महाभारतम्-08-कर्णपर्व-049
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-49-1x |
कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सूतपुत्रश्च मारिष। उलूकः सौबलश्चैव राजा च सह सोदरैः।। | 8-49-1a 8-49-1b |
सीदमानां चमूं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रभयार्दिताम्। समुज्जह्रुः स्म वेगेन भिन्नां नावमिवार्णवे।। | 8-49-2a 8-49-2b |
ततो युद्धमतीवासीन्मुहूर्तमिव भारत। भीरूणां त्रासजननं शूराणां हर्षवर्धनम्।। | 8-49-3a 8-49-3b |
कृपेण शरवर्षाणि प्रतिमुक्तानि संयुगे। सृञ्जयांश्छादयामासुः शलभानां व्रजा इव।। | 8-49-4a 8-49-4b |
शिखण्डी च ततः क्रुद्धो गौतमं त्वरितो ययौ। ववर्ष शरवर्षाणि समन्ताद्द्विजपुङ्गवम्।। | 8-49-5a 8-49-5b |
कृपस्तु शरवर्षं तद्विनिहत्य महास्त्रवित्। शिखण्डिनं रणे क्रुद्धो विव्याध दशभिः शरैः।। | 8-49-6a 8-49-6b |
ततः शिखण्डी कुपितः शरैः सप्तभिराहवे। कृपं विव्याध कुपितं कङ्कपत्रैरजिह्मगैः।। | 8-49-7a 8-49-7b |
ततः कृपः शरैस्तीक्ष्णैः सोऽतिविद्धो महारथः। `ततः सुनिशितैस्तीक्ष्णैः क्षुरप्रैर्हेमभूषितैः'। व्यश्वसूतरथं चक्रे शिखण्डिनमथो द्विजः।। | 8-49-8a 8-49-8b 8-49-8c |
हताश्वात्तु ततो यानादवप्लुत्य महारथः। खङ्गं चर्म तथा गृह्य सत्वरं ब्राह्मणं ययौ।। | 8-49-9a 8-49-9b |
तमापतन्तं सहसा शरैः सन्नतपर्वभिः। वारयामास समरे तदद्भुतमिवाभवत्।। | 8-49-10a 8-49-10b |
तत्राद्भुतमपश्याम शिलानां प्लवनं यथा। निश्चेष्टो यद्रणे राजञ्छिखण्डी समतिष्ठत।। | 8-49-11a 8-49-11b |
कृपेण वारितं दृष्ट्वा शिखण्डिनमथो नृप। प्रत्युद्ययौ कृपं तूर्णं धृष्टद्युम्नो महारथः।। | 8-49-12a 8-49-12b |
धृष्टद्युम्नं ततो यान्तं शारद्वतरथं प्रति। प्रतिजग्राह वेगेन कृतवर्मा महारथः।। | 8-49-13a 8-49-13b |
युधिष्ठिरमथायान्तं शारद्वतरथं प्रति। सपुत्रं सहसैन्यं च द्रोणपुत्रो न्यवारयत्।। | 8-49-14a 8-49-14b |
नकुलं सहदेवं च त्वरमाणौ महारथौ। प्रतिजग्राह ते पुत्रः शरवर्षेण वारयन्।। | 8-49-15a 8-49-15b |
भीमसेनं करूशांश्च केकयान्सह सृञ्जयैः। कर्णो वैकर्तनो युद्धे वारयामास भारत।। | 8-49-16a 8-49-16b |
शिखण्डिने ततो बाणान्कृपः शारद्वतो युधि। प्राहिणोत्तवरया युक्तो बीभत्सोरथ सन्निधौ।। | 8-49-17a 8-49-17b |
ताञ्छरान्प्रेषितांस्तेन समन्तात्स्वर्णभूषितान्। चिच्छेद खङ्गमाविध्य भ्रामयंश्च पुनः पुनः।। | 8-49-18a 8-49-18b |
शतचन्द्रं च तच्चर्म गौतमस्तस्य भारत। व्यधमत्सायकैस्तूर्णं तत उच्चुक्रुशुर्जनाः।। | 8-49-19a 8-49-19b |
स विचर्मा महाराज खङ्गपाणिरुपाद्रवत्। कृपस्तं शरसङ्घातैराद्रवन्तमपीडयत्।। | 8-49-20a 8-49-20b |
शारद्वतशरैर्ग्रस्तं क्लिश्यमानं महाबलः। चित्रकेतुसुतो राजन्सुकेतुस्त्वरितो ययौ।। | 8-49-21a 8-49-21b |
विकिरन्ब्राह्मणं युद्धे बहुभिर्निशितैः शरैः। अभ्यापतदमेयात्मा गौतमस्य रथं प्रति।। | 8-49-22a 8-49-22b |
दृष्ट्वा विषक्तं तं चैव ब्राह्मणं च निवारितम्। अपयातस्ततस्तूर्णं शिखण्डी राजसत्तम।। | 8-49-23a 8-49-23b |
सुकेतुस्तु ततो राजन्गौतमं नवभिः शरैः। विद्ध्वा विव्याध सप्तत्या पुनश्चैनं त्रिभिः शरैः।। | 8-49-24a 8-49-24b |
अथास्य सशरं चापं पुनश्चिच्छेद मारिष। सारथिं च शरेणास्य मृशं मर्मस्वताडयत्।। | 8-49-25a 8-49-25b |
गौतमस्तु ततः क्रुद्धो धनुर्गृह्य नवं दृढम्। सुकेतