महाभारतम्-08-कर्णपर्व-024

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वेदव्यासः
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दुर्योधनेन शल्यम्प्रति त्रिपुरासुरकथाकथनारम्भः।। 1 ।। त्रिपुरासुरोपद्रुतैर्देवैः स्तुल्या रुद्रप्रसादनम्।। 2 ।।

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दुर्योधन उवाच। 8-24-1x
भूय एव तु मद्रेश यत्त्वा वक्ष्यामि तच्छृणु।
यथा पुरावृत्तमिदं युद्धे देवासुरे प्रभो।।
8-24-1a
8-24-1b
यदुक्तवान्पितुर्मह्यं मार्कण्डेयो महातपाः।
ब्रुवतस्तदशेषेण मम राजर्षिसत्तम।
निबोध मनसा चात्र न ते कार्या विचारणा।।
8-24-2a
8-24-2b
8-24-2c
`समुत्पन्नो हि राजानः प्रमोह इति निश्चयम्।
कृत्वा चैव व्यवस्यन्ति सर्वे धर्मार्थनिश्चयान्।।
8-24-3a
8-24-3b
देवानामसुराणां च महानासीत्समुच्छ्रयः।
सैंहिकेयास्तदोद्वृत्ता विबुधानवसूदयन्।
ते निरस्तः कृता देवैर्दानवा बलगर्विताः'।।
8-24-4a
8-24-4b
8-24-4c
तत्रासीत्प्रथमो राजन्सङ्ग्रामस्तारकामयः।
निर्जिताश्च ततो दैत्या दैवतैरिति नः श्रुतिः।।
8-24-5a
8-24-5b
भग्नदर्पा निरुत्साहाः पातालं विविशुस्तदा।। 8-24-6a
निर्जितेषु च दैत्येषु तारकस्य सुतास्त्रयः।
ताराक्षः कमलाक्षश्च विद्युन्माली च पार्थिव।।
8-24-7a
8-24-7b
तप उग्रं समास्थाय नियमे परमे स्थिताः।
तपसा कर्णयामासुर्देहांस्ताञ्शत्रुकर्शनाः।।
8-24-8a
8-24-8b
दमेन तपसा चैव नियमेन समाधिना।
तेषां पितामहः प्रीतो वरदः प्रददौ वरम्।।
8-24-9a
8-24-9b
अवध्यत्वं च ते सर्वे सर्वभूतेषु सर्वदा।
सहिता वरयामासः सर्वलोकपितामहम्।।
8-24-10a
8-24-10b
तानब्रवीत्तदा देवः सर्वलोकगुरुः प्रभुः।
नास्ति सर्वामरत्वं वै निवर्तध्वमितोऽसुराः।
अन्यं वरं वृणीध्वं वै रोचते यादृशो हि वः।।
8-24-11a
8-24-11b
8-24-11c
ततस्ते सहिता राजन्सम्प्रधार्यासकृद्बहुः।
सर्वलोकेश्वरं वाक्यं प्रणम्यैनमथाऽब्रुवन्।।
8-24-12a
8-24-12b
वस्तुमिच्छाम नगरं कर्तुं कामगमं शुभम्।
सर्वकामसमृद्वार्थमवध्यं देवदानवैः।।
8-24-13a
8-24-13b
यक्षरक्षोरगगणैर्नानाजातिभिरेव च।
न कृत्याभिर्न शस्त्रैश्च न शापैर्ब्रह्मवादिनाम्।
वध्येत त्रिपुरं देव प्रयच्छेः प्रपितामह।।
8-24-14a
8-24-14b
8-24-14c
वयं पुराणि त्रीण्येव समास्थाय महीमिमाम्।
विचरिष्याम लोकेऽस्मिंस्त्वत्प्रसादपुरस्कृताः।।
8-24-15a
8-24-15b
ततो वर्षसहस्रेषु समेष्यामः परस्परम्।
एकीभावं गभिष्यन्ति पुराण्येतानि चानघ।।
8-24-16a
8-24-16b
