महाभारतम्-08-कर्णपर्व-083
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पार्थचोदनया कृष्णेन कर्णसमीपम्प्रति रथप्रापणम्।। 1 ।।
शल्येन कर्णप्रोत्साहनम्।। 2 ।।
कर्णेन पार्थप्रशंसनपूर्वकं तद्वधप्रतिज्ञा।। 3 ।।
सङ्कुलयुद्धम्।। 4 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-83-1x |
हत्वा तु फल्गुनः सेनां कौरवाणां पृथक्पृथक्। सूतपुत्रस्य संरम्भं दृष्ट्वा चैव महारणे।। | 8-83-1a 8-83-1b |
शोणितोदां नदीं कृत्वा मांसमज्जास्थिपङ्किलाम्। मनुष्यशीर्षपाषाणां हस्त्यश्वकृतरोधसम्।। | 8-83-2a 8-83-2b |
शूरास्थित्तयसङ्कीर्णां काकगृध्रानुनादिताम्। छत्रहंसप्लुवोपेतां वीरवृक्षापहारिणीम्।। | 8-83-3a 8-83-3b |
हारपद्माकरवतीमुष्णीषवरफेनिलाम्। धनुःशरध्वजोपेतां नरक्षुद्रकपालिनीम्।। | 8-83-4a 8-83-4b |
चर्मवर्मभ्रमोपेतां रथोडुपसमाकुलाम्। जयैषिणां च सुतरां भीरूणां च सुदुस्तराम्।। | 8-83-5a 8-83-5b |
नदीं प्रावर्तयित्वा च बीभत्सुः परवीरहा। वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत्पुरुषर्षभः।। | 8-83-6a 8-83-6b |
अर्जुन उवाच। | 8-83-7x |
एष केतू रणे कृष्ण सूतपुत्रस्य दृश्यते। भीमसेनादयश्चैते योधयन्ति महारथम्।। | 8-83-7a 8-83-7b |
एते द्रवन्ति पाञ्चालाः कर्मत्रस्ता जनार्दन। एष दुर्योधनो राजा श्वेतच्छत्रेण धार्यते।। | 8-83-8a 8-83-8b |
कर्णेन भग्नान्पाञ्चालान्द्रावयन्बहु शोभते। कृपश्च कृतवर्मा च द्रौणिश्चैव महारथः।। | 8-83-9a 8-83-9b |
एते रक्षन्ति राजानं सूतपुत्रेण रक्षिताः। अवध्यमानास्तेऽस्माभिर्योधयिष्यन्ति सोमकान्।। | 8-83-10a 8-83-10b |
एष शल्यो रथोपस्थे रश्मिसङ्ग्राहकोविदः। सूतपुत्ररथं कृष्ण वाहयन्बहु शोभते।। | 8-83-11a 8-83-11b |
तत्र मे बुद्धिरुत्पन्ना वाहयात्र रथं मम। नाहत्वा समरे कर्णं निवर्तिष्ये कथञ्चन।। | 8-83-12a 8-83-12b |
मा स्म कर्णो रणे पार्थान्सृञ्जयांश्च महारथान्। निःशेषान्समरे कुर्यात्पश्यतां नो जनार्दन।। | 8-83-13a 8-83-13b |
सञ्जय उवाच। | 8-83-14x |
ततः प्रायाज्जवेनाशु केशवस्तव वाहिनीम्। कर्णं प्रति महेष्वासं द्वैरथे सव्यसाचिनः।। | 8-83-14a 8-83-14b |
स प्रयातो रथेनाशु कृष्णो राजन्महाहवे। आश्वासयन्रणे चाशु पाण्डुसैन्यानि सर्वशः।। | 8-83-15a 8-83-15b |
रथघोषस्ततस्तस्य पाण्डवस्य बभूव ह। वासवास्त्रनिपातेन पर्वतेष्विव मारिष।। | 8-83-16a 8-83-16b |
महता रथघोषेण पाण्डवः सत्यविक्रमः। अभ्ययादप्रमेयात्मा निर्जयंस्तव वाहिनीम्।। | 8-83-17a 8-83-17b |
