महाभारतम्-08-कर्णपर्व-057
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
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दृतराष्ट्र उवाच। | 8-57-1x |
पाण्ड्ये हते किमकरोदर्जुनो जयतांवरः। एकवीरेण कर्णेन द्राविते च युधिष्ठिरे।। | 8-57-1a 8-57-1b |
समाप्तविद्यो बलवान्युक्तो वीरश्च पाण्डवः। सर्वभूतेष्वनुज्ञातः शङ्करेण महात्मना।। | 8-57-2a 8-57-2b |
तस्मान्महद्भयं तीव्रममित्रघ्नाद्धनञ्जयात्। स यत्तत्राकरोत्पार्थस्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 8-57-3a 8-57-3b |
सञ्जय उवाच। | 8-57-4x |
हते पाण्ड्येऽर्जुनं कृष्णस्त्वरन्नाह वचो हितम्। हतं पश्य स्वराजानमपयातांश्च पाण्डवान्।। | 8-57-4a 8-57-4b |
कर्णं पश्य महारङ्गे ज्वलन्तमिव पावकम्। असौ भीमो महेष्वासः प्रतिवृत्तो रणं प्रति।। | 8-57-5a 8-57-5b |
त इमे नानुवर्तन्ते धृष्टद्युम्नपुरोगमाः। पाञ्चालाः सृञ्जयाश्चैव पाण्डवानां चमूमुखम्।। | 8-57-6a 8-57-6b |
`निवृत्तैश्च पुनः पार्थैर्भग्नं शत्रुबलं महत्'। कौरवान्द्रवतो ह्येष कर्णो वारयते भृशम्।। | 8-57-7a 8-57-7b |
अन्तकप्रतिमो वेगे शक्रतुल्यपराक्रमः। असौ गच्छति कौन्तेय द्रौणिः शस्त्रभृतां वरः।। | 8-57-8a 8-57-8b |
तमेष प्रद्रुतः सङ्ख्ये धृष्टद्युम्नो महारथः। अश्वत्थाम्ना हताः सङ्ख्ये सर्वे कौन्तेय सृञ्जयाः।। | 8-57-9a 8-57-9b |
रथाश्वनरनागानां कृतं च कदनं महत्। इत्येतत्सर्वमाचष्ट वासुदेवः किरीटिने।। | 8-57-10a 8-57-10b |
एतच्छ्रुत्वा च दृष्ट्वा च भ्रातृणां व्यसनं महत्। वाहयाश्वान्हृषीकेश क्षिप्रमित्याह पाण्डवः।। | 8-57-11a 8-57-11b |
ततः प्रायाद्धृषीकेशो रथेनाप्रतिमो युधि। `ततो रेणुः समभवत्पुनस्तत्र महारणे।। | 8-57-12a 8-57-12b |
ततो राजन्महानासीत्सङ्गामो रोमहर्षणः। सिंहनादरवाश्चात्र प्रादुरासन्समागमे। उभयोः सेनयो राजन्मृत्युं कृत्वा निवर्तनम्।। | 8-57-13a 8-57-13b 8-57-13c |
ततः हुनः समाजग्मुरभीताः कुरुसृञ्जयाः। युधिषरमुखाः पार्था वैकर्तनमुखा वयम्।। | 8-57-14a 8-57-14b |
ततः प्रववृते यूद्धं घोररूपं विशाम्पते। कर्णस्य पाण्डवानां च यमराष्ट्रविवर्धनम्।। | 8-57-15a 8-57-15b |
तस्मिन्प्रवृत्ते सङ्ग्रामे तुमुले रोमहर्षणे। संशप्तकेषु वीरेषु किञ्चिच्छेषेषु भारत।। | 8-57-16a 8-57-16b |
धृष्टद्युम्नो महाराज सहितः सर्वराजभिः। कर्णमेवाभिदुद्राव पाण्डवाश्च महारथाः।। | 8-57-17a 8-57-17b |
आगच्छमानांस्तान्दृष्ट्वा सङ्ग्रमे विजयैषिणः। दधारैको रणे कार्णो जलौघानिव पर्वतः।। | 8-57-18a 8-57-18b |
समासाद्य तु ते कर्णं व्यशीर्यन्त महारथाः। यथाऽचलं समासाद्य वार्योधाः सर्वतोदिशम्।। | 8-57-19a 8-57-19b |
तयोरासीन्महाराज सङ्ग्रामो घोरदर्शनः। प्रवृद्धयोर्महारङ्गे बलिनोर्विजिगीषतोः।। | 8-57-20a 8-57-20b |
धृष्टद्युम्नस्तु राधेयं शरेणानतपर्वणा। छादयामास सङ्क्रुद्धस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 8-57-21a 8-57-21b |
विजयं तु धनुः श्रेष्ठं विधृन्वानो महारथः। पार्षतस्य धनुश्छित्त्वा शरांश्चाशीविषोपमान्।। | 8-57-22a 8-57-22b |
ववर्ष शरवर्षाणि तोयवर्षानिवाम्बुदः। छादयामास सङ्क्रुद्धः पार्षतं नवभिः शरैः।। | 8-57-23a 8-57-23b |
