महाभारतम्-08-कर्णपर्व-017
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कृपकृतवर्मक्ष्यां धृष्टद्युम्नशिखण्डिनोः पराजयः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-17-1x |
धृष्टद्युम्नं कृपो राजन्वारयामास संयुगे। यथा दृष्ट्वा वने सिंहं शरभो वारयेद्युधि।। | 8-17-1a 8-17-1b |
निरुद्वः पार्षतस्तेन गौतमेन बलीयसा। पदात्पदं विचलितुं नाशकत्तत्र भारत।। | 8-17-2a 8-17-2b |
गौतमस्य रथं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नरथं प्रति। वित्रेसुः सर्वभूतानि क्षयं प्राप्तं च मेनिरे।। | 8-17-3a 8-17-3b |
तदा जल्पन्ति पाण्डूनां रथिनः सादिनस्तथा। द्रोणस्य निधनान्नूनं सङ्क्रुद्वो द्विपदां वरः।। | 8-17-4a 8-17-4b |
शारद्वतो महातेजा दिव्यास्त्रविदुदारधीः। अपि स्वस्ति भवेदद्य धृष्टद्युम्नस्य गौतमात्।। | 8-17-5a 8-17-5b |
अपीयं वाहिनी कृत्स्ना मुच्येत महतो भयात्। अप्ययं ब्राह्मणः सर्वान्न नो हन्यात्समागतान्।। | 8-17-6a 8-17-6b |
यादृशं दृश्यते रूपमन्तकप्रतिमं रणे। गमिष्यत्यद्य पदवीं भारद्वाजस्य गौतमः।। | 8-17-7a 8-17-7b |
आचार्यः क्षिप्रहस्तश्च विजयी च सदा युधि। अस्त्रवान्वीर्यसम्पन्नः क्रोधेन च समन्वितः।। | 8-17-8a 8-17-8b |
पार्षतश्च महायुद्वे विमुखोऽद्याभिलक्ष्यते। इत्येवं विविधा वाचस्तावकानां परैः सह। व्यश्रूयन्त महाराज तयोस्तत्र समागमे।। | 8-17-9a 8-17-9b 8-17-9c |
विनिःश्वस्य ततः क्रोधात्कृपः शारद्वतो नृप। पार्षतं चार्दयामास निश्चेष्टं सर्वमर्मसु।। | 8-17-10a 8-17-10b |
स हन्यमानः समरे गौतमेन महात्मना। कर्तव्यं न स्म जानाति मोहेन महता वृतः।। | 8-17-11a 8-17-11b |
तमब्रवीत्ततो यन्ता कञ्चित्क्षेमं तु पार्षत। ईदृशं व्यसनं युद्धे न ते दृष्टं मया क्वचित्।। | 8-17-12a 8-17-12b |
दैवयोगात्तु ते बाणा नापतन्मर्मभेदिनः। प्रेषिता द्विजमुख्येन मर्माण्युद्दिश्य सर्वतः।। | 8-17-13a 8-17-13b |
व्यावर्तये रथं तूर्णं नदीवेगमिवार्णवात्। अवध्यं ब्राह्मणं मन्ये येन ते विक्रमो हतः।। | 8-17-14a 8-17-14b |
धृष्टद्युम्नस्ततो राजञ्शनकैरब्रवीद्वचः। मुह्यते मे मनस्तात गात्रस्वेदश्च जायते।। | 8-17-15a 8-17-15b |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च सारथे। वर्जयन्ब्राह्मणं युद्धे शनैर्याहि यतोऽर्जुनः।। | 8-17-16a 8-17-16b |
अर्जुनं भीमसेनं वा समरे प्राप्य सारथे। क्षेममद्य भवेन्मह्यमिति मे नैष्ठिकी मतिः।। | 8-17-17a 8-17-17b |
ततः प्रायान्महाराज सारथिस्त्वरयन्हयान्। यतो भीमो महेष्वासो युयुधे तव सैनिकैः।। | 8-17-18a 8-17-18b |
प्रद्रुतं च रथं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नस्य मारिष। किरञ्शरशतान्येव गौतमोऽनुययौ तदा।। | 8-17-19a 8-17-19b |
शङ्खं च पूरयामास मुहुर्मुहुररिन्दमः। पार्षतं त्रासयामास महेन्द्रो नमुचिं यथा।। | 8-17-20a 8-17-20b |
शिखण्डिनं तु समरे भीष्ममृत्युं दुरासदम्। हार्दिक्यो वारयामास स्मयन्निव मुहुर्मुहुः।। | 8-17-21a 8-17-21b |
शिखण्डी तु समासाद्य हृदिकानां महारथम्। पञ्चभिर्निशितैर्भल्लैर्जत्रुदेशे समाहनत्।। | 8-17-22a 8-17-22b |