तमायान्तं समीक्ष्यैव श्वेताश्वं कृष्णसारथिम्। मद्रराजोऽब्रवीत्कर्णं केतुं दृष्ट्वा महात्मनः।। | 8-83-18a 8-83-18b |
अयं स रथ आयाति श्वेताश्वः कृष्णसारथिः। निघ्नन्नमित्रान्समरे यं कर्ण परिपृच्छसि।। | 8-83-19a 8-83-19b |
एष तिष्ठति कौन्तेयः संस्पृशन्गाण्डिवं धनुः। तं हनिष्यसि चेदद्य तन्नः श्रेयो भविष्यति।। | 8-83-20a 8-83-20b |
धनुर्ज्या चन्द्रताराङ्का पताकाकिङ्किणीयुता। पश्य कर्णार्जुनस्यैषा सौदामन्यम्बरे यथा।। | 8-83-21a 8-83-21b |
एष ध्वजाग्रे पार्थस्य प्रेक्षमाणः समन्ततः। दृश्यते वानरो भीमो वीक्षतां भयवर्धनः।। | 8-83-22a 8-83-22b |
एतच्चक्रं गदा शङ्खः शार्ङ्गं कृष्णस्य च प्रभो। दृश्यते पाण्डवरथे वाहयानस्य वाजिनः।। | 8-83-23a 8-83-23b |
एतत्कूजति गाण्डीवं विसृष्टं सव्यसाचिना। एते हस्तवता मुक्ता घ्नन्त्यमित्राञ्शिताः शराः।। | 8-83-24a 8-83-24b |
विशालायतताम्राक्षैः पूर्णचन्द्रनिभाननैः। एषा भूः कीर्यते राज्ञां शिरोभिरपलायिनाम्।। | 8-83-25a 8-83-25b |
एते परिघसङ्काशाः पुण्यगन्धानुलेपनाः। उद्धता रणशूराणां पात्यन्ते सायुधा भुजाः।। | 8-83-26a 8-83-26b |
निरस्तजिह्वा नेत्रान्ता वाजिनः सह सादिभिः। पतिताः पात्यमानाश्च क्षितौ क्षीणा विशेरते।। | 8-83-27a 8-83-27b |
एते पर्वतशृङ्गाणां तुल्या हैमवता गजाः। सञ्छिन्नकुम्भाः पार्थेन प्रपतन्त्यद्रयो यथा।। | 8-83-28a 8-83-28b |
गन्धर्वनगराकारा रथा हतनरेश्वराः। विमानादिव पुण्यान्ते स्वर्गिणो निपतन्त्यमी।। | 8-83-29a 8-83-29b |
व्याकुलीकृतमत्यर्थं पश्य सैन्यं किरीटिना। नानामृगसहस्राणां यूथं केसरिणा यथा।। | 8-83-30a 8-83-30b |
त्वामभिप्रेप्सुरायाति कर्ण निघ्नन्वरान्रथान्। असज्जमानो राधेय तं याहि प्रति भारत।। | 8-83-31a 8-83-31b |
एषा विदीर्यते सेना धार्तराष्ट्री समन्ततः। अर्जुनस्य भयात्तूर्णं निघ्नतः शात्रवान्बहून्।। | 8-83-32a 8-83-32b |
वर्जयन्सर्वसैन्यानि त्वरते हि धनञ्जयः। त्वदर्थमिति मन्येऽहं यथास्योदीर्यते वपुः।। | 8-83-33a 8-83-33b |
न ह्यवस्थास्यते पार्थो युयुत्सुः केनचित्सह। त्वामृते क्रोधदीप्तो हि पीड्यमाने वृकोदरे।। | 8-83-34a 8-83-34b |
विरथं धर्मराजं तु दृष्ट्वा सुदृढविक्षतम्। शिखण्डिनं सात्यकिं च धृष्टद्युम्नं च पार्षतम्।। | 8-83-35a 8-83-35b |
द्रौपदेयान्युधामन्युमुत्तमौजसमेव च। नकुलं सहदेवं च वशगांस्ते समीक्ष्य तु।। | 8-83-36a 8-83-36b |
सहसैकरथः पार्थस्त्वामभ्येति परन्तपः। क्रोधरक्तेक्षणः क्रुद्धो जिघांसुः सर्वपार्थिवान्।। | 8-83-37a 8-83-37b |
