महाभारतम्-08-कर्णपर्व-043

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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।

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धृतराष्ट्र उवाच। 8-43-1x
युक्तं प्रविश्य पार्थानां सैन्यं कुर्वञ्जनक्षयम्।
कर्णो राजानमभ्येत्य तन्ममाचक्ष्व स़ञ्जय।।
8-43-1a
8-43-1b
के च प्रवीराः पार्थानां युधि कर्णमवारयन्।
कांश्च प्रमथ्याधिरथिर्युधिष्ठिरमपीडयत्।।
8-43-2a
8-43-2b
सञ्जय उवाच। 8-43-3x
धृष्टद्युम्नमुखान्पार्थान्दृष्ट्वा कर्णो व्यवस्थितान्।
समभ्यधावत्त्वरितः पाञ्चालाञ्छत्रुकर्शनः।।
8-43-3a
8-43-3b
तं तूर्णमभिधावन्तं पाञ्चाला जितकाशिनः।
प्रत्युद्ययुर्महात्मानं हंसाः सर इवोष्णगे।।
8-43-4a
8-43-4b
ततः शङ्खसहस्राणां निःस्वनो हृदयङ्गमः।
प्रादुरासीदुभयतो भेरीशब्दश्च दारुणः।।
8-43-5a
8-43-5b
नानाबाणनिनादश्च द्विपाश्वरथनिःस्वनः।
सिंहनादश्च वीराणामभवद्दारुणस्तदा।।
8-43-6a
8-43-6b
साद्रिद्रुमार्णवा भूमिः सवाताम्बुदमम्बरम्।
सार्केन्दुग्रहनक्षत्रा द्यौश्च व्यक्तं विघूर्णिता।।
8-43-7a
8-43-7b
इति भूतानि तं शब्दं मेनिरे ते च विव्यथुः।
यानि चाप्यल्पसत्वानि प्रायस्तानि मृतानि वै।।
8-43-8a
8-43-8b
अथ कर्णो भृशं क्रुद्धः शीघ्रमस्त्रमुदीरयन्।
जघान पाण्डवीं सेनामासुरीं मघवानिव।।
8-43-9a
8-43-9b
स पाण्डवबलं कर्णः प्रविश्य विसृजञ्छरान्।
प्रभद्रकाणां प्रवरानहनत्सप्तसप्ततिम्।।
8-43-10a
8-43-10b
ततः सुपुङ्खैर्निशितैरथ श्रष्ठो रथेषुभिः।
अवधीत्पञ्चविंशत्या पाञ्चालान्पञ्चविंशतिम्।।
8-43-11a
8-43-11b
सुवर्णपुङ्खैर्नाराचैः परकायविदारणैः।
चेदिकानवधीद्वीरः शतशोऽथ सहस्रशः।।
8-43-12a
8-43-12b
तं तथा समरे कर्म कुर्वाणमतिमानुषम्।
परिवव्रुर्महाराज पाञ्चालानां रथव्रजाः।।
8-43-13a
8-43-13b
ततः सन्धाय विशिखान्पञ्च भारत दुःसहान्।
पाञ्चालानवधीत्पञ्च कर्णो वैकर्तनो वृषः।।
8-43-14a
8-43-14b
भानुदेवं चित्रसेनं सेनाबिन्दुं च भारत।
तपनं शूरसेनं च पाञ्चालानहनद्रणे।।
8-43-15a
8-43-15b
पाञ्चालेषु च शूरेषु वध्यमानेषु सायकैः।
हाहाकारो महानासीत्पाञ्चालानां महाहवे।।
8-43-16a
8-43-16b
तेषां सह्क्रीडमानानां हाहाकारं प्रकुर्वताम्।
पुनरेव च तान्कर्णो जघानाशु पतत्त्रिभिः।।
8-43-17a
8-43-17b
चक्ररक्षौ तु कर्णस्य पुत्रौ मारिष दुर्जयौ।
सुषेणः सत्यसेनश्च त्यक्त्वा प्राणानयुध्यताम्।।
8-43-18a
8-43-18b
पृष्ठगोप्ता तु कर्णस्य ज्येष्ठः पुत्रो महारथः।
वृषसेनोऽन्वयात्कर्णं पृष्ठतः परिपालयन्।।
8-43-19a
8-43-19b
धृष्टद्युम्नः सात्यकिश्च द्रौपदेया वृकोदरः।
