महाभारतम्-08-कर्णपर्व-042
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
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धृतराष्ट्र उवाच। | 8-42-1x |
तथा व्यूढेष्वनीकेषु संसक्तेषु च सञ्जय। संशप्तकाः कथं पार्थं कथं कर्णं च पाण्डवाः।। | 8-42-1a 8-42-1b |
एतद्विस्तरशो युद्धं प्रब्रूहि कुशलो ह्यसि। न हि तृप्यामि वीराणां शृण्वानो युधि विक्रमम्।। | 8-42-2a 8-42-2b |
सञ्जय उवाच। | 8-42-3x |
तत्संस्थिमथो दृष्ट्वा प्रत्यमित्रं महद्बलम्। प्रत्यव्यूहत्ततः कर्णो हितार्थं तनयस्य ते।। | 8-42-3a 8-42-3b |
तत्सादिनागकलिलं पदातिरथसङ्कुलम्। धृष्टद्युम्नमुखं घोरमशोभत महद्बलम्।। | 8-42-4a 8-42-4b |
पारावतसवर्णाश्वश्चन्द्रसूर्यसमद्युतिः। स पार्षतो बभौ धन्वी कालो विग्रहवानिव।। | 8-42-5a 8-42-5b |
पार्षतं त्वभितस्तस्थुर्द्रौपदेया युयुत्सवः। सानुगा दीप्तवपुषश्चन्द्रं तारागणा इव।। | 8-42-6a 8-42-6b |
अथ व्यूढेष्वनीकेषु प्रेक्ष्य संशप्तकान्रणे। क्रुद्धोऽर्जुनोऽभिदुद्राव व्याक्षिपन्गाण्डिवं धनुः।। | 8-42-7a 8-42-7b |
अथ संशप्तकाः पार्थमभ्यधावन्वधैषिणः। विजये धृतसङ्कल्पा मृत्युं कृत्वानिवर्तनम्।। | 8-42-8a 8-42-8b |
तदश्वसङ्घबहुलं पत्तिनागरथाकुलम्। उदीर्यमाणं संरब्धं धनञ्जयमभिद्रवत्।। | 8-42-9a 8-42-9b |
तदुद्यतं महत्सैन्यं सागरौघसमं जवे। पार्थवेलां समासाद्य विष्ठितं समदृश्यत।। | 8-42-10a 8-42-10b |
मृद्गन्तं शवर्षौघैर्द्रुतमर्जुनमार्दयत्।। | 8-42-11a |
स सम्प्रहारस्तुमुलस्तेषामासीत्किरीटिना। तस्यैव तु यथा राजन्निवातकवचैः सह।। | 8-42-12a 8-42-12b |
रथानश्वान्ध्वजान्नागान्पत्तीन्गजगतानपि। इषून्धनूंषि खङ्गांश्च चक्राणि च परश्वथान्।। | 8-42-13a 8-42-13b |
सायुधानुद्यतान्बाहून्विविधान्यायुधानि च। चिच्छेद द्विषतां पार्थः शिरांसि च सहस्रशः।। | 8-42-14a 8-42-14b |
तस्मिन्सैन्यमहावर्ते पातालतलसन्निभे। निमग्नं तं रथं मत्वा नेदुः संशप्तका मुदा।। | 8-42-15a 8-42-15b |
स पुरस्तादरीन्हत्वा पुनरुत्तरतोऽवधीत्। दक्षिणेन च पश्चाच्च क्रुद्धो रुद्रः पशूनिव।। | 8-42-16a 8-42-16b |
अथ पाञ्चालचेदीनां सृढ्जयानां च मारिष। त्वदीयैः सह सङ्ग्राम आसीत्परमदारुणः।। | 8-42-17a 8-42-17b |
कृपश्च कृतवर्मा च शकुनिश्चापि सौबलः। हृष्टसेनाः सुसंरब्धा रथानीकप्रहारिणः।। | 8-42-18a 8-42-18b |
कोसलैः काश्यमत्स्यैश्च कारूशैः केकयैरपि। शूरसेनैः शूरवरैर्युयुधुर्युद्धदुर्मदाः।। | 8-42-19a 8-42-19b |
तेषामन्तकरं युद्धं देहपाप्मविनाशनम्। क्षत्रविट्शूद्रवीराणां धर्म्यं स्वर्ग्यं यशस्करम्।। | 8-42-20a 8-42-20b |
दुर्योधनोऽथ सहितो भ्रातृभिर्भरतर्षभ। गुप्तः कुरुप्रवीरैश्च मद्राणां च महारथैः।। | 8-42-21a 8-42-21b |
पाण्डवैः सह पाञ्चालैश्चेदिभिः सात्यकेन च। युध्यमानं रणे कर्णं कुरुवीरोऽभ्यपालयत्।। | 8-42-22a 8-42-22b |
कर्णोऽपि निशितैर्बाणैर्विनिहत्य महाचमूम्। प्रमृद्य च रथश्रेष्ठान्युधिष्ठिरमपीडयत्।। | 8-42-23a 8-42-23b |
विपत्रायुधदेहासून्कृत्वा शत्रून्सहस्रशः। युक्त्वा स्वर्गयशोभ्यां च स्वेभ्यो मुदमुदावहत्।। | 8-42-24a 8-42-24b |
तद्विगाह्य महानीकं सूतपुत्रो महारथः। नदीं प्रवर्तयामास शोणितौघतरङ्गिणीम्।। | 8-42-25a 8-42-25b |
शोणितोदां क्षुण्णमत्स्थां नागनक्रदुरत्ययाम्। मांलमज्जाकर्दमिनीं चक्रकूर्ममहोडुपाम्।। | 8-42-26a 8-42-26b |
पातितैर्मेघसङ्काशैस्तत्रतत्र महाद्विपैः। अशनीभिरिव ध्वस्ता नदी राजन्विराजते।। | 8-42-27a 8-42-27b |
तां शरोर्मिमहावर्तां छत्रहंससमाकुलाम्। तनुत्रोष्णीषसङ्घाटामस्थिपाषाणसङ्कुलाम्।। | 8-42-28a 8-42-28b |
अपारामनपारां च शङ्खदुन्दुभिघोषिणीम्। रौद्रां नदीं महाराज रजसा सर्वतोवृताम्।। | 8-42-29a 8-42-29b |
अतितीक्ष्णां नराकीर्णां नदीमन्तकगामिनीम्। समं च विषमं चैव समायान्तीं महाभयाम्।। | 8-42-30a 8-42-30b |
आकुलाश्चात्र सीदन्ति नराः शोणितकर्दमे। नरैरभिपरिक्षिप्ता यथा राजन्महाद्रुमाः।। | 8-42-31a 8-42-31b |
ततस्ते तत्रतत्रैव प्रचरन्तो महानदीम्। विचेरुः सर्वतो योधा नौवारणमहारथैः।। | 8-42-32a 8-42-32b |
शोणितेन समं राजन्कृतमासीत्समन्ततः। नदीवेगैर्यथा भूमिस्तद्वदासीद्विशापते।। | 8-42-33a 8-42-33b |
एवं भारत सङ्ग्रामो नरवाजिगजक्षयः। कुरूणां सृञ्जयानां च देवासुरसमोऽभवत्।। | 8-42-34a 8-42-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। 42 ।। |
8-42-20 क्षत्रविठ्शूद्रवीराणामित्यनेन ब्राह्मणादृते युद्धं सर्वेषां श्रेयस्करमित्यर्थः।। 8-42-24 युक्त्वा योजयित्वा।। 8-42-42 द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।।
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