिति क्रमात्तेजोबलाभ्याम्।। 8-69-13 अपसव्यः कृतश्चास्मि इति ख.घ.पाठः।। 8-69-17 नाहं तं सोढुमुत्सहे इति क.ङ.पाठः।। 8-69-19 कृष्णग्रीवो रक्तशिराः श्वेतपक्षो विहगमः। स वै वाध्रीणसः प्रोक्तो याज्ञिकैः पितृकर्मणीति प्राञ्चः। वाघ्रीणस इव द्विप इति झ.पाठः।। 8-69-26 यथा नः कुशलं तथा इति क.ङ.पाठः।। 8-69-38 विहङ्गैर्वाणैः।। 8-69-39 श्वाघते आत्मानमिति शेषः।। 8-69-47 बाणेभ्यः समर्पितेन कर्णबाणैरत्यन्तं प्रविद्धेनेत्यर्थः।। 8-69-69 एकोनसप्ततितमोऽध्यायः।।

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