महाभारतम्-08-कर्णपर्व-006

← कर्णपर्व-005 महाभारतम्
अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-006
वेदव्यासः
कर्णपर्व-007 →

कर्णवधश्रवणानन्तरीयकधृतराष्ट्रप्रवृत्तिं पृष्टेन वैशम्पायनेन कर्णदुर्योधनस्तुतिनिन्दापूर्वकं सञ्जयम्प्रति कर्णार्जुनयुद्धकथनचोदनारूपधृतराष्ट्रप्रवृत्तिकथनम्।। 1 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
सञ्जय उवाच। 8-6-1x
श्रिया कुलेन यशसा तपसा च श्रुतेन च।
त्वामद्य सन्तो मन्यन्ते ययातिमिव नाहुषम्।।
8-6-1a
8-6-1b
श्रुते महर्षिप्रतिमः कृतकृत्योऽसि पार्थिव।
पर्यवस्थापयात्मानं मा विषादे मनः कृथाः।।
8-6-2a
8-6-2b
धृतराष्ट्र उवाच। 8-6-3x
दैवमेव परं मन्ये धिक्पौरुषमनर्थकम्।
यत्र सालप्रतीकाशः कर्णोऽहन्यत संयुगे।।
8-6-3a
8-6-3b
हत्वा युधिष्ठिरानीकं पाञ्चालानां रथव्रजान्।
प्रताप्य शरवर्षेण दिशः सर्वा महारथः।।
8-6-4a
8-6-4b
मोहियित्वा रणे पार्थान्वज्नहस्त इवासुरान्।
स कथं निहतः शेते वायुरुग्ण इव द्रुमः।।
8-6-5a
8-6-5b
शोकस्यान्तं न पश्यामि पारं जलनिधेरिव।
चिन्ता मे वर्धतेऽतीव मुमूर्षा चापि जायते।।
8-6-6a
8-6-6b
कर्णस्य निधनं श्रुत्वा विजयं फल्गुनस्य च।
अश्रद्धेयमहं मन्ये वधं कर्णस्य सञ्जय।।
8-6-7a
8-6-7b
वज्रसारमिदं नूनं हृदयं दुर्भिदं मम।
यच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं हतं कर्णं न दीर्यते।।
8-6-8a
8-6-8b
आर्युर्नूनं सुदीर्घं मे विहितं दैवतैः पुरा।
यत्र कर्णं हतं श्रुत्वा जीवामीह सुदुःखितः।।
8-6-9a
8-6-9b
धिग्जीवितमिदं चैव सुहृद्वीनस्य सञ्जय।
अद्य चाहं दशामेतां गतः सञ्जय गर्हिताम्।
कृपणं वर्तयिष्यामि शोच्यः सर्वस्य मन्दधीः।।
8-6-10a
8-6-10b
8-6-10c
अहमेव पुरा भूत्वा सर्वलोकस्य सत्कृतः।
परिभूतः कथं सूत परैः शक्ष्यामि जीवितुम्।।
8-6-11a
8-6-11b
दुःखाद्दुःखतरं भन्ये प्राप्तवानस्मि सञ्जय।
भीष्मद्रोणवधेनैव कर्णस्य च महात्मनः।।
8-6-12a
8-6-12b
नावशेषं प्रपश्यामि सूतपुत्रे हते युधि।
सहि पारं महानासीत्पुत्राणां मम सञ्जय।।
8-6-13a
8-6-13b
युद्धे हि निहतः शूरो विसृजन्सायकान्बहून्।
को हि मे जीवितेनार्थस्तमृते पुरुषर्षभम्।।
8-6-14a
8-6-14b
रथादाधिरथिर्नूनं न्यपतत्सायकार्दितः।
पर्वतस्येव शिखरं व ज्रपाताद्विदारितम्।।
8-6-15a