त्वरितोऽभिपतत्यस्मांस्त्यक्त्वा सैन्यान्यसंशयम्। त्वं कर्ण प्रतियाह्येनं नास्त्यन्यो हि धनुर्धरः।। | 8-83-38a 8-83-38b |
न तं पश्यामि लोकेऽस्मिंस्त्वत्तो ह्यन्यं धनुर्धरम्। अर्जुनं समरे क्रुद्धं यो वेलामिव वारयेत्।। | 8-83-39a 8-83-39b |
न चास्य रक्षां पश्यामि पार्श्वतो न च पृष्ठतः। एक एवाभियाति त्वां पश्य साफल्यमात्मनः।। | 8-83-40a 8-83-40b |
त्वं हि कृष्णौ रणे शक्तो योद्धुमेतौ परन्तपौ। तवैव भारो राधेय प्रत्युद्याहि धनञ्जयम्।। | 8-83-41a 8-83-41b |
समानो ह्यसि भीष्मेण द्रोमद्रौणिकृपेण च। सव्यसाचिनमायान्तं निवारय महारणे।। | 8-83-42a 8-83-42b |
लेलिहानं यथा सर्पं गर्जन्तमृषभं यथा। वनस्थितं यथा व्याघ्रं जहि कर्ण धनञ्जयम्।। | 8-83-43a 8-83-43b |
एते द्रवन्ति समरान्निरपेक्षा नराधिपाः। अर्जुनस्य भयत्रस्ता धार्तराष्ट्रा महाबलाः।। | 8-83-44a 8-83-44b |
द्रवतामथ तेषां तु नान्योऽस्ति युधि मानवः। भयहा यो भवेद्वीरस्त्वामृते सूतनन्दन।। | 8-83-45a 8-83-45b |
एते त्वां कुरवः सर्वे द्वीपमासाद्य संयुगे। धिष्ठिताः पुरुषव्याघ्र त्वत्तः शरणकाङ्क्षिणः।। | 8-83-46a 8-83-46b |
वैदेहाम्बष्ठकाम्भोजास्तथा नग्नजितस्त्वया। गान्धाराश्च यया धृत्या जिताः सङ्ख्ये सुदुर्जयाः। तां धृतिं कुरुराधेय ततः प्रत्येहि पाण्डवम्।। | 8-83-47a 8-83-47b 8-83-47c |
वासुदेवं च वार्ष्णेयं प्रीयमाणं किरीटिना। प्रत्युद्याहि महाबाहो पौरुषे महति स्थितः।। | 8-83-48a 8-83-48b |
कर्ण उवाच। | 8-83-49x |
प्रकृतिस्थोऽसि मे शल्य इदानीं सम्मतस्तथा। प्रतिभासि महाबाहो अभीतश्च धनञ्जयात्।। | 8-83-49a 8-83-49b |
पश्य बाह्वोर्बलं मेऽद्य शिक्षितस्य च पश्य मे। एकोऽद्य निहनिष्यामि पाण्डवानां महाचमूम्।। | 8-83-50a 8-83-50b |
कृष्णौ च पुरुषव्याघ्र ततः सत्यं ब्रवीमि ते। नाहत्वा युधि तौ वीरौ व्यपयास्ये कथञ्चन।। | 8-83-51a 8-83-51b |
शिश्ये वा निहतस्ताभ्यामनित्यो हि रणे जयः। कृतार्थोऽद्य भविष्यामि हत्वा वाप्यथ वा हतः।। | 8-83-52a 8-83-52b |
शल्य उवाच। | 8-83-53x |
अजय्यमेनं प्रवदन्ति युद्धे महारथाः कर्ण रथप्रवीरम्। एकाकिन किमु कृष्णाभिगुप्तं विजेतुमेनं क इहोत्सहेत।। | 8-83-53a 8-83-53b 8-83-53c 8-83-53d |
कर्ण उवाच। | 8-83-54x |
नैतादृशो जातु बभूव लोके रथोत्तमो यावदुपश्रुतं नः। तमीदृशं प्रतियोत्स्यामि पार्थं महाहवे पश्य च पौरुषं मे ।। | 8-83-54a 8-83-54b 8-83-54c 8-83-54d |
रणे चरत्येष रथप्रवीरः सितैर्हयैः कौरवराजपुत्रः। स वाऽद्य मां नेष्यति कृच्छ्रमेत-- त्कर्णोऽस्यान्तेऽप्यत्र भवेत्समर्थः।। | 8-83-55a 8-83-55b 8-83-55c 8-83-55d |