कृतवर्मा तु सङ्क्रद्धो भित्त्वा षष्ट्या पतत्रिभिः। धनुरेकेन चिच्छेद हसन्राजन्महारथः।। | 8-17-23a 8-17-23b |
अथान्यद्वनुरादाय द्रुपदस्यात्मजो बली। तिष्ठतिष्ठेति सङ्क्रुद्धो हार्दिक्यं प्रत्यभाषत।। | 8-17-24a 8-17-24b |
ततोऽस्य नवतिं बाणान्रुक्मपुङ्खान्सुतेजनान्। प्रेषयामास राजेन्द्र तेऽस्याभ्रश्यन्त वर्मणः।। | 8-17-25a 8-17-25b |
वितथांस्तान्समालक्ष्य पतितांश्च महीतले। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन कार्मुकं चिच्छिदे भृशम्।। | 8-17-26a 8-17-26b |
अथैनं छिन्नधन्वानं भग्नशृङ्गमिवर्षभम्। अशीत्या मार्गणैः क्रुद्धो बाह्वोरुरसि चार्पयत्।। | 8-17-27a 8-17-27b |
कृतवर्मा तु सङ्क्रुद्धो मार्गणैः क्षतविक्षतः। ववाम रुधिरं गात्रैः कुम्भवक्रादिवोदकम्।। | 8-17-28a 8-17-28b |
रुधिरेण परिक्लिन्नः कृतवर्मा त्वराजत। वर्षेण क्लेदितो राजन्यथा गैरिकपर्वतः।। | 8-17-29a 8-17-29b |
अथान्यद्वनुरादाय समार्गणगुणं प्रभुः। शिखण्डिनं बाणगणैः स्कन्धदेशे व्यताडयत्।। | 8-17-30a 8-17-30b |
स्कन्धदेशस्थितैर्बाणैः शिखण्डी तु व्यराजत। शाखाप्रशाखाविपुलः सुमहान्पादपो यथा।। | 8-17-31a 8-17-31b |
तावन्योन्यं भृशं विद्व्वा रुधिरेण समुक्षितौ। `पोप्लुयमानौ हि यथा महान्तौ शोणितहदे। तद्वद्विरेजतुर्वीरौ शोणितेन परिप्लुतौ।। | 8-17-32a 8-17-32b 8-17-32c |
यथा च किंशुकौ फुल्लौ पुष्पमासे समागते। रुधिरोक्षितसर्वाङ्गौ रक्तचन्दनरूषितौ। भुजगाविव सङ्क्रुद्धौ रेजतुस्तौ नरोत्तमौ।। | 8-17-33a 8-17-33b 8-17-33c |
तावुभौ शरवनुन्नाङ्गौ परस्परशरक्षतौ'। अन्योन्यशृङ्गाभिहतौ रेजतुर्वृषभाविव।। | 8-17-34a 8-17-34b |
अन्योन्यस्य वधे यत्नं कुर्वाणौ तौ महारथौ। रथाभ्यां चेरतुस्तत्र मण्डलानि सहस्रशः।। | 8-17-35a 8-17-35b |
कृतवर्मा महाराज पार्षतं निशितैः शरैः। रणे विव्याध सप्तत्या स्वर्णपुङ्गैः शिलाशितैः।। | 8-17-36a 8-17-36b |
ततोऽस्य समरे बाणं भोजः प्रहरतां वरः। जीवितान्तकरं घोरं व्यसृजत्त्वरयाऽन्वितः।। | 8-17-37a 8-17-37b |
स तेनाभिहतो राजन्मूर्च्छामाशु समाविशत्। ध्वजयष्टिं च सहसा शिश्रिये कश्मलावृतः।। | 8-17-38a 8-17-38b |
अपोवाह रणात्तूर्णं सारथी रथिनां वरम्। हार्दिक्यशरसन्तप्तं निःश्वसन्तं पुनःपुनः।। | 8-17-39a 8-17-39b |
पराजिते ततः शूरे द्रुपदस्यात्मजे प्रभो। व्यद्रवत्पाण्डवी सेना व्यधमाना समन्ततः।। | 8-17-40a 8-17-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि षोडशदिवसयुद्धे सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।। |
8-17-1 शरभोऽष्टपादः सिंहघाती पशुपक्षिशरीरो नृसिंहवत् द्व्यात्मा।। 8-17-12 ईदृशं व्यसनं यद्धेन मे दृष्टं कदाचन। दैवयोगादिमे बाणा न जघ्नर्मम चाहवे इति क.ख.ट.पाठः।। 8-17-13 ईदृशं व्यसनं यद्धेन मे दृष्टं कदाचन। दैवयोगादिमे बाणा न जघ्नर्मम चाहवे इति क.ख.ट.पाठः।। 8-17-25 अभ्रश्यन्त भ्रष्टाः। वर्म न चिच्छिदुरित्यर्थः।। 8-17-28 ववाम वान्तवान्।। 8-17-36 पार्षतं शिखंडिनं।। 8-17-17 सप्तदशोऽध्यायः।।
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