जनमेजयः शिखण्डी च प्रवीराश्च प्रभद्रकाः।।
8-43-20a
8-43-20b
चेदिकेकयपाञ्चाला यमौ मात्स्याश्च दंशिताः।
समभ्यधावन्राधेयं जिघांसन्तः प्रहारिणम्।।
8-43-21a
8-43-21b
त एनं विविधैः शस्त्रैः शरधाराभिरेव च।
अभ्यवर्षन्विमर्दन्तं प्रावृषीवाम्बुदा गिरिम्।।
8-43-22a
8-43-22b
पितरं तु परीप्सन्तः कर्णपुत्राः प्रहारिणः।
त्वदीयाश्चापरे राजन्वीरा वीरानवारयन्।।
8-43-23a
8-43-23b
सुषेणो भीमसेनस्य च्छित्त्वा भल्लेन कार्मुकम्।
नाराचैः सप्तबिर्विद्ध्वा हृदि भीमं ननाद ह।।
8-43-24a
8-43-24b
अथान्यद्वनुरादाय सुदृढं भीमविक्रमः।
सज्यं वृकोदरः कृत्वा सुषेणस्याच्छिनद्वनुः।।
8-43-25a
8-43-25b
विव्याध चैनं दशभिः क्रुद्धो नृत्यन्निवेषुभिः।
कर्णं च तूर्णं विव्याध त्रिसप्तत्या शितैः शरैः।।
8-43-26a
8-43-26b
सत्यसेनं च दशभिः साश्वसूतायुधध्वजम्।
पश्यतां सुहृदां मध्ये कर्णपुत्रमपातयत्।।
8-43-27a
8-43-27b
क्षुरप्रणुन्नं तत्तस्य शिरश्चन्द्रनिभाननम्।
शुभदर्शनमेवासीन्नालभ्रष्टमिवाम्बुजम्।।
8-43-28a
8-43-28b
हत्वा कर्णसुतं भीमस्तावकान्पुनरार्दयत्।
कृपहार्दिक्ययोश्छित्त्वा चापौ तावप्यथार्दयत्।।
8-43-29a
8-43-29b
दुःशासनं त्रिभिर्विद्ध्वा शकुनिं षड्भिरायसैः।
उलूकं च पतत्रिं च चकार विरथावुभौ।।
8-43-30a
8-43-30b
हे सुषेण हतोऽसीति ब्रुवन्नादत्त सायकम्।
तमस्य कर्णश्चिच्छेद त्रिभिश्चैनमताडयत्।।
8-43-31a
8-43-31b
अथान्यं परिजग्राह सुपर्वाणं सुतेजनम्।
सुषेणायासृजद्भीमस्तमप्यस्याच्छिनद्वृषः।।
8-43-32a
8-43-32b
पुनः कर्णस्त्रिसप्तत्या भीमसेनमथेषुभिः।
पुत्रं परीप्सन्विव्याध क्रुद्धः शत्रुजिघांसया।।
8-43-33a
8-43-33b
सुषेणस्तु धनुर्गृह्य भारसाधनमुत्तमम्।
नकुलंपञ्चभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्।।
8-43-34a
8-43-34b
नकुलस्तं तु विंशत्या विद्व्वा भारसहैर्दृढैः।
ननाद बलवन्नादं कर्णस्य भयमादधत्।।
8-43-35a
8-43-35b
तं सुषेणो महाराज विद्ध्वा दशभिराशुगैः।
चिच्छेद च धनुः शीघ्रं क्षुरप्रेण महारथः।।
8-43-36a
8-43-36b
अथान्यद्वनुरादाय नकुलः क्रोधमूर्च्छितः।
सुषेणं नवभिर्बाणैर्वारयामास संयुगे।।
8-43-37a
8-43-37b
स तु बाणैर्दिशो राजन्नाच्छाद्य परवीरहा।।
आजघ्ने सारथिं चास्य सुषेणं च ततस्त्रिभिः।
चिच्छेद चास्य सुदृढं धनुर्भल्लैस्त्रिभिस्त्रिधा।।
8-43-38a
8-43-38b
8-43-38c
अथान्यद्वनुरादाय सुषेणः क्रोधमूर्च्छितः।
आविध्यन्नकुलं षष्ट्या सहदेवं च सप्तभिः।।
8-43-39a
8-43-39b
तद्युद्धं सुमहद्धोरमासीद्देवासुरोपमम्।
निघ्नतां सायकैस्तूर्णमन्योन्यस्य वधं प्रति।।
8-43-40a
8-43-40b
सात्यकिर्वृषसेनं तु विद्ध्वा सप्तभिरायसैः।
`पुनर्विव्याध सप्तत्या सारथिं च त्रिभिः शितैः।।
8-43-41a
8-43-41b
वृषसेनस्तु शैनेयं शरेणानतपर्वणा।
आजघान महाराज शङ्खदेशे महारथम्।।
8-43-42a
8-43-42b
शैनेयो वृषसेनेन पत्रिणा परिपीडितः।
कोपं चक्रे महाराज क्रुद्धो वेगं च दारुणम्।।
8-43-43a
8-43-43b
जग्राहेषुवरान्वीरः शीघ्रं वै दश पञ्च च।
सात्यकिर्वृषसेनस्य सूतं हत्वा त्रिभिः शरैः'।।
8-43-44a
8-43-44b
धनुश्चिच्छेद भल्लेन जघानाश्वांश्च सप्तभिः।
ध्वजमेकेषुणोन्मथ्य त्रिभिश्तं हृद्यताडयत्।।
8-43-45a
8-43-45b
अथावसन्नः स्वरथे मुहूर्तात्पुनरुत्थितः।
स रणे युयुधानेन विसूताश्वरथध्वजः।
कृतो जिघांसुः शैनेयं खङ्गचर्मधृगभ्ययात्।।
8-43-46a
8-43-46b
8-43-46c
तस्य चापततः शीघ्रं वृषसेनस्य सात्यकिः।
वाराहकर्णैर्दशभिरविध्यदसिचर्मणी।।
8-43-47a
8-43-47b
दुःशासनस्तु तं दृष्ट्वा विरथं व्यायुधं कृतम्।
आरोप्य स्वरथं तूर्णमपोवाह रथान्तरम्।।
8-43-48a
8-43-48b
अथान्यं रथमास्थाय वृषसेनो महारथः।
द्रौपदेयांस्त्रिसप्तत्या युयुधानं च पञ्चभिः।।
8-43-49a
8-43-49b
भीमसेनं चतुःषष्ट्या सहदेवं च पञ्चभिः।
नकुलं त्रिंशता बाणैः शतानीकं च सप्तभिः।।
8-43-50a
8-43-50b
शिखण्डिनं च दशभिर्धर्मराजं शतेन च।
एतांश्चान्यांश्च राजेन्द्र प्रवीराञ्चयगृद्धिनः।।
8-43-51a
8-43-51b
अभ्यर्दयन्महेष्वासः कर्णपुत्रो विशाम्पते।
कर्णस्य युधि दुर्धर्षस्ततः पृष्ठमपालयत्।।
8-43-52a
8-43-52b
युयुधानं च राधेयो नवैर्नवभिरायसैः।
विसूताश्वरथं कृत्वा ललाटे त्रिभिरार्पयत्।।
8-43-53a
8-43-53b
स त्वन्यं रथमास्थाय विधिवत्कल्पितं पुनः।
युयुधे पाण्डुभिः सार्धं कर्णस्य व्यधमद्बलम्।।
8-43-54a
8-43-54b
धृष्टद्युम्नस्ततः कर्णमविध्यद्दशभिः शरैः।
द्रौपदेयास्त्रिसप्तत्या युयुधानस्तु सप्तभिः।।
8-43-55a
8-43-55b
भीमसेनश्चतुःषष्ट्या सहदेवश्च सप्तिभिः।
नकुलस्त्रिंशता बाणैः शतानीकस्तु सप्तभिः।।
8-43-56a
8-43-56b
शिखण्डी दशभिर्वीरो धर्मराजः शतेन तु।
एते चान्ये च राजेन्द्र प्रवीरा जयगृद्विनः।
अभ्यर्दयन्महेष्वासं सूतपुत्रं महामृधे।।
8-43-57a
8-43-57b
8-43-57c
तान्सूतपुत्रो विशिखैर्दशभिर्दशभिः शरैः।
रथेनानुचरन्वीरः प्रत्यविध्यदरिन्दमः।
8-43-58a
8-43-58b
`सात्यकिं भीमसेनं च धृष्टद्युम्नं शिखण्डिनम्।
द्रौपदेयांश्च संरब्धान्यतमानान्महारथान्।।
8-43-59a
8-43-59b

विरथान्रथिनः श्रेष्ठान्निमेषार्धाच्चकार ह।।
8-43-60a
8-43-60b
अमोघत्वाच्च बाणानां भूतसङ्घा विसिप्मयुः'।। 8-43-61a
तत्रास्त्रवीर्यं कर्णस्य लाघवं च महात्मनः।
अपश्याम महाभाग तदद्भुतमिवाभवत्।।