अस्वेदिनौ राजपुत्रस्य हस्ता-- ववेपमानौ जातकिणौ बृहन्तौ। दृढायुधः कृतिमान्क्षिप्रहस्तो न पाण्डवेयेन समोऽस्ति योधः।। | 8-83-56a 8-83-56b 8-83-56c 8-83-56d |
गृह्णात्यनेकानपि कङ्कपत्रा-- नेकं यथा तान्प्रतियोज्य चाशु। ते क्रोशमात्रे निपतन्त्यमोधाः कस्तेन योधोऽस्ति समः पृथिव्याम्।। | 8-83-57a 8-83-57b 8-83-57c 8-83-57d |
अतोषयत्स्वाण्डवे यो हुताशं कृष्णद्वितीयोऽतिरथस्तरस्वी। लेभे चक्रं यत्र कृष्णो महात्मा धनुर्गाण्डीवं पाण्डवः सव्यसाची।। | 8-83-58a 8-83-58b 8-83-58c 8-83-58d |
श्वेताश्वयुक्तं च सुघोषमुग्रं रथं महाबाहुरदीनसत्वः। महेषुधी चाक्षये दिव्यरूपे शस्त्राणि दिव्यानि च हव्यवाहात्।। | 8-83-59a 8-83-59b 8-83-59c 8-83-59d |
यस्त्विन्द्रलोके निजघान दैत्या-- नसङ्ख्येयान्कालकेयांश्च सर्वान्। लेभे शङ्खं देवदत्तं स्म तत्र को नाम तेनाभ्यधिकः पृथिव्याम्।। | 8-83-60a 8-83-60b 8-83-60c 8-83-60d |
महादेवं तोषयामास योऽस्त्रैः साक्षात्सुयुद्धेन महानुभावः। लेभे ततः पाशुपतं सुघोरं त्रैलोक्यसंहारकरं महास्त्रम्।। | 8-83-61a 8-83-61b 8-83-61c 8-83-61d |
पृथक्पृथग्लोकपालाः समेता ददुर्महास्त्राण्यप्रमेयाणि सङ्ख्ये। यैस्ताञ्जघानाशु रणे नृसिंहः सकालकेयानसुरान्समेतान्।। | 8-83-62a 8-83-62b 8-83-62c 8-83-62d |
तथा विराटस्य पुरे समेता-- न्सर्वानस्मानेकरथेन जित्वा। जहार तद्रोधनमाजिमध्ये वस्त्राणि चादत्त महारथेभ्यः।। | 8-83-63a 8-83-63b 8-83-63c 8-83-63d |
तमीदृशं वीर्यगुणोपपन्नं कृष्णद्वितीयं परमं नृपाणाम्। तमाह्वयन्साहसमुत्तमं वै जाने स्वयं सर्वलोकस्य शल्य।। | 8-83-64a 8-83-64b 8-83-64c 8-83-64d |
अनन्तवीर्येण च केशवेन नारायणेनाप्रतिमेन गुप्तः। वर्षायुतैर्यस्य गुणा न शक्या वक्तुं समेतैरपि सर्वलोकैः।। | 8-83-65a 8-83-65b 8-83-65c 8-83-65d |
महात्मनः शङ्खचक्रासिपाणे-- र्विष्णोर्जिष्णोर्वसुदेवात्मजस्य। भयं न मे जायते साध्वसं च दृष्ट्वा कृष्णावेकरथे समेतौ।। | 8-83-66a 8-83-66b 8-83-66c 8-83-66d |
अतीवायं धनुषि राजपुत्रे-- ष्वतीवान्यान्केशवश्चक्रयुद्धे। एवंविधौ पाण्डववासुदेवौ चलेत्स्वदेशाद्विमवान्न कृष्णौ।। | 8-83-67a 8-83-67b 8-83-67c 8-83-67d |
उभौ हि शूरौ बलिनौ दृढायुधौ महारथौ संहननोपपन्नौ। एतौ वीरौ नरवीरौ समेतौ स्थानाच्च्युतौ देवकुमाररूपौ।। | 8-83-68a 8-83-68b 8-83-68c 8-83-68d |
जेतुं प्रसह्यार्जुनं चाच्युतं च।। | 8-83-69f |
एतौ हि तावर्जुनवासुदेवौ कोऽन्यः प्रतीयान्मदृते तु शल्य।। | 8-83-70a 8-83-70b |
