महाभारतम्-08-कर्णपर्व-034
← कर्णपर्व-033 | महाभारतम् अष्टमपर्व महाभारतम्-08-कर्णपर्व-034 वेदव्यासः |
कर्णपर्व-035 → |
कर्णेन मर्मोद्धाटनपूर्वकं शल्यगर्हणम्।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 8-34-1x |
अधिक्षिप्तस्तु राधेयः शल्येनामिततेजसा। शल्यमाह सुसङ्क्रुद्धो वाक्शल्यमवधारयन्।। | 8-34-1a 8-34-1b |
कर्ण उवाच। | 8-34-2x |
गुणान्गुणवतां शल्य गुणवान्वेत्ति नागुणः। त्वं तु नित्यं गुणैर्हीनः किं ज्ञास्यसि गुणागुणान्।। | 8-34-2a 8-34-2b |
अर्जुनस्य महास्त्राणि क्रोधं वीर्यं धनुः शरान्। अहं शल्याभिजानामि न त्वं जानासि तत्तथा।। | 8-34-3a 8-34-3b |
तथा कृष्णस्य माहात्म्यमृषभस्य महीक्षिताम्। यथाहं शल्य जानामि न त्वं जानासि तत्तथा।। | 8-34-4a 8-34-4b |
एवमेवात्मनो वीर्यमहं वीर्यं च पाण्डवे। जानंस्तावाह्वये युद्धे शल्य नाग्निं पतङ्गवत्।। | 8-34-5a 8-34-5b |
अस्ति चाऽयमिषुः शल्य सुपुङ्खो रक्तभोजनः। एकस्तूणीशयः पत्री सुधौतः समलङ्कृतः।। | 8-34-6a 8-34-6b |
शेते चन्दनचूर्णेन पूजितो बहुलाः समाः। आहेयो विषवानुग्रो नराश्वद्विपसङ्घहा।। | 8-34-7a 8-34-7b |
घोररूपो महारौद्रस्तनुत्रास्थिविदारणः। निर्भिन्द्यां येन रुष्टोऽहमपि मेरुं महागिरिम्।। | 8-34-8a 8-34-8b |
तमहं जातु नास्येयमन्यस्मिन्फल्गुनादृते। कृष्णाद्वा देवकीपुत्रात्सत्यं चापि शृणुष्व मे।। | 8-34-9a 8-34-9b |
तेनाहमिषुणा शल्य वासुदेवधनञ्जयौ। योत्स्ये परमसंरब्धौ तत्कर्म सदृशं मम।। | 8-34-10a 8-34-10b |
सर्वेषां वृष्णिवीराणां कृष्णे लक्ष्मीः प्रतिष्ठिता। सर्वेषां पाण्डुपुत्राणां जयः पार्थे प्रतिष्ठितः। उभयं तु समासाद्य को निवर्तितुमर्हति।। | 8-34-11a 8-34-11b 8-34-11c |
तावेतौ पुरुषव्याघ्रौ समेतौ स्यन्दने स्थितौ। मामेकमभिसंयुद्धौ सुजातं पश्य शल्य मे।। | 8-34-12a 8-34-12b |
पितृष्वसामातुलजौ भ्रातरावपराजितौ। मणी सूत्र इव प्रोतौ द्रष्टासि निहतौ मया।। | 8-34-13a 8-34-13b |
अर्जुने गाण्डिवं कृष्णे चक्रं तार्क्ष्यकपिध्वजौ। भीरूणां त्रासजननं शल्य हर्षकरं मम।। | 8-34-14a 8-34-14b |
त्वं तु दुष्प्रकृतिर्मूढो महायुद्वेष्वकोविदः। भयावदीर्णः सन्त्रासादबद्धं बहुः भाषसे।। | 8-34-15a 8-34-15b |
संस्तौषि तौ तु केनापि हेतुना त्वं कुदेशज। तौ हत्वा समरे हन्ता त्वामद्य सह बान्धवम्।। | 8-34-16a 8-34-16b |
पापदेशज दुर्बुद्धे क्षुद्र क्षत्रियपांसन। सुहृद्रूपो रिपुः किं मां कृष्णाभ्यां भीषयिष्यसि।। | 8-34-17a 8-34-17b |
तौ वा मामद्य हन्तारौ हनिष्ये वाऽपि तावहम्। नाहं बिभेमि कृष्णाभ्यां विजानन्नात्मनो बलम्।। | 8-34-18a 8-34-18b |
वासुदेवसहस्रं वा फल्गुनानां शतानि वा। अहमेको हनिष्यामि जोषमास्स्व कुदेशज।। | 8-34-19a 8-34-19b |
स्त्रियो बालाश्च वृद्वाश्च प्रायः क्रीडागता जनाः।। | 8-34-20a |
या गाथाः सम्प्रगायन्ति कुर्वतोऽध्ययनं यथा। ता गाथाः शृणु मे शल्य मद्रकेषु दुरात्मसु।। | 8-34-21a 8-34-21b |
ब्राह्मणैः कथिताः पूर्वं यथावद्राजसन्निधौ। श्रुत्वा चैकमना मूढ मम वा ब्रूहि चोत्तरम्।। | 8-34-22a 8-34-22b |
मित्रध्रुङ्मद्रको नित्यं यो नो द्वेष्टि स मद्रकः। मद्रके सङ्गतं नास्ति क्षुद्रवाक्ये नराधमे।। | 8-34-23a 8-34-23b |
दुरात्मा मद्रको नित्यं नित्यमानृतिकोऽनृजुः। यच्चान्यदपि दौरात्म्यं मद्रकेष्विति नः श्रुतम्।। | 8-34-24a 8-34-24b |
पिता पुत्रश्च माता च श्वश्रूश्वशुरमातुलाः। भगिनी दुहिता भ्राता नप्ताऽन्ये ते च बान्धवाः।। | 8-34-25a 8-34-25b |
वयस्याभ्यागताश्चान्ये दासीदासाश्च सङ्गताः। पुम्भिर्विमिश्रा नार्यश्च ज्ञाताज्ञाताः स्वयेच्छया।। | 8-34-26a 8-34-26b |
येषां गृहेष्वशिष्टानां सक्तुमद्याशिनां सदा। पीत्वा शीधु सगोमांसं क्रन्दन्ति च हसन्ति च।। | 8-34-27a 8-34-27b |
गायन्ति चाप्यबद्धानि प्रवर्तन्ते च कामतः। कामप्रलापिनोऽन्योन्यं तेषु धर्मःकथं भवेत्।। | 8-34-28a 8-34-28b |
मद्रकेष्ववलिप्तेषु प्रख्याताशुभकर्मसु। नापि वैरं न सौहार्दं मद्रकेण समाचरेत्।। | 8-34-29a 8-34-29b |
मद्रके सङ्गतं नास्ति मद्रको हि सदा मलः। मद्रकेषु च संसृष्टं शौचं गान्धारकेषु च।। | 8-34-30a 8-34-30b |
राजयाजकयाज्ये हि यथा दत्तं हविर्नशेत्। शूद्रसंस्कारको विप्रो यथा याति पराभवम्।। | 8-34-31a 8-34-31b |
यथा ब्रह्मद्विषो नित्यं गच्छन्तीह पराभवम्। यथैव संगतं कृत्वा नरः पतति मद्रकैः।। | 8-34-32a 8-34-32b |
बालेष्वपि सदा न स्म धनं वृश्चिक ते विषम्। आथर्वणेन मन्त्रेण सर्वशान्तिः कृता मया।। | 8-34-33a 8-34-33b |
इति वृश्चिकदष्टस्य विषवेगहतस्य च। कुर्वन्ति भेषजं प्राज्ञाः सत्यं तच्चापि दृश्यते।। | 8-34-34a 8-34-34b |
एवं विद्वञ्जोषमास्स्व ब्रूहि चात्रोत्तरं वचः। वासांस्युत्सृज्य नृत्यन्ति स्त्रियो मद्यविमोहिताः।। | 8-34-35a 8-34-35b |
मैथुनेऽसङ्गताश्चापि यथाकामवराश्च ताः। तासां पुत्र कथं धर्मं मद्रको वक्तुमर्हति।। | 8-34-36a 8-34-36b |
यास्तिष्ठन्त्यः प्रमेहन्ति यथैवोष्ट्रदशेरकाः। तासां विभ्रष्टधर्माणां निर्लज्जानां ततस्ततः। त्वं पुत्रस्तादृशीनां हि धर्मं वक्तुमिहेच्छसि।। | 8-34-37a 8-34-37b 8-34-37c |
सौवीरकं याच्यमाना मद्रिका कर्षति स्फिचौ। अदातुकामा वचनमिदं वदति दारुणम्।। | 8-34-38a 8-34-38b |
मा मां सौवीरकं कश्चिद्याचतां दयितं मम। पुत्रं दद्यां पतिं दद्यां न तु दद्यां सुवीरकम्।। | 8-34-39a 8-34-39b |
गौर्यो बृहत्यो निर्हीका मद्रिकाः कम्पलावृताः। घस्मरा नष्टशौचाश्च प्राय इत्यनुशुश्रुम।। | 8-34-40a 8-34-40b |
पमेहित्वा स्फिचौ भूमौ घर्षन्त्यो हीनशोधनाः। शुद्धा नाद्भिर्न मृद्भिश्च नित्योच्छिष्टा भवन्ति हि।। | 8-34-41a 8-34-41b |
एवमादि मयाऽन्यैर्वा शक्यं वक्तुं भवेद्बहु। आकेशान्तान्नखाग्राच्च वक्तव्येषु कुकर्मसु।। | 8-34-42a 8-34-42b |
मद्रकाः सिन्धुसौवीरा धर्मं विद्युः कथं त्विह। पापदेशोद्भवा म्लेच्छा धर्माणामविचक्षणाः।। | 8-34-43a 8-34-43b |
एष मुख्यतमो धर्मः क्षत्रियस्येति नः श्रुतम्। यदाजौ निहतः शेते सद्भिः समभिपूजितः।। | 8-34-44a 8-34-44b |
आयुधानां साम्पराये यन्मुञ्चेयमहं ततः। ममैष प्रथमः कल्पो निधने स्वर्गमिच्छतः।। | 8-34-45a 8-34-45b |
सोयं प्रियसखा चास्मि धार्तराष्ट्रस्य धीमतः। तदर्थे हि मम प्राणा यच्च मे विद्यते वसु।। | 8-34-46a 8-34-46b |
व्यक्तं त्वमप्युपहितः पाण्डवैः पापदेशज। यथा चामित्रवत्सर्वं त्वमस्मासु प्रवर्तसे।। | 8-34-47a 8-34-47b |
कामं न खलु शक्योऽहं त्वद्विधानां शतैरपि। सङ्ग्रामाद्विमुखः कर्तुं धर्मज्ञ इव नास्तिकैः।। | 8-34-48a 8-34-48b |
सारङ्ग इव घर्मार्तः कामं विलप शुष्य च। नाहं भीषयितुं शक्यः क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः।। | 8-34-49a 8-34-49b |
तनुत्यजां नृसिंहानामाहवेष्वनिवर्तिनाम्। या गतिर्गुरुणा प्रोक्ता प्रेम्णा रामेण तां स्मरे।। | 8-34-50a 8-34-50b |
स्वेषां त्राणार्थमुद्यन्तं वधार्थं द्विषतामपि। विद्धि मामास्थितं वृत्तं पौरूरवसमुत्तमम्।। | 8-34-51a 8-34-51b |
न तद्भूतं प्रपश्यामि त्रिषु लोकेषु मद्रप। यो मामस्मादभिप्रायाद्वारयेदिति मे मतिः।। | 8-34-52a 8-34-52b |
एवं विद्वञ्जोषमास्स्व त्रासात्किं बहु भाषसे। न त्वां हत्वा प्रदास्यामि क्रव्याद्भ्यो मद्रकाधम्।। | 8-34-53a 8-34-53b |
मित्रप्रतीक्षया शल्य धृतराष्ट्रस्य चोभयोः। अपवादतितिक्षाभिस्त्रिभिरेतैर्हि जीवसि।। | 8-34-54a 8-34-54b |
पुनश्चेदीदृशं वाक्यं मद्रराज वदिष्यसि। शिरस्ते पातयिष्यासि गदया वज्रकल्पया।। | 8-34-55a 8-34-55b |
श्रोतारस्त्विदमद्येह द्रष्टारो व्रा कुदेशज। कर्णं वा जघ्नतुः कृष्णौ कर्णो वा निजघान तौ।। | 8-34-56a 8-34-56b |
एवमुक्त्वा तु राधेयः पुनरेव विशाम्पते। अब्रवीन्मद्रराजानं याहियाहीत्यसम्भ्रमम्।। | 8-34-57a 8-34-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।। 34 ।। |
8-34-7 आहेयः सर्पमयः।। 8-34-9 नास्येयं न क्षिपेयम्।। 8-34-12 सुजातं शोभनं जन्म।। 8-34-13 प्रोतौ एकसूत्रे मणीइव प्रेमसम्बद्धौ।। 8-34-19 जोषं तूष्णीम्। आस्स्व तिष्ठ।। 8-34-20 क्रीडागताः लीलया आगताः।। 8-34-21 मद्रकेषु कुत्सितेषुमद्रदेशेषु।। 8-34-22 क्षम वा ब्रूहि चोत्तरम् इति झ.पाठः।। 8-34-24 अनृतेन चरतीत्यानृतिकः।। 8-34-26 पुम्भिः पुरुषैः विमिश्राः सङ्गताः। इच्छया मैथुनिनोऽज्ञातवत् ज्ञाता अप्यविगीता इत्यर्थः।। 8-34-27 येषां मद्रकाणां सक्तुमिश्रितमत्स्याशिनाम्। शीधु मद्यम्।। 8-34-30 मद्रकेषु संसृष्टं नष्टं एवं गान्धारकेषु शौचं नष्टं भवेत्।। 8-34-31 राजा याजको यस्य तस्मिन्याज्ये हविर्नष्टं भवेत्।। 8-34-32 यथैवेति। यथा मद्रकैः सङ्गतं कृत्वा पतति हेवृश्चिक तथा ते विषं हतमित्यध्याहारः। यद्येतत्सत्यं तर्हि तव विषं नश्यत्विति मन्त्रेण सर्वथा विषं नश्यतीत्यर्थः। मयेत्यात्मानुभवसिद्धमिदमिति द्योतयति।। 8-34-33 यथैवेति। यथा मद्रकैः सङ्गतं कृत्वा पतति हेवृश्चिक तथा ते विषं हतमित्यध्याहारः। यद्येतत्सत्यं तर्हि तव विषं नश्यत्विति मन्त्रेण सर्वथा विषं नश्यतीत्यर्थः। मयेत्यात्मानुभवसिद्धमिदमिति द्योतयति।। 8-34-36 यथाकामं वरयन्तिताः। मैथुने सङ्गता याश्च तथा कामकराश्च ह। तासां पुत्रो मम कथं मद्रको योगमर्हति। इति क.पाठः यथेळकाः इति ट. पाठः।। 8-34-37 प्रमेहन्ति मूत्रयन्ते। दशेरकाः गर्दभाः। यथैवोष्ट्रा यथेळकाः इति ट.पाठः।। 8-34-38 सुवीरकं काञ्जिकम्। स्फिचौ कटिप्रोथौ।। 8-34-40 निर्हीकाः निर्लज्जाः। घस्मराः बहुभक्षकाः।। 8-34-42 वक्तव्येषु गर्हणीयेषु।। 8-34-45 साम्पराये समूहे सङ्ग्राये इत्यर्थः। मुञ्जेयं जीवितमिति शेषः।। 8-34-47 उपहितः उपजप्त।। 8-34-49 सारङ्ग इव घर्मान्ते इति क.ड.पाठः।। 8-34-54 अपवादो निन्दा तितिक्षा च तैस्त्रिभित्रहितुभिः।। 8-34-34 चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-033 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-035 |