महाभारतम्-08-कर्णपर्व-074
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अर्जुनकृतावमानाद्वनं यियासोर्युधिष्ठिरस्य कृष्णेन परिसान्त्वनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-74-1x |
एतच्छ्रुत्वा पाण्डवो धर्मराजो भ्रातुर्वाक्यं परुषं फल्गुनस्य। उत्थाय तस्माच्छयनादुवाच पार्थं ततो दुःखपरीतचेताः।। | 8-74-1a 8-74-1b 8-74-1c 8-74-1d |
कृतं मया पार्थं न साधुकर्म येन प्राप्तं व्यसनं वः सुघोरम्। तस्माच्छिरश्छिन्धि ममैतदद्य कुलान्तकस्याधमपूरुषस्य।। | 8-74-2a 8-74-2b 8-74-2c 8-74-2d |
पापस्य पाप्मोहतस्य वीर विमूढबुद्धेरलसस्य भीरोः। वृद्धावमन्सुः परुषत्य चैव किं ते चिरं मामनुसृज्य रूक्षम्।। | 8-74-3a 8-74-3b 8-74-3c 8-74-3d |
गच्छाम्यहं वनमद्यैव पापः सुखं भवान्वर्ततां मद्विहीनः। योग्यो राजा भीमसेनो महात्मा क्लीबस्य किं वा मम राज्यकृत्यम्।। | 8-74-4a 8-74-4b 8-74-4c 8-74-4d |
न चापि शक्तः परुषाणि सोढुं पुनस्तवेमानि रुषान्वितस्य। भीमोऽस्तु राजा मम जीवितेन न कार्यमद्यावमतस्य वीर।। | 8-74-5a 8-74-5b 8-74-5c 8-74-5d |
इत्येवमुक्त्वा सहसोत्पपात रुषान्वितस्तच्छयनं विहाय। इयेष निर्गन्तुमथो वनाय तं वासुदेवः प्रणतोऽभ्युवाच।। | 8-74-6a 8-74-6b 8-74-6c 8-74-6d |
न राजन्विदितं तत्ते यथा गाण्डीवधन्वनः। प्रतिज्ञा सत्यसन्धस्य गाण्डीवं प्रति विश्रुता।। | 8-74-7a 8-74-7b |
ब्रूयाद्य एनं गाण्डीवं देह्यन्यस्मै त्वमित्युत। वध्योऽस्य स पुमाँल्लोके त्वया चोक्तोयमीदृशम्।। | 8-74-8a 8-74-8b |
ततः सत्यां प्रतिज्ञां तां पार्थेन प्रतिरक्षता। मच्छन्दादवमानोऽयं कृतस्तव महीपते।। | 8-74-9a 8-74-9b |
गुरूणामवमानो हि वध इत्यभिधीयते। तस्मात्क्षम महाबाहो मम पार्थस्य चोभयोः।। | 8-74-10a 8-74-10b |
व्यतिक्रममिमं राजन्सत्यसंरक्षणं प्रति। शरणं त्वां महाराज प्रतिपन्नावुभावपि।। | 8-74-11a 8-74-11b |
क्षन्तुमर्हसि मे राजन्प्रणतस्याभियाचतः। राधेयस्याद्य पापस्य भूमिः पास्यति शोणितम्।। | 8-74-12a 8-74-12b |
सत्यं ते प्रतिजानामि हतं विद्व्यद्य सूतजम्। यस्येच्छसि वधं तस्य गतमेवाद्य जिवीतम्।। | 8-74-13a 8-74-13b |
इति कृष्णवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः। ससम्भ्रमं हृषीकेशमुत्थाप्य प्रणतं तदा। कृताञ्जलिमुवाचेदं वाक्यं यत्समनन्तरम्।। | 8-74-14a 8-74-14b 8-74-14c |
एवमेव यथात्थ त्वमस्त्येषोऽतिक्रमो मम। अनुनीतोऽस्मि गोविन्द तारितश्चास्मि माधव।। | 8-74-15a 8-74-15b |
मोचिता व्यसनाद्धोराद्वयमद्य त्वयाच्युत। भवन्तं नावमासाद्य ह्यावां व्यसनसागरात्। घोरादद्य समुत्तीर्णावुभावज्ञानमोहितौ।। | 8-74-16a 8-74-16b 8-74-16c |
त्वद्बुद्धिप्लवमासाद्य दुःखशोकार्णवाद्वयम्। समुत्तीर्णाः सहामात्याः सनाथाः स्म त्वयाच्युत।। | 8-74-17a 8-74-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि चतुःसप्ततितमोऽध्यायः।। 74 ।। |
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