सर्वेषां वृष्णिवीराणां कृष्णे लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता। सर्वेषां पाण्डुपुत्राणां जयः पार्थे प्रतिष्ठितः।। | 8-83-71a 8-83-71b |
तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ समाने स्यन्दने स्थितौ। मामेकमभियोद्धारौ सुजातं बत शल्य मे।। | 8-83-72a 8-83-72b |
नैतच्चिरं क्षिप्रमिमं रथं मे प्रवर्तयैतावभियामि चैवम्। अस्मिन्मुहूर्ते निहतौ पश्य कृष्णौ ताभ्यां हतं वा युधि मां रिपुभ्याम्।। | 8-83-73a 8-83-73b 8-83-73c 8-83-73d |
एवं ब्रुवाणः सहसा महारथ-- स्त्वभ्यद्रवत्पाण्डवं सूतपुत्रः।। | 8-83-74a 8-83-74b |
पदातिसङ्घा द्विरदास्तथा तदा।। | 8-83-75f |
निरुध्यताभिद्रवताच्युतार्जुनौ श्रमेण संयोजयताशु सर्वशः। यथा भवद्भिर्भृशविक्षतावुभौ सुखेन हन्यान्मम वाहिनीपतिः।। | 8-83-76a 8-83-76b 8-83-76c 8-83-76d |
यथा तथा तान्समरेऽर्जुनोऽग्रसत्।। | 8-83-77f |
न सन्दधानो न तथा शरोत्तमान् प्रमुञ्चमानो रिपुभिः प्रदृश्यते। धनञ्जयास्तैः स्म शरैर्विदारिता हता निपेतुर्नरवाजिकुञ्जराः।। | 8-83-78a 8-83-78b 8-83-78c 8-83-78d |
शरार्चिषं गाण्डिवचारुमण्डलं युगान्तसूर्यप्रतिमानतेजसम्। न कौरवाः शेकुरुदीक्षितुं जयं यथा रविं व्याधितचक्षुषो जनाः।। | 8-83-79a 8-83-79b 8-83-79c 8-83-79d |
शरोत्तमान्सम्प्रहितान्महारथै श्चिच्छेद पार्थः प्रहसञ्छरौधैः। भूयश्च तानहनद्बाणसङ्घान् गाण्डीवधन्वायतपूर्णमण्डलम्।। | 8-83-80a 8-83-80b 8-83-80c 8-83-80d |
यथोग्ररश्मिः शुचिशुक्रमध्यगः सुखं विवस्वान्हरते जलौघान्। तथार्जुनो बाणगणान्निरस्य ददाह सेनां तव पार्थिवेन्द्र।। | 8-83-81a 8-83-81b 8-83-81c 8-83-81d |
तमभ्यधावद्विसृजन्कृपः शरां-- स्तथैव भोजस्तव चात्मजः स्वयम्। महारथो द्रोणसुतश्च सायकै-- रवाकिरंस्तोयधरा यथाऽचलम्।। | 8-83-82a 8-83-82b 8-83-82c 8-83-82d |
जिघांसुभिस्तान्कुशलैः शरोत्तमान् महात्मभिः सम्प्रहितान्प्रयत्नतः। शरैः प्रतिच्छेद स पाण्डवस्त्वरन् परान्विनिर्भिद्य च तांस्त्रिभिस्त्रिभिः।। | 8-83-83a 8-83-83b 8-83-83c 8-83-83d |
स गाण्डिवव्यायतपूर्णमण्डल-- स्तपन्रिपूनर्जुनभास्करो वभौ। शरोग्रश्मिः शुचिशुक्रमध्यगो यथैव सूर्यः परिवेयवांस्तथा।। | 8-83-84a 8-83-84b 8-83-84c 8-83-84d |
अथाग्र्यबाणैर्दशभिर्धनञ्जयं पराभिनद्दोणसुतोऽच्युतं त्रिभिः। चतुर्भिरश्वांश्चतुरः कपिं ततः शरैश्च नाराचवरैरवाकिरत्।। | 8-83-85a 8-83-85b 8-83-85c 8-83-85d |
तथा ततः प्रस्फुरदस्य कार्मुकं त्रिभिः शरैर्यन्तृशिरश्चकर्त ह। हयांश्चतुर्भिश्चतुरस्त्रिभिर्ध्वजं धनञ्जयो द्रौणिरथादपातयत्।। | 8-83-86a 8-83-86b 8-83-86c 8-83-86d |
