महाभारतम्-08-कर्णपर्व-036

← कर्णपर्व-035 महाभारतम्
अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-036
वेदव्यासः
कर्णपर्व-037 →

कर्णेन शल्यम्प्रति स्वस्य परशुरामात् तथा कुतश्चिद्ब्राह्मणाच्च शापप्राप्तिकथनम्।। 1 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
सञ्जय उवाच। 8-36-1x
मद्राधिपस्याधिरथिर्महात्मा
वचो निशम्याप्रियमप्रतीतः।
उवाच शल्यं विदितं ममैत--
द्यथाविधावर्जुनवासुदेवौ।।
8-36-1a
8-36-1b
8-36-1c
8-36-1d
शौरे रथं वाहयतोऽर्जुनस्य
बलं महास्त्राणि च पाण्डवस्य।
अहं विजानामि यथावदद्य
परोक्षभूतं तव तत्तु शल्य।।
8-36-2a
8-36-2b
8-36-2c
8-36-2d
तौ चाप्यहं शस्त्रभृतां वरिष्ठौ
व्यपेतभीर्योधयिष्यामि कृष्णौ।
सन्तापयत्यभ्यधिकं हि रामा--
च्छापोऽद्य मां ब्राह्मणसत्तमाच्च।।
8-36-3a
8-36-3b
8-36-3c
8-36-3d
`पुरा महेन्द्राद्रिवरे समुद्रे
तपस्विनं राममुपेत्य शल्य।
अस्त्रार्थिनं माऽद्य शिष्यं गृहाणे--
त्यथाऽब्रुवं ब्राह्मणच्छद्मना च।।
8-36-4a
8-36-4b
8-36-4c
8-36-4d
तत्रावसं ब्राह्मण इत्यविप्रो
ब्रह्मास्त्रलोभादनृतेन चाहम्।
तज्जामदग्न्येन परं महास्त्रं
समन्त्रयुक्तं विहितं ममासीत्।।
8-36-5a
8-36-5b
8-36-5c
8-36-5d
अस्त्रं यदा तद्विदितं ममासी--
त्तदाऽब्रवीद्ब्राह्मणो मां महर्षिः।
आपद्गतेनास्त्रमिदं प्रयोज्यं
त्वया रणे गच्छता साधयेति'।।
8-36-6a
8-36-6b
8-36-6c
8-36-6d
तत्रापि मे देवराजेन विघ्नो
हितार्थिना फल्गुनस्यैव शल्य।
कृतो विभेदेन ममोरुमेत्य
प्रविश्य कीटस्य तनुं विरूपाम्।।
8-36-7a
8-36-7b
8-36-7c
8-36-7d
ममोरुमेत्य प्रबिभेद कीटः
सुप्ते गुरौ तत्र शिरो निधाय।
ऊरुप्रभेदाच्च महान्बभूव
शरीरतो मे घनशोणितौघः।।
8-36-8a
8-36-8b
8-36-8c
8-36-8d
गुरोर्भयाच्चापि न चेलिवानहं
ततो विबुद्धो ददृशे स विप्रः।
स धैर्ययुक्तं प्रसमीक्ष्य मां वै
न त्वं विप्रः कोऽसि सत्यं वदेति।।
8-36-9a
8-36-9b
8-36-9c
8-36-9d
तस्मै तदाऽऽत्मानमहं यथाव--
दाख्यातवान्सूत इत्येव शल्य।
स मां निशाम्याथ महातपस्वी
संशप्तवान्रोषपरीतचेताः।।
8-36-10a
8-36-10b
8-36-10c
8-36-10d
सूत त्वया ह्याप्तमिदं तवास्त्रं
न कर्मकाले प्रतिभास्यतीति।
अन्यत्र तु स्यात्तव मृत्युकाला--
दब्राह्मणे ब्रह्म न हि ध्रुवं स्यात्।।
8-36-11a
8-36-11b
8-36-11c
8-36-11d
तदद्य पर्याप्तमतीव मेऽस्त्र--
मुपस्थितेऽस्मिंस्तुमुले विमर्दे।।
8-36-12a
8-36-12b
शल्योग्रधन्वानमहं वरिष्ठं
तरस्विनं भीममसह्यवीर्यम्।
सत्यप्रतिज्ञं युधि पाण्डवेयं
धनञ्जयं मृत्युमुखं नयिष्ये।।
8-36-13a
8-36-13b
8-36-13c
8-36-13d
धनञ्जयं संयुगेऽहं हनिष्ये।। 8-36-14f
अपांपतिर्वेगवानप्रमेयो
निमज्जयिष्यन्बहुलाः प्रजा इव।
महारवं यः कुरुते समुद्रो
वेलेव तं वारयाम्यप्रमेयम्।।
8-36-15a
8-36-15b
8-36-15c
8-36-15d
प्रमुञ्चन्तं बाणसङ्घानमेया--
न्मर्मच्छिदो वीरहणः सुपत्रान्।
कुन्तीपुत्रं प्रतियोत्स्यामि युद्धे
ज्यां कर्षतामुत्तमं मर्त्यलोके।।
8-36-16a
8-36-16b
8-36-16c
8-36-16d
एवं बलेनातिबलं महास्त्रं
समुद्रकल्पं सुदुरापमुग्रम्।
शरौघिणं पार्थिवान्मज्जयन्तं
वेलेव पार्थमिषुभिर्वारयिष्ये।।
8-36-17a
8-36-17b
8-36-17c
8-36-17d
कृती कृतास्त्रो दृढहस्तयोधी
दिव्यास्त्रविच्छ्वेतहयः प्रमाथी।
सुरासुरान्युधि वै यो जयेत
तेनाद्य मे पश्य युद्वं सुघोरम्।।
8-36-18a
8-36-18b
8-36-18c
8-36-18d
अभीर्मानी पाण्डवो युद्वकामो
ह्यमानुषैरस्यति मां महास्त्रैः।
तस्यास्त्रमस्त्रैरभिभूय सङ्ख्ये
बाणोत्तमैः पातयिष्यामि पार्थम्।।
8-36-19a
8-36-19b
8-36-19c
8-36-19d
सहस्ररश्मिप्रतिमं ज्वलन्तं
दिशश्च सर्वाः प्रतपन्तमुग्रम्।
तमोनुदं मेघ इवातिमात्रं
धनञ्जयं छादयिष्यामि बाणैः।।
8-36-20a
8-36-20b
8-36-20c
8-36-20d
वैश्वानरं धूमकेतुं ज्वलन्तं
तेजस्विनं नरवीरान्दहन्तम्।
पर्जन्यभूतः शरवर्षैर्यथाऽग्निं
तथा पार्थं शमयिष्यामि युद्धे।।
8-36-21a
8-36-21b
8-36-21c
8-36-21d
आशीविषं दृष्टिहणं सुघोरं
सुतीक्ष्णदंष्ट्रं ज्वलनप्रभवाम्।
क्रोधात्प्रदीप्तानलवद्दहन्तं
कुन्तीपुत्रं शमयिष्यामि भल्लैः।।
8-36-22a
8-36-22b
8-36-22c
8-36-22d
प्रवाहिणं बलवन्तं महौजसं
प्रभञ्जनं मातरिश्वानमुग्रम्।
युद्धे सहिष्ये हिमवानिवाचलो
धनञ्जयं क्रुद्धममृष्यमाणम्।
8-36-23a
8-36-23b
8-36-23c
8-36-23d
विशारदं रथमार्गेषु शक्तं
धुर्यं नित्यं समरेषु प्रवीरम्।
लोके वरं सर्वधनुर्धराणां
धनञ्जयं संयुगेऽहं हनिष्ये।।
8-36-24a
8-36-24b
8-36-24c
8-36-24d
अद्याहवे यस्य न तुल्यमन्यं
मन्ये मनुष्यं धनुराददानम्।
सर्वामिमां यः पृथिवीं सहेत
तथापि तेनाद्य रणे समेष्ये।।
8-36-25a
8-36-25b
8-36-25c
8-36-25d
यः सर्वभूतानि सदैवतानि
प्रस्थेऽजयत्खाण्डवे सव्यसाची
को जीवितं रक्षमाणो हि तेन
युयुत्सतेऽस्त्रैर्मानुषो मामृतेऽन्यः।।
8-36-26a
8-36-26b
8-36-26c
8-36-26d
मानी कृतास्त्रः कृतहस्तयोधी