8-6-15b
स शेते पृथिवीं नूनं शोभयन्रुधिरोक्षितः।
मातङ्ग इव मत्तेन मताङ्गेन निपातितः।।
8-6-16a
8-6-16b
यो बलं धार्तराष्ट्राणां पाण्डवानां यतो भयम्।
सोऽर्जुनेन हतः कर्णः प्रतिमानं धनुष्मताम्।।
8-6-17a
8-6-17b
स हि वीरो महेष्वासो मित्राणामभयङ्करः।
शेते विनिहतो वीरः शक्रेणेव पुरा बलः।।
8-6-18a
8-6-18b
पङ्गोरिवाध्वगमनं दरिद्रस्येव कामितम्।
दुर्योधनस्य लोभश्च समान्येतानि सञ्जय।।
8-6-19a
8-6-19b
अन्यथा चिन्तितं कार्यमन्यथा तत्तु जायते।
अहो नु बलवद्दैवं कालश्च दुरतिक्रमः।।
8-6-20a
8-6-20b
पलायमानः कृपणो दीनात्मा दीनपौरुषः।
कच्चिद्विनिहतः सूत पुत्रो दुःशासनो मम।।
8-6-21a
8-6-21b
कच्चिन्न दीनाचरितं कृतवांस्तात संयुगे।
कच्चिन्न निहतः शूरा यथाऽन्ये क्षत्रियर्षभाः।।
8-6-22a
8-6-22b
युधिष्ठिरस्य वचनं मा युद्धमिति सर्वदा।
दुर्योधनो नाभ्यगृह्णान्मूढः पथ्यमिवौषधम्।।
8-6-23a
8-6-23b
शतल्पे शयानेन भीष्मेण सुमहात्मना।
पानीयं याचितः पार्थः सोविध्यन्मेदिनीतलम्।।
8-6-24a
8-6-24b
जलस्य धारां जनितां दृष्ट्वा पाण्डुसुतेन च।
अब्रवीत्स महाबाहुस्तात संशाम्य पाण्डवैः।।
8-6-25a
8-6-25b
प्रशमाद्वि भवेच्छान्तिर्मदन्तं युद्धमस्तु वः।
भ्रातृभावेन पृथिवीं भुङ्क्ष्व पाण्डुसुतैः सह।।
8-6-26a
8-6-26b
अकुर्वन्वचनं तस्य नूनं शोचति पुत्रकः।
तदिदं समनुप्राप्त वचनं दीर्घदर्शिनः।।
8-6-27a
8-6-27b
अहं तु निहतामात्यो हतपुत्रश्च सञ्जय।
द्यूततः कृच्छ्रमापन्नो लूनपक्ष इव द्विजः।।
8-6-28a
8-6-28b
यथा हि शकुनिं गृह्य छित्त्वा पक्षौ च सञ्जय।
विसर्जयन्ति संहृष्टाः क्रीडमानाः कुमारकाः।।
8-6-29a
8-6-29b
लूनपक्षतया तस्य गमनं नोपपद्यते।
तथाहमपि सम्प्राप्तो लूनपक्ष इव द्विजः।।
8-6-30a
8-6-30b
क्षीणः सर्वार्थहीनश्च निर्ज्ञातिर्बन्धुवर्जितः।
कां दिशं प्रतिपत्स्यामि दीनः शत्रुवशं गतः।।
8-6-31a
8-6-31b
वैशम्पायन उवाच। 8-6-32x
इत्येवं धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः।
प्रोवाच सञ्जयं भूयः सोकव्याकुलमानसः।।
8-6-32a
8-6-32b
धृतराष्ट्र उवाच। 8-6-33x
योऽजयत्सर्वकाम्भोजानम्बष्ठान्कैकयैः सह।
गान्धारांश्च विदेहांश्च जित्वा कार्यार्थमाहवे।।
8-6-33a
8-6-33b
दुर्योधनस्य वृद्ध्यर्थं योऽजयत्पृथिवीं प्रभुः।
स जितः पाण्डवैः शूरैः समरे वाहुशालिभिः।।