ते हेमविकृतं वर्म भित्त्वा तस्य महात्मनः। शोणिताक्ता व्यराजन्त शक्रगोपा इवानघ।। | 8-57-24a 8-57-24b |
तदपास्य धनुश्छिन्नं धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्। ततोऽन्यद्धनुरादाय सारवद्भारसाधनम्। कर्णं विव्याध सप्तत्या शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 8-57-25a 8-57-25b 8-57-25c |
तथैव राजन्कर्णोऽपि पार्षतं शत्रुतापनम्। द्रोणशत्रुं महेष्वासो विव्याध निशितैः शरैः।। | 8-57-26a 8-57-26b |
पुनरन्यं महाराज शरं कनकभूषणम्। प्रेषयामास समरे मृत्युदण्डमिवापरम्।। | 8-57-27a 8-57-27b |
तमापतन्तं सहसा घोररूपं विशाम्पते। चिच्छेद शतधा राजन्पार्षतः कृतहस्तवत्।। | 8-57-28a 8-57-28b |
दृष्टवान्पतितं भूमौ शरं कर्णो विशाम्पते।। | 8-57-29a |
पार्षतः शरवर्षेण समन्तात्पर्यवारयत्। विव्याध चैनं त्वरितो नाराचैः सप्तभिस्तदा।। | 8-57-30a 8-57-30b |
तं प्रत्यविध्यद्दशभिः शरैर्हेमविभूषितैः। तयोर्युद्धं समभवद्दृष्टिश्रोत्रमनोहरम्।। | 8-57-31a 8-57-31b |
आसीद्धोरं च चित्रं च प्रेक्षणीयं च सर्वशः।। | 8-57-32a |
सर्वेषां तत्र भूतानां रोमहर्षो व्यजायत। दृष्ट्वा तत्समरे कर्म कर्णपार्षतयोर्नृप।। | 8-57-33a 8-57-33b |
एतस्मिन्नन्तरे द्रौणिरभ्ययात्तं महारथम्। पार्षतं शत्रुदमनं शत्रुवीर्यासुनाशनम्।। | 8-57-34a 8-57-34b |
स दृष्ट्वा समरे यान्तमभीतं च महारथम्। अभ्यभाषत सङ्क्रुद्धः पार्षतं शत्रुतापनम्।। | 8-57-35a 8-57-35b |
रथं रथेन सम्पीड्य पार्षतस्य तु ब्राह्मणः।। | 8-57-36a |
तिष्ठतिष्ठेति ब्रह्मघ्न न मे जीवन्विमोक्ष्यसे। इत्युक्त्वा सुभृशं वीरः शीघ्रकृन्निशितैः शरैः। छादयामास समरे यतमानो महारथः।। | 8-57-37a 8-57-37b 8-57-37c |
यत्नतः परया शक्त्या धृष्टद्युम्नं महारथम्। योधयामास समरे क्रुद्धरूपो विशाम्पते।। | 8-57-38a 8-57-38b |
तयोस्तु सन्निपाते हि घोररूपो विशाम्पते।। | 8-57-39a |
यथा हि समरे द्रौणिः पार्षतं दृश्यत मारिष। नातिहृष्टमना ह्यासीन्मन्वानो मृत्युमात्मनः।। | 8-57-40a 8-57-40b |
स ज्ञात्वा पितुरत्यन्तरैरिणं तु महाहवे। आत्मानं समरे ज्ञात्वाऽशस्त्रवध्यं महाबलः। जवेनाभिययौ द्रौणिं कालः कालक्षये यथा।। | 8-57-41a 8-57-41b 8-57-41c |
द्रौणिस्तु दृष्ट्वा राजेन्द्र धृष्टद्युम्नमवस्थितम्। क्रोधेन निःश्वसन्वीरः पार्षदं समभिद्रवत्।। | 8-57-42a 8-57-42b |
तावन्योन्यं तु दृष्ट्वैव संरम्भं जग्मतुः परम्। प्रगृह्य महती चापे शरासनसमन्विते।। | 8-57-43a 8-57-43b |
अथाब्रवीन्महाराज द्रोणपुत्रः प्रतापवान्। धृष्टद्युम्नं समीपस्थं त्वरमाणो विशाम्पते।। | 8-57-44a 8-57-44b |
पाञ्चालापशदाद्य त्वां प्रेषयामि यमक्षयम्। पापं हि यत्त्वया कर्म कृतं तातं घ्नता रणे।। | 8-57-45a 8-57-45b |
अद्य त्वं प्राप्स्यसे तद्वै यथा ह्यकुशलस्तथा। अरक्ष्यमाणः पार्थेन यदि तिष्ठसि संयुगे। नापक्रामसि वा मोहात्सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 8-57-46a 8-57-46b 8-57-46c |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे सप्तपञ्चाशोऽध्यायः।। 57 ।। |
8-57-2 अनुज्ञातः त्वं अजय्यो भविष्यसीत्यनुगृहीतः।। 8-57-57 सप्तपञ्चाशोऽध्यायः।।
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