दिव्यास्त्रविच्छ्वेतहयः प्रमाथी।
तस्याहमद्यातिरथस्य काया--
च्छिरो हरिष्यामि शितैः पृषत्कैः।
8-36-27a
8-36-27b
8-36-27c
8-36-27d
योत्स्याम्येनं शल्य धनञ्जयं वै
मृत्युं पुरस्कृत्य रणे जयं वा।
अन्यो हि न ह्येकरथेन मर्त्यो
युध्येत यः पाण्डवमिन्द्रकल्पम्
8-36-28a
8-36-28b
8-36-28c
8-36-28d
तस्याहवे पौरुषं पाण्डवस्य
ब्रूयां पृष्टः समितौ क्षत्रियाणाम्
किं त्वं मूर्खः प्रहसन्मूढचेता
आख्यासि मे पौरुषं फल्गुनस्य।।
8-36-29a
8-36-29b
8-36-29c
8-36-29d
अत्यप्रियो यः पुरुषो निष्ठुरो हि
क्षुद्रः क्षेप्ता क्षमिणश्चाक्षमावान्।
हन्यामहं त्वादृशानां शतानि
क्षमाम्यहं क्षमिणां काल एषः।।
8-36-30a
8-36-30b
8-36-30c
8-36-30d
अवोचस्त्वं पाण्डवार्ये प्रियाणि
प्रधर्षयन्मां मूढवत्पापकर्मन्।
मय्यार्जवे जिह्ममतिर्यतस्त्वं
मित्रद्रोही साप्तपदं हि मित्रम्।।
8-36-31a
8-36-31b
8-36-31c
8-36-31d
कालस्त्वयं प्रत्युपयाति दारुणो
दुर्योधनो युद्धमुपागमद्यत्।
तस्यार्थसिद्धिं त्वभिकाङ्क्षमाण--
स्तमन्वेष्ये यत्र चैकान्तमस्ति।।
8-36-32a
8-36-32b
8-36-32c
8-36-32d
`तथाप्यहं पाण्डववासुदेवौ
योत्स्ये रणे मद्विधस्यैव कर्म।
न प्राकृतः सज्जते वै कदाचि--
द्यः प्रत्युदीयात्कृष्णधनञ्जयौ तौ'।।
8-36-33a
8-36-33b
8-36-33c
8-36-33d
मित्रं मिन्देर्नन्दतेः प्रीयतेर्वा
सन्त्रायतेर्मिनुतेर्मोदतेर्वा।
दुर्योधने सर्वमिदं ममास्ति
तच्चापि सर्वं मम वेत्ति राजा।।
8-36-34a
8-36-34b
8-36-34c
8-36-34d
शत्रुः शदेः शासतेर्वा श्यतेर्वा
शृणातेर्वा श्वसतेः सीदतेर्वा।
श्रमेः शुचो बहुशः सूदतेश्च
प्रायेण सर्वं त्वयि तच्च मह्यम्।।
8-36-35a
8-36-35b
8-36-35c
8-36-35d
दुर्योधनार्थं तव च प्रियार्थं
यशोर्थमात्मार्थमपीश्वरार्थम्।
तस्मादहं पाण्डववासुदेवौ
योत्स्ये यत्नात्कर्म च पश्य मेऽद्य।।
8-36-36a
8-36-36b
8-36-36c
8-36-36d
`शल्याद्याहं सङ्गतः पाण्डवेन
मुच्येयं चेज्जीवमानः कथञ्चित्।
शश्वन्मृत्योः स्यामनाधृष्यरूपो
व्यक्तं तस्मात्संयुगाद्विप्रमुक्ताः'।।
8-36-37a
8-36-37b
8-36-37c
8-36-37d
अस्त्रं ब्राह्मं मनसा सञ्जपन्वै
यदाऽस्यते क्रोधितः सव्यसाची।
तदापि मे नैव मुच्येत पार्थो
न चेत्पतेद्विषमे मेऽद्य चक्रम्।।
8-36-38a
8-36-38b
8-36-38c
8-36-38d
अस्त्राणि विद्ध्वा समरे गतानि
ब्राह्माणि दिव्यान्यथ मानुषाणि।
आसादयिष्याम्यहमुग्रवीर्यं
नागोत्तमं नाग इव प्रभिन्नः।।
8-36-39a