समागतानि चैतानि यो हन्याद्भगवांस्तदा।
एकेषुणा देववरः स नो मृत्युर्भविष्यति।।
8-24-17a
8-24-17b
दुर्योधन उवाच। 8-24-18x
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा दानवानां पितामहः।
एवमस्त्विति तान्देवः प्रत्युक्त्वा प्राविशद्दिवम्।।
8-24-18a
8-24-18b
ते तु लब्धवराः प्रीताः सम्प्रधार्य परस्परम्।
पुरत्रयविसृष्ट्यर्थं मयं वव्रुर्महारथाः।
विश्वकार्माणमजरं दैत्यदानवपूजितम्।।
8-24-19a
8-24-19b
8-24-19c
ततो मयः स्वतपसा चक्रे धीमान्पुराणि च।
त्रीणि काञ्चनमेकं वै रौप्यं कार्ष्णायसं तथा।।
8-24-20a
8-24-20b
काञ्चनं दिवि तत्रासीदन्तरिक्षे च राजतम्।
आयसं चाभवद्भौमं तदा तेषां परन्तप।।
8-24-21a
8-24-21b
एकैकं योजनशतं विस्तृतं तावदायतम्।
दृढं चाट्टालकयुतं बृहत्प्राकारतोरणम्।।
8-24-22a
8-24-22b
गृहप्रवरसम्बाधमसम्बाधमहापथम्।
प्रासादैर्विविधैश्चापि द्वारैश्चैवोपशोभितम्।।
8-24-23a
8-24-23b
त्रिपुरं तेषु चाप्यासन्राजानो वै पृथक्पृथक्।
दिव्यमाल्याम्बरधरा दैतेया राजसत्तम।।
8-24-24a
8-24-24b
काञ्चनं तारकाक्षस्य दिव्यमासीन्महात्मनः।
राजतं कमलाक्षस्य विद्युन्मालिन आयसम्।।
8-24-25a
8-24-25b
त्रयस्ते दैत्यराजानस्त्रीँल्लोकानाशु तेजसा।
आक्रम्य तस्थुरूचुश्च कश्च नाम प्रजापतिः।।
8-24-26a
8-24-26b
तेषां दानवमुख्यानां प्रयुतान्यर्बुदानि च।
कोट्याश्चाप्रतिवीराणां समाजग्मुस्ततस्ततः।।
8-24-27a
8-24-27b
मांसाशिनः सुदृप्ताश्च सुरैर्विनिकृताः पुरा।
महदैश्वर्यमिच्छन्तस्त्रिपुरं दुर्गमाश्रिताः।।
8-24-28a
8-24-28b
सर्वेषां च पुनश्चैषां सर्वयोगवहो मयः।
तमाश्रित्य हि ते सर्वेऽवर्तयन्नकुतोभयाः।।
8-24-29a
8-24-29b
यो हि यं मनसा कामं दध्यौ त्रिपुरसंश्रयः।
तस्मै तस्मै मयस्तं तं विदधे मायया तदा।।
8-24-30a
8-24-30b
तारकाक्षसुतश्चासीद्वरिर्नाम महाबलः।
तपस्तेपे परमकं येनातुष्यत्पितामहः।।
8-24-31a
8-24-31b
सन्तुष्टमवृणोद्देवं वापी भवतुः नः पुरे।
शस्त्रैर्विनिहता यत्र क्षिप्ताः स्युर्बलवत्तराः।।
8-24-32a
8-24-32b
स तु लब्ध्वा वरं वीरस्तारकाक्षसुतो हरिः।
ससृजे तत्र वापीं तां मृतसञ्जीविनीं प्रभो।।
8-24-33a
8-24-33b
येन रूपेण यो दैत्यो येन वेषेण चाप्यथ।
क्षिप्यते निहतो वाप्यां तादृशेनैव जायते।
सम्पूर्णबलवीर्यस्तु राजञ्छौर्यसमन्वितः।।
8-24-34a
8-24-34b
8-24-34c
एवं वीर्येण संयुक्तां कृतां तेन महात्मना।
तां प्राप्य त्रैपुरा वापीं लोकान्सर्वान्बबाधिरे।।
8-24-35a
8-24-35b