8-43-62a
8-43-62b
न ह्याददानं ददृशुः सन्दधानं च सायकान्।
विमुञ्चन्तं च संरम्भाद पश्यन्नैव तं जनाः।।
8-43-63a
8-43-63b
प्रतीच्यां दिशि तं दृष्ट्वा प्राच्यां पश्याम लाघवात्।
न च पश्याम राजेन्द्र क्व नु कर्णो व्यतिष्ठत।।
8-43-64a
8-43-64b
इषूनेवास्य पश्यामो विनिकीर्णाऽन्समन्ततः।
छादयानान्दिशो राजञ्शलभानामिव व्रजान्।।
8-43-65a
8-43-65b
तस्य तैरिषुभिस्त्रीक्ष्णैः सम्पतद्भिः सहस्रशः।
मरीचिभिरिवोष्णांशोः शरैः सन्नतपर्वभिः।।
8-43-66a
8-43-66b
व्याप्ताः सर्वा दिशो राजन्योधाश्च ददृशुस्तदा।
शरैः संवृतमाकाशं तत्राभ्रैरिव चाभवत्।।
8-43-67a
8-43-67b
द्यौर्वियद्भूर्दिशश्चैव प्रच्छन्ना निशितैः शरैः।
अरुणाभ्रावृताकारं तस्मिन्देशे बभौ वियत्।।
8-43-68a
8-43-68b
ततः पुनरमेयात्मा कर्णो राजा महारथः।
न्यहनत्समरे योधान्योधवृत्तमनुष्ठितः।।
8-43-69a
8-43-69b
नृत्यन्निव हि राधेयश्चापहस्तो रणाजिरे।
यैर्विद्वः प्रत्यविद्व्यत्तानेकैकं त्रिगुणैः शरैः।।
8-43-70a
8-43-70b
शतैश्च दशभिश्चैतान्पुनर्विद्ध्वा ननाद च।
साश्वसूतध्वजच्छत्रास्ततस्ते विवरं ददुः।।
8-43-71a
8-43-71b
`ते हन्यमानाः कर्णेन पलायन्त दिशो दश।
नादयन्तो दिशः सर्वाः कर्मत्रस्ता विचेतसः'।।
8-43-72a
8-43-72b
तान्प्रमथ्य महेष्वासान्राधेयः शरवृष्टिभिः।
राजानीकमसम्बाधं प्राविशच्छत्रुकर्शनः।।
8-43-73a
8-43-73b
स रथांस्त्रिशतं हत्वा चेदीनामनिवर्तिनाम्।
राधेयो निशितैर्बाणैस्ततोऽभ्यागाद्युधिष्ठिरम्।।
8-43-74a
8-43-74b
`ततस्ते विरथाः शूरा रथानन्यान्समास्थिताः।
परिवव्रुर्महाराज धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्'।।
8-43-75a
8-43-75b
ततस्ते तु परे राजञ्छिखण्डी च ससात्यकिः।
राधेयात्परिरक्षन्तो राजानं पर्यवारयन्।
मुञ्चन्तो विविधान्बाणान्स्वर्णपुङ्खाञ्शिलाशितान्।।
8-43-76a
8-43-76b
8-43-76c
तथैव तावकाः सर्वे कर्णं दुर्वारणं रणे।
यत्ताः शूरा महेष्वासाः पर्यरक्षन्त सर्वशः।।
8-43-77a
8-43-77b
नानावादित्रघोषाश्च प्रादुरासन्विशाम्पते।
सिंहनादश्च सञ्जज्ञे शूराणामभिगर्जताम्।।
8-43-78a
8-43-78b
ततः पुनः समाजग्मुरभीताः कुरुपाण्डवाः।
युधिष्ठिरमुखाः पार्थाः सूतपुत्रमुखा वयम्।।
8-43-79a
8-43-79b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।। 43 ।।

8-43-1 अभ्येत्य यदकरोत्तन्ममाचक्ष्वेत्यन्वयः।। 8-43-22 विमर्दन्तं विमृद्रन्तम्।। 8-43-71 विवरं अन्तरं ददुः प्रसृता इत्यर्थः।। 8-43-43 त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः।।

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