8-36-39b
8-36-39c
8-36-39d
वैवस्वताद्दण्डहस्ताद्वरुणाद्वापि पाशिनः।
सगदाद्वा धनपतेः सवज्राद्वा सुराधिपात्।।
8-36-40a
8-36-40b
अथान्यस्मादपि सुरादमित्रादाततायिनः।
इति शल्य विजानीहि यथा नाहं बिभेम्युत।।
8-36-41a
8-36-41b
तस्मान्न मे भयं पार्थान्नापि चैव जनार्दनात्।
सह युद्धं हि मे ताभ्यां साम्पराये भविष्यति।।
8-36-42a
8-36-42b
श्वभ्रे ते पततां चक्रमिति मां ब्राह्मणोऽब्रवीत्।
युध्यमानस्य सङ्ग्रामे प्राप्तस्यैकायनं भयम्।।
8-36-43a
8-36-43b
तस्माद्बिभेमि बलवद्ब्राह्मणव्याहृतादहम्।
एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः।।
8-36-44a
8-36-44b
कदाचिब्राह्मणस्याथ योग्यहेतेरहं नृप।
अजानन्नक्षिपं बाणं घोररूपं भयावहम्।।
8-36-45a
8-36-45b
होमधेन्वास्ततो वत्सः प्रमत्त इषुणा हतः।
चरन्वै विजने शल्य ततोऽनु व्याजहार सः।।
8-36-46a
8-36-46b
यस्माद्वत्सस्त्वया चात्र होमधेन्वा हतो नृप।
तस्मात्त्वमपि राधेय वाक्शल्यं महदाप्नुहि।।
8-36-47a
8-36-47b
श्वभ्रे ते पतिता चक्रं युध्यमानस्य शत्रुणा।
प्राप्त एकायने काले मृत्युसाधारणे त्वयि।।
8-36-48a
8-36-48b
स्पर्धसे येन सङ्ग्रामे यदर्थं घटसेऽनिशम्।
तत एव ध्रुवं मृत्युं सूत प्राप्स्यसि संयुगे।।
8-36-49a
8-36-49b
अहं प्रसादयाञ्चक्रे ब्राह्मणं संशितव्रतम्।। 8-36-50a
गवां दशशतं वित्तं बलीवर्दांश्च षट्‌शतम्।
प्रच्छन्नं काञ्चनैः कामं ब्राह्मणार्थमहं तदा।।
8-36-51a
8-36-51b
दासीशतं निष्ककण्ठं शतमश्वतरीरथान्।
कन्यानां निष्ककण्ठीनां सहस्रं समलंकृतम्।।
8-36-52a
8-36-52b
ईषादन्तान्नागशतान्दासीदासशतानि च।
दद्मि तैर्द्विजमुख्यो मे प्रसादं न चकार सः।।
8-36-53a
8-36-53b
कृष्णानां श्वेतवत्सानां गोशतानि चतुर्दश।
ददन्हि न लभे तस्मात्प्रसादं द्विजसत्तमात्।।
8-36-54a
8-36-54b
यत्किञ्चिन्मामकं वित्तं त्वदधीनं करोमि तत्।
इति मां याचमानं वै ब्राह्मणः प्रत्यवारयत्।
क्रोधदीप्तेक्षणः शळ्य निर्दहन्निव चक्षुषा।।
8-36-55a
8-36-55b
8-36-55c
व्याहृतं यन्मया सूत तत्तथा न तदन्यथा।
अनृतोक्तं प्रजां हन्यात्ततः पापमवाप्नुयाम्।।
8-36-56a
8-36-56b
तस्माद्धर्माभिरक्षार्थं नानृतं वक्तुमुत्सहे।
मा त्वं ब्रह्मगतिं हिंस्याः प्रायश्चित्तं कृतं त्वया।।
8-36-57a
8-36-57b
मद्वाक्यं नानृतं लोके कश्चित्कुर्यात्समाप्नुहि।
`यन्मयोक्तं सरोषेण गच्छ सूतज माचिरम्।।
8-36-58a
8-36-58b