महता तपसा सिद्धाः सुराणां भयवर्धनाः।
एकस्मिन्निहते दैत्ये सृजन्ति स्म दशासुरान्।
न तेषां विद्यते युद्वे क्षयो राजन्कथञ्चन।।
8-24-36a
8-24-36b
8-24-36c
ततस्ते लोभमोहाभ्यामभिभूता विचेतसः।
निर्भीकाः सहिताः सर्वे स्थापिताः समलोलुपाः।।
8-24-37a
8-24-37b
विद्राव्य सगणान्देवांस्तत्रतत्र तदातदा।
विचेरुः स्वेन कामेन वरदानेन दर्पिताः।।
8-24-38a
8-24-38b
देवोद्यानानि सर्वाणि स्थानानि च दिवौकसाम्।
ऋषीणामाश्रमान्पुण्यान्रम्याञ्चनपदांस्तथा।
उत्सादयन्त मर्यादां दानवा दुष्टचारिणः।।
8-24-39a
8-24-39b
8-24-39c
निःस्थानाश्च कृता देवा ऋषयः पितृभिः सह।
दैत्यैस्त्रिभिस्त्रयो लोका ह्याक्रान्तास्तैः सुरेतरैः।।
8-24-40a
8-24-40b
पीड्यमानेषु लोकेषु ततः शक्रो मरुद्वृतः।
पुराण्यायोधयाञ्चक्रे वज्रहस्तः समन्ततः।।
8-24-41a
8-24-41b
नाशकत्तान्यभेद्यानि यदा भेत्तुं पुरन्दरः।
पुराणि वरदत्तानि धात्रा तेन नराधिप।।
8-24-42a
8-24-42b
तदा भीतः सुरपतिर्मुक्त्वा तानि पुराण्यथ।
तैरेव विबुधैः सार्धं पितामहमरिन्दम।
जगामाथ तदाख्यातुं विप्रकारं सुरेतरैः।।
8-24-43a
8-24-43b
8-24-43c
ते तत्त्वं सर्वमाख्याय शिरोभिः सम्प्रणम्य च।
तद्वधोपायमाचक्ष्व भगवन्निति चाब्रुवन्।।
8-24-44a
8-24-44b
श्रुत्वा तद्भगवान्देवो देवानिदमुवाच ह।
श्रूयतां त्रिदशाः सर्वे यथेदं वाक्यगौरवम्।।
8-24-45a
8-24-45b
दुरात्मानोऽसुरा नित्यं ते चापि विबुधा मम।
न शक्नुवन्ति ते (ये) सर्वे युष्मान्वै पीडयन्ति ते।।
8-24-46a
8-24-46b
अहं समस्तु सर्वेषां भूतानां नात्र संशयः।
अविनीता निहन्तव्या इत्येवं प्रब्रवीमि वः।।
8-24-47a
8-24-47b
एकेषुणा (हि) विभेद्यानि तानि दुर्गाणि नान्यथा।
शक्तस्तु तानि बाणेन भेत्तुं कामं त्रिलोचनः।।
8-24-48a
8-24-48b
ते यूयं स्थाणुमीशानं जिष्मुमक्लिष्टकारिणम्।
योद्वारं वृणुत क्षिप्रं स तान्हन्ता सुरेतरान्।।
8-24-49a
8-24-49b
ते देवास्तेन वाक्येन चोदिताः प्रणताः स्थिताः।
दिव्यं वर्षसहस्रं वै तपस्तप्त्वा सुरर्षभाः।
शुभात्मानो महात्मानो जग्मुर्वै वृषभध्वजम्।।
8-24-50a
8-24-50b
8-24-50c
ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा शरण्यं शरणागताः।
तपः परममाजग्मुर्गृणन्तो ब्रह्म शाश्वतम्।।
8-24-51a
8-24-51b
अनङ्गमथनं सर्वे भवं सर्वात्मना गताः।
देवदेवं परं स्थाणुं वरदं त्र्यम्बकं शिवम्।।
8-24-52a
8-24-52b
शर्वमीड्यमजं रुद्रं शशाङ्काङ्कितमूर्धजम्।
तुष्टुवुर्वाग्भिरुग्राभिर्भयेष्वभयमच्युतम्।