स रोषपूर्णो ह्मतिवज्रहाटकै--- रलङ्कृतं तक्षकभोगवर्चसम्। स तद्वधे कार्मुकमन्यदाददे यथा महाहिप्रवरं तथैव च।। | 8-83-87a 8-83-87b 8-83-87c 8-83-87d |
स्वमायुधं चापि विकीर्य भूतले धनुश्च कृत्वा सगुणं गुणाधिकः। समानयंसल्तावजितौ नरोत्तमौ शरोत्तमैर्द्रौणिरविध्यदन्तिकात्।। | 8-83-88a 8-83-88b 8-83-88c 8-83-88d |
कृपश्च भोजश्च तवात्मजश्च ते शरैरनेकैर्युधि पाण्डवर्षभम्। महारथाः संयुगमूर्धनि स्थिता-- स्तमोनुदं वारिधरा इवापतन्।। | 8-83-89a 8-83-89b 8-83-89c 8-83-89d |
कृपस्य पार्थः शरं शरासनं हयान्ध्वजान्सारधिमेव पत्रिभिः। [समार्पयद्वाहुसहस्रविक्रम-- स्तथा यथा वज्रधरः पुरा बलेः।। | 8-83-90a 8-83-90b 8-83-90c 8-83-90d |
स पार्थबाणैर्विनिपातितायुधो ध्वजावमर्दे च कृते महाहवे। कृतः कृपो बाणसहस्रयनितो यथापगेयः प्रथमं किरीटिना।।] | 8-83-91a 8-83-91b 8-83-91c 8-83-91d |
शरैः प्रचिच्छेद तवात्मजस्य ध्वजं धनुश्च प्रचकर्त नर्दतः। जघान चाश्वान्कृतवर्मणः शुभान् ध्वजं च चिच्छेद तवात्मजस्य ह।। | 8-83-92a 8-83-92b 8-83-92c 8-83-92d |
सवाजिसूतेष्वसनान्सकेतना-- ञ्जयान नागाश्वरथांश्च स त्वरन्। ततः प्रकीर्णं सुमहद्वलं तव प्रपीडितं सवितुरिवौजसा भृशम्।। | 8-83-93a 8-83-93b 8-83-93c 8-83-93d |
रथैः सुयुक्तैरपरे युयुत्सवः।। | 8-83-94f |
अथाभिसृत्य प्रतिवार्य चाहितान् धनञ्जयस्यानुचरान्महारथाः। शिखण्डिशैनेययमाः शितैः शरै--- र्विदारयन्तो व्यनदन्सुभैरवम्।। | 8-83-95a 8-83-95b 8-83-95c 8-83-95d |
ततोऽभिजघ्नुः कुपिताः परस्परं शरैस्तदाञ्चोगतिभिः सुतेजनैः। कुरुप्रवीराः सह पृञ्जयैर्यथा सुरारयो देवपतिं यथा तथा।। | 8-83-96a 8-83-96b 8-83-96c 8-83-96d |
जयेप्सवः स्वर्गमनाय चोत्सुकाः पतन्ति नागाश्वरथाः परन्तप। तथैव सर्वे बहवश्च विव्यधुः शरैः सुमुक्तैरितरेतरं पृथक्।। | 8-83-97a 8-83-97b 8-83-97c 8-83-97d |
शरान्धकारे तु महात्मभिः कृते महामृधे योधवरैः परस्परम्। चतुर्दिशो वै विदिशश्च पार्थिव प्रभा च सूर्यस्य तमोवृताऽभवत्।। | 8-83-98a 8-83-98b 8-83-98c 8-83-98d |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः।। 83 ।। |
8-83-81 शुचिशुकयोः आषाढज्येष्ठयोर्मध्ये गतः।। 8-83-94 तथार्जुनस्याविरथेन केशव इति ख.ट.पाठः। अथार्जुनस्याधिरथेश्च केशव इति क.ङ.पाठः।। 8-83-83 त्र्यशीतितमोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-082 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-084 |