इति मामसकृत्क्रुद्धः स उवाच द्बिजोत्तमः।
एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः।।
8-36-59a
8-36-59b
नाहं बिभेमि बीभत्सोर्न शल्य मधुसूदनाम्।
तस्माद्बिभेम्यहं शापात्तेन सत्येन ते शपे।।
8-36-60a
8-36-60b
सह युद्धं समेताभ्यामद्येदं समुपस्थितम्।
युद्वेऽस्मिञ्जीवितं मेऽद्य शल्य संशयमागतम्।।
8-36-61a
8-36-61b
शक्रोऽप्यमरराट् ताभ्यामुपगम्याहवं सह।
संशयं परमं गच्छेत्कथं वा मन्यते भवान्।।
8-36-62a
8-36-62b
इत्येवं ते मयाऽऽख्यातं क्षिप्तेन न सुहृत्तया।
जानामि त्वाऽधिक्षिपन्तं दोषमात्मगतं शृणु'।।
8-36-63a
8-36-63b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
षट्‌तत्रिंशोऽध्यायः।। 36 ।।

8-36-9 चेलिवान् चलितवान्।। 8-36-11 कर्मकाले स्वप्रतिज्ञारक्षणकाले।। 8-36-14 अस्त्रं ततौ रामदत्तादस्त्रादन्यत्प्रतिपन्नं प्राप्त अहिबाणाख्य मित्यर्थः।। 8-36-24 रथमार्गेष्यसक्तं इति ट.पाठः। रथमार्गेष्वनित्यं इति ख.पाठः।। 8-36-26 खाण्डवे खाण्डxxxxx 8-36-31 आर्जवे कर्तव्ये सति।। 8-36-34 अहं सिद्धिं काङ्क्षमाणोऽस्मि। त्वं तु तन्मन्यसे यत्र ऐकान्त्यं सख्यां नास्ति। अस्मत्पक्षीयोप्यन्यतत्र स्नोहवानसीत्यर्थः। तदेवाह मित्रमिति। मिन्दयति मेदयति वा स्नेहार्थान्मिन्देर्मिदेर्वा मित्रमिति रूपम्। नन्दतेरित्यतत्र मदतेरिति पाठः। मदी हर्षे इत्यस्य वा रूपम्। मादयनि तर्पयतीति वा मादयतेर्मित्रम्। मिदतेस्त्राणार्थस्य वा मिदेरिदं रूपम्। नन्दयतेः प्रीयतेः संन्त्रायततेर्वाऽर्थे वर्तमानस्य मिदेर्मित्रमिति वार्थः। मिनुते मानं करोति सर्वे हितमस्य सङ्गृह्णातीति वा मोदतेऽस्य सुखेनेति वा मित्रमित्येतेऽर्थाः मयि सन्तीत्यर्थः।। 8-36-35 शत्रुरिति शदेः शातनार्थात् शास्तेः शासनार्थात् श्यतेस्तनूकरणार्थात् शृणातेर्हिसार्थात् श्वसतेरुच्छ्वासार्थादन्तर्भावितण्यर्थात् सीदतेः सूदतेर्वा दन्त्यस्थाने तालव्यस्योपसर्जनात् शत्रुरिति शब्द उतत्पन्नस्तदर्थश्च सर्वस्त्वय्यस्तीत्यर्थः।। 8-36-44 सोमराजान ब्राह्मणाः।। 8-36-57 मा त्वं ब्राह्मणगर्हः स्याः इति क.पाठः।। 8-36-58 तदनुव्याहृतं कुर्यात्सर्वलोकेपि सूतज इति ख.पाठः। नैतत्ते व्याहृतं कुर्यां सममेकोऽपि सूततज इति क.ड.पाठः। नैतदव्याहतं कुर्यात्सर्वलोकोऽपि सूतज इति ट.पाठः।। 8-36-36 षट्‌त्रिंशोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-035 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-037