महाभारतम्-08-कर्णपर्व-078
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द्वन्द्वयुद्धम्।। 1 ।।
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[धृतराष्ट्र उवाच। | 8-79-1x |
समागमे पाण्डवसृञ्जयानां महाभये मामकानामगाधे। धनञ्जये तात रणाय याते कर्णेन तद्युद्वमथोऽत्र कीदृक्।।] | 8-79-1a 8-79-1b 8-79-1c 8-79-1d |
सञ्जय उवाच। | 8-79-2x |
तेषामनीकानि महाध्वजानि रणे समृद्धानि सुसङ्गतानि। भेरीनिरादोन्मुखराण्यंगर्ज-- न्मेघा इव प्रावृषि मारुतास्ताः।। | 8-79-2a 8-79-2b 8-79-2c 8-79-2d |
महागजाभ्राकुलमस्त्रतोयं वादित्रनेमीतलशब्दवच्च। हिरण्यचित्रायुधविद्युतं च शरासिनाराचमहास्त्रधारम्।। | 8-79-3a 8-79-3b 8-79-3c 8-79-3d |
तद्भीमवेगं रुधिरौघवाहि खङ्गाकुलं क्षत्रियजीवघाति। अनार्तवं क्रूरमनिष्टवर्षं बभूव संरम्भकरं प्रजानाम्।। | 8-79-4a 8-79-4b 8-79-4c 8-79-4d |
एकं रथं सम्परिवार्य मृत्युं नयन्त्यनेके च रथाः समेताः। एकस्तथैकं रथिनं रथाग्र्यां-- स्तथा रथश्चापि रथाननेकान्।। | 8-79-5a 8-79-5b 8-79-5c 8-79-5d |
रथं ससूतं सहयं च कञ्चि-- त्कश्चिद्रती मृत्युवशं निनाय। निनाय चाप्येकगजेन कश्चि-- द्रथान्बहून्मृत्युवशे तथाश्वान्।। | 8-79-6a 8-79-6b 8-79-6c 8-79-6d |
रथान्ससूतान्सहयान्गजांश्च सर्वानरीन्मृत्युवशं शरौघैः। निन्ये हयांश्चैव तथा ससादी-- न्पदातिसङ्घांश्च तथैव पार्थः।। | 8-79-7a 8-79-7b 8-79-7c 8-79-7d |
कृपः शिखण्डी च रणे समेतौ दुर्योधनं सात्यकिरध्यगच्छत्। श्रुतश्रवा द्रोणपुत्रेण सार्धं युधामन्युश्चित्रसेनेन सार्धम्।। | 8-79-8a 8-79-8b 8-79-8c 8-79-8d |
कर्णस्य पुत्रं तु रथी सुषेणं समागतं सृञ्जयश्चोत्तमौजाः। गान्धारराजं सहदेवोऽक्षधूर्तं महर्षभं सिंह इवाभ्यधावत्।। | 8-79-9a 8-79-9b 8-79-9c 8-79-9d |
शतानीको नाकुलिः कर्णपुत्रं युवा युवानं वृषसेनं शरौघैः। समार्पयत्कर्णपुत्रश्च शूरः पाञ्चालेयं शरवर्षैरनेकैः।। | 8-79-10a 8-79-10b 8-79-10c 8-79-10d |
रथर्षभः कृतवर्माणभार्च्छ-- न्माद्रीपुत्रो नकुलश्चित्रयोधी। पाञ्चालानामधिपो याज्ञसेनिः सेनापतिः कर्णमार्च्छत्ससैन्यम्।। | 8-79-11a 8-79-11b 8-79-11c 8-79-11d |
दुःशासनो भारत भारतं तु व्यात्ताननं क्रूरमिवान्तकाभम्। भीमं रणे शस्त्रभृतां वरिष्ठं भीमं समार्च्छत्तमसह्यवेगम्।। | 8-79-12a 8-79-12b 8-79-12c 8-79-12d |
कर्णात्मजं तत्र जघान वीर-- स्तथाच्छिनच्चोत्तमौजाः प्रसह्य। तस्योत्तमाङ्गं निपपात भूमौ निनादयद्गां निनदेन खं च।। | 8-79-13a 8-79-13b 8-79-13c 8-79-13d |
सुषेणशीर्षं पतितं पृथिव्यां विलोक्य कर्णोऽथ तदार्तरूपः। क्रोधाद्धयांस्तस्य रथं ध्वजं च बाणैः सुधारैर्निशितैरकृन्तत्।। | 8-79-14a 8-79-14b 8-79-14c 8-79-14d |
स तूत्तमौजा निशितैः पृषत्कै-- र्विव्याध खङ्गेन च भास्वरेण। पार्ष्णिग्रहांश्चैव कृपस्य हत्वा शिखण्डिवाहं स ततोऽध्यरोहत्।। | 8-79-15a 8-79-15b 8-79-15c 8-79-15d |
कृपं तु दृष्ट्वा विरथं रथस्थो नैच्छच्छरैस्ताडयितुं शिखण्डी। तं द्रौणिरावार्य रथं कृपस्य समुज्जहे पङ्कगतां यथा गाम्।। | 8-79-16a 8-79-16b 8-79-16c 8-79-16d |
हिरण्यवर्मा निशितैः पृषत्कै-- स्तवात्मजानामनिलात्मजो वै। अतापयत्सैन्यमतीव भीमः काले शुचौ मध्यगतो यथाऽर्कः।। | 8-79-17a 8-79-17b 8-79-17c 8-79-17d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे एकोनाशीतितमोऽध्यायः।। 79 ।। |
8-79-10 पाञ्चालेयं पाञ्चालीतनयं नाकुलिम्।। 8-79-79 एकोनाशीतितमोऽध्यायः।।
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