8-6-34a
8-6-34b
तस्मिन्हते महेष्वासे कर्णे युधि किरीटिना।
के वीराः पर्यतिष्ठन्त तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।।
8-6-35a
8-6-35b
कच्चिन्नैकः परित्यक्तः पाण्डवैर्निहतो रणे।
उक्तं त्वया पुरा तात यथा वीरो निपातितः।।
8-6-36a
8-6-36b
भीष्ममप्रतियुध्यन्तं शिखम्डी सायकोत्तमैः।
पातयामास समरे सर्वशस्त्रभृतां वरम्।।
8-6-37a
8-6-37b
तथा द्रौपदिना द्रोणो न्यस्तसर्वायुधो युधि।
`धर्मराजवचः श्रुत्वा अश्वत्थामा हतस्त्विति'।।
8-6-38a
8-6-38b
युक्तयोगो महेष्वासः शरैर्बहुभिराचितः।
निहतः खङ्गमुद्यम्य धृष्टद्युम्नेन सञ्जय।।
8-6-39a
8-6-39b
अन्तरेण हतावेतौ छलेन च विशेषतः।
अश्रौषमहमेतद्वै भीष्मद्रोणौ निपातितौ।।
8-6-40a
8-6-40b
भीष्मद्रोणौ हि समरे न हन्याद्वज्रभृत्स्वयम्।
न्यायेन युध्यन्समरे तद्वै सत्यं ब्रवीमि ते।।
8-6-41a
8-6-41b
कर्णं त्वस्यन्तमस्त्राणि दिव्यानि च बहूनि च।
कथमिन्द्रोपमं वीरं मृत्युर्युद्वे समस्पृशत्।।
8-6-42a
8-6-42b
यस्य विद्युत्प्रभां शक्तिं दिव्यां कनकभूषणाम्।
प्रायच्छद्द्विषतां हन्त्रीं कुण्डलाभ्यां पुरन्दरः।।
8-6-43a
8-6-43b
यस्य सर्पमुखो दिव्यः शरः काञ्चनभूषणः।
अशेत निशितः पत्री समरेष्वरिसूदनः।।
8-6-44a
8-6-44b
भीष्मद्रोणमुखान्वीरान्योऽवमत्य महारथान्।
जामदग्न्यान्महाघोरं ब्राह्ममस्त्रमशिक्षत।।
8-6-45a
8-6-45b
यश्च द्रोणमुखान्दृष्ट्वा विमुखानर्दिताञ्शरैः।
सौभद्रस्य महाबाहुर्व्यधमत्कार्मुकं शितैः।।
8-6-46a
8-6-46b
यश्च नागायुतप्राणां वज्ररंहसमच्युतम्।
विरथं सहसा कृत्वा भीमसेनमपाहसत्।।
8-6-47a
8-6-47b
सहदेवं च निर्जित्य शरैः सन्नतपर्वभिः।
कृपया विरथं कृत्वा नाहनद्धर्मचिन्तया।।
8-6-48a
8-6-48b
यश्च मायासहस्राणि विकुर्वाणं जयैषिणम्।
घटोत्कचं राक्षसेन्द्रं शक्रशक्त्या निजघ्निवान्।।
8-6-49a
8-6-49b
एवांश्च दिवसान्यस्य युद्धे भीतो धनञ्जयः।
नागमद्द्वैरथं वीरः स कथं निहतो रणे।।
8-6-50a
8-6-50b
[संशप्तकानां योधा ये आह्वयन्त सदाऽन्यतः।
एतान्हत्वा हनिष्यामि पश्चाद्वैकर्तनं रणे।।
8-6-51a
8-6-51b
इति व्यपदिशन्पार्थो वर्जयन्सूतजं रणे।
स कथं निहतो वीरः पार्थेन परवीरहा।।]
8-6-52a
8-6-52b
रथभह्गो न चेत्तस्य धनुर्वा न व्यशीर्यत।
न चेदस्त्राणि नष्टानि स कथं निहतः परैः।।
8-6-53a
8-6-53b
को हि शक्तो रणे कर्णं विधुन्वानं महद्धनुः।
विमुञ्चन्तं शरान्घोरान्दिव्यान्यस्त्राणि चाहवे।
जेतुं पुरुषशार्दूलं शार्दूलमिव वेगिनम्।।
8-6-54a
8-6-54b
8-6-54c
ध्रवं तस्य धनुश्छिन्नं रथो वाऽपि महीं गतः।
अस्त्राणि वा प्रनष्टानि यथा शंससि मे हतम्।
न ह्यन्यदपि पश्यामि कारणं तस्य नाशने।।
8-6-55a
8-6-55b
8-6-55c
न हिन्मि फल्गुनं यावत्तावत्पादौ न धावये।
इति यस्य महाघोरं व्रतमासीन्महात्मनः।।
8-6-56a
8-6-56b
यस्य भीतो रमे निद्रां धर्मराजो युधिष्ठिरः।
त्रयोदशसमा नित्यं नाभजत्पुरुषर्षभः।।
8-6-57a
8-6-57b
यस्य वीर्यवतो वीर्यमुपाश्रित्य महात्मनः।
मम पुत्रः सभां भार्यां पाण्डूनां नीतवान्बलात्।।
8-6-58a
8-6-58b
तत्रापि च सभामध्ये पाण्डवानां च पश्यताम्।
दासभार्येति पाञ्चालीमब्रवीत्कुरुसन्निधौ।।
8-6-59a
8-6-59b
[न सन्ति तपयः कृष्णे सर्वे षण्डतिलैः समाः।
उपतिष्ठस्व भर्तारमन्यं वा वरवर्णिनि।।
8-6-60a
8-6-60b
इत्येवं यः पुरा वाचो रूक्षाः संश्रावयन्रुषा।
सभायां सूतजः कृष्णां स कथं निहतः परैः।।
8-6-61a
8-6-61b
यदि भीष्मो रणश्लाघी द्रोणो वा युधि दुर्मदः।
न हनिष्यति कौन्तेयान्पक्षपातात्सुयोधन।
सर्वानेव हनिष्यामि व्येतु ते मानसो ज्वरः।।
8-6-62a
8-6-62b
8-6-62c
किं करिष्यति गाण्डीवमक्षय्यौ च महेषुधी।
स्निग्धचन्दनदिग्धस्य मच्छरस्याभिधावतः।
स नूनमृषभस्कन्धो ह्यर्जुनेन कथं हतः।।]
8-6-63a
8-6-63b
8-6-63c
यश्च गाण्डीवमुक्तानां स्पर्शमुग्रमचिन्तयन्।
अपतिर्ह्यसि कृष्णेति ब्रुवन्पार्थानवैक्षत।।
8-6-64a
8-6-64b
यस्य नासीद्भयं पार्थात्सपुत्रात्सजनार्दनात्।
स्वबाहुबलमाश्रित्य मुहूर्तमपि सञ्जय।।
8-6-65a
8-6-65b
तस्य नाऽहं वधं मन्ये देवैरपि सवासवैः।
प्रतीपमभिघावद्भिः किं पुनस्तात पाण्डवैः।।
8-6-66a
8-6-66b
न हि ज्यां संसम्पृशानस्य तलत्रे वाऽपि गृह्णतः।
पुमानाधिरथेः स्थातुं कश्चित्प्रमुखतोऽर्हति।।
8-6-67a
8-6-67b
अपि स्यान्मेदिनी हीना सोमसूर्यप्रभांशुभिः।
न वध- पुरुषेन्द्रस्य संयुगेष्वपलायिनः।।
8-6-68a
8-6-68b
येन मन्दः सहायेन भ्रात्रा दुःशासनेन च।
वासुदेवस्य दुर्बुद्धिः प्रत्याख्यानमरोचत।।
8-6-69a
8-6-69b
स नूनं वृषभस्कन्धं कर्णं दृष्ट्वा निपातितम्।
दुःशासनं च निहतं मन्ये शोचति पुत्रकः।।
8-6-70a
8-6-70b
हतं वैकर्तनं दृष्ट्वा द्वैरथे सव्यसाचिना।
जयतः पाण्डवान्दृष्ट्वा किंस्विद्दुर्योधनोऽब्रवीत्।।
8-6-71a
8-6-71b
[दुर्मर्षणं हतं दृष्ट्वा वृषसेनं च संयुगे।
प्रभग्रं च बलं दृष्ट्वा वध्यमानं महारथैः।।
8-6-72a
8-6-72b
पराङ्मुखांश्च राज्ञस्तु पलायनपरायणान्।
विद्रुतान्रथिनो दृष्ट्वा मन्ये शोचति पुत्रकः।।
8-6-73a
8-6-73b
अनेयश्चाभिमानी च दुर्बुद्धिरजितेन्द्रियः।
हतोत्साहं बलं दृष्ट्वा किंस्विदुर्योधनोऽब्रवीत्।।
8-6-74a
8-6-74b
स्वयं वैरं महत्कृत्वा वार्यमाणः सुहृद्गणैः।
प्रधने हतभूयिष्ठैः किंस्विद्दुर्योधनोऽब्रवीत्।।
8-6-75a
8-6-75b
भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा भीमसेनेन संयुगे।
रुधिरे पीयमाने च किंस्विद्द्रुर्योधनोऽब्रवीत्।।]
8-6-76a
8-6-76b
सह गान्धारराजेन सभायां यदभाषत।
कर्णोऽर्जुनं रणे हन्ता हते तस्मिन्किमब्रवीत्।।
8-6-77a
8-6-77b
द्यूतं कृत्वा पुरा हृष्ठो वञ्चयित्वा च पाण्‍डवान्।
शकुनिः सौबलस्तात हते कर्णे किमब्रवीत्।।
8-6-78a
8-6-78b
कृतवर्मा महेष्वासः सात्वतानां महारथः।
हतं वैकर्तनं दृष्ट्वा हार्दिक्यः किमभाषत।।
8-6-79a
8-6-79b
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या यस्य शिक्षामुपासते।
धनुर्वेदं चिकीर्षन्तो द्रोणपुत्रस्य धीमतः।।
8-6-80a
8-6-80b
युवा रूपेण सम्पन्नो दर्शनीयो महायशाः।
अश्वत्थामा हते कर्णे किमभाषत सञ्जय।।
8-6-81a
8-6-81b
आचार्यो यो धनुर्वेदे गौतमो रथसत्तमः।
कृपः शारद्वतस्तात हते कर्णे किमब्रवीत्।।
8-6-82a
8-6-82b
मद्रराजो महेष्वासः शल्यः समितिशोभनः।
दृष्ट्वा विनिहतं कर्णं सारथ्ये रथिनां वरः।
किमभाषत सौवीरो मद्राणामधिपो बली।।
8-6-83a
8-6-83b
8-6-83c
दृष्ट्वा विनिहतं सर्वे योधा वारणदुर्जयाः।
ये च केन राजानः पृथिव्यां योद्वुमागताः।
वैकर्तनं हतं दृष्टवा कान्यभाषन्त सञ्जय।।
8-6-84a
8-6-84b
8-6-84c
द्रोणे तु निहते वीरे रथव्याघ्रे नरर्षभे।
के वा मुखमनीकानामासन्सञ्जय भागशः।।
8-6-85a
8-6-85b
मद्रराजः कथं शल्यो नियुक्तो रथिनां वरः।
वैकर्तनस्य सारथ्ये तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।।
8-6-86a
8-6-86b
केऽरक्षन्दक्षिणं चक्रं सूतपुत्रस्य युध्यतः।
वामं चक्रं ररक्षुर्वा के वा वीरस्य पृष्ठतः।।