सर्वात्मानं महात्मानं येनाप्तं विश्वमात्मना।।
8-24-53a
8-24-53b
8-24-53c
तपोविशेषैर्विविधैर्योगं यो वेद चात्मनः।
यः साङ्ख्यमात्मना वेत्ति यस्य चात्मा वेशे सदा।।
8-24-54a
8-24-54b
तं ते ददृशुरीशानं तेजोराशिमुमापतिम्।
`परेण यत्नेन भवं त्रिदशाः शर्वमीश्वरम्'।
अनन्यसदृशं लोके प्रतपन्तमकल्मषम्।।
8-24-55a
8-24-55b
8-24-55c
एकश्च भगवांस्तत्र नानारूपमकल्पयत्।
आत्मनः प्रतिरूपाणि रूपाण्यथ महात्मनि।
परस्परस्य चापश्यन्सर्वे परमविस्मिताः।।
8-24-56a
8-24-56b
8-24-56c
सर्वभूतमयं दृष्ट्वा तमजं जगतः परिम्।
देवा ब्रह्मर्षयश्चैव शिरोभिर्धरणीं गताः।।
8-24-57a
8-24-57b
तान्स्वस्तिवाच्य चाभ्यर्च्य समुत्थाप्य च शङ्करः।
ब्रूतब्रूतेति भगवान्स्मयमानोऽभ्यभाषत।।
8-24-58a
8-24-58b
त्र्यम्बकेणाभ्यनुज्ञातास्ततस्ते स्वस्थचेतसः।
नमो नमो नमस्तेऽस्तु प्रभो इत्यब्रुवन्भवम्।।
8-24-59a
8-24-59b
नमो देवाधिदेवाय प्रियाधाघ्नेऽतिमन्यवे।
प्रजापतिमखघ्नाय प्रजापतिभिरीड्यते।।
8-24-60a
8-24-60b
नमः स्तुताय स्तुत्याय स्तूयमानाय शम्भवे।
विलोहिताय रुद्राय नीलग्रीवाय शूलिने।।
8-24-61a
8-24-61b
अमोघाय मृगाक्षाय प्रवरायुधयोधिने।
अर्हाय चैव शुद्वाय क्षयाय क्रथनाय च।।
8-24-62a
8-24-62b
दुर्वारणाय शुक्राय ब्रह्मणे ब्रह्मचारिणे।
ईशानायाप्रमेयाय निहन्त्रे चर्मवाससे।।
8-24-63a
8-24-63b
तपोरताय पिङ्गाय व्रतिने कृत्तिवाससे।
कुमारपित्रे त्र्यक्षाय प्रवरायुधधारिणे।।
8-24-64a
8-24-64b
प्रपन्नार्तिविनाशाय ब्रह्मद्विट्‌सङ्घघातिने।
वनस्पतीनां पतये वनानां पतये नमः।।
8-24-65a
8-24-65b
गवां च पतये नित्यं यज्ञानां पतये नमः।
नमोस्तु ते ससैन्याय त्र्यम्बकायामितौजसे।
मनोवाक्कर्मभिर्देव त्वां प्रपन्नान्भजस्व नः।।
8-24-66a
8-24-66b
8-24-66c
ततः प्रसन्नो भगवान्स्वागतेनाभिनन्द्य च।
प्रोवाच व्येतु वस्त्रासो ब्रूत किं करवाणि वः।।
8-24-67a
8-24-67b
`देवाः शर्वस्य वचनं श्रुत्वा हर्षमुपागताः'।। 8-24-68a
।। इति श्रीमन्महाभारते
कर्णपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः।। 24 ।।

8-24-2 पितुः पुरतः। मह्यं मम।। 8-24-5 तारकामयः तारकासुर एवामयो रोगवत्पराभवहेतुर्यत्र स तथा।। 8-24-60 ईड्यते ईड्यमानाय। कर्मणीदमपौरुषम्।। 8-24-66 भजस्व इष्टैः कामैः पूरयस्व।। 8-24-68 व्येतु व्यपगच्छतु।। 8-24-24 चतुर्विंशोऽध्याय।।

कर्णपर्व-023 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-025