8-6-87a
8-6-87b
के कर्णं न जहुः शूराः के क्षुद्राः प्राद्रवंस्ततः।
कथं च वः समेतानां हतः कर्णो महारथः।।
8-6-88a
8-6-88b
पाण्डवाश्च स्वयं शूराः प्रत्युदीयुर्महारथाः।
सृजन्तः शरवर्षाणि वारिधारा इवाम्बुदाः।।
8-6-89a
8-6-89b
स च सर्पमुखो दिव्यो महेषुप्रवरस्तदा।
व्यर्थः कथं समभवत्तन्ममाचक्ष्व स़ञ्जय।।
8-6-90a
8-6-90b
मामकस्यास्य सैन्यस्य हतोत्सेधस्य सञ्जय।
अवशेषं न पश्यामि ककुदे मृदिते सति।।
8-6-91a
8-6-91b
तौ हि वीरौ महेष्वासौ मदर्थे त्यक्तजीवीतौ।
भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा को न्वर्थो जीवितेन मे।।
8-6-92a
8-6-92b
पुनः पुनर्न मृष्यामि वधं कर्णस्य पाण्डवैः।
यस्य बाह्वोर्बलं तुल्यं कुञ्जराणां शतं शतम्।।
8-6-93a
8-6-93b
द्रोणे हते च यद्वृत्तं कौरवाणां परैः सह।
सङ्घामे नरवीराणां तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।।
8-6-94a
8-6-94b
यथा कर्णश्च कौन्तेयैः सह युद्धमयोजयत्।
तथा च द्विषतां हन्ता रणे शान्तस्तदुच्यताम्।।
8-6-95a
8-6-95b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि षष्ठोऽध्यायः।। 6 ।।

सम्पाद्यताम्

8-6-37 अप्रतियुध्यन्तं शिखण्डिना प्रतियुद्धगनङ्गीकुर्वाणम्।। 8-6-38 द्रौपदिना द्रुपदपुत्रेण धृष्टद्युम्नेन।। 8-6-40 फलेन च विशेषतः इति क.ङ.पाठः। बलेन च विशेषतः इति ख. पाठः।। 8-6-43 कुण्डलाभ्यां सकवचाभ्यां। तादर्थ्ये चतुर्थी।। 8-6-44 अशेत निहतः पत्री समरेष्वरिसूदनः इति ख.पाठः। अशेत निहतः पत्री चन्दनेष्वरिसूदनः इति झ.पाठः।। 8-6-53 रथसङ्गो न चेत्तस्य इति क.ड.पाठः। अहंकांरो न चेत्तस्य इति ख. पाठः।। 8-6-66 प्रातिभठ्येन अभिधावद्भिः सर्वदिग्भ्यः समागतैः।। 8-6-67 आधिरथेः अधिरथपुत्रस्य।। 8-6-68 सोमसूर्यमहाचर्यात्प्रकर्षेण भातीति योगाच्च प्रभो वह्निस्तेषां त्रयाणामंशुभिर्मुयूखैः।। 8-6-69 मन्दो दुर्योधनः।। 8-6-74 अनेय अशिक्षणीयः। यतोऽभिमानी विद्वत्त्वाभिमानी। एतएव दुर्बुद्धिः हितमजानन्।। 8-6-75 प्रधने रणे।। 8-6-84 कानि वाक्यानीति शेषः।। 8-6-89 प्रत्युदीयुः कथमिति शेषः।। 8-6-91 हतोत्सेधस्य विनष्टोत्कर्षस्या।। 8-6-6 षष्ठोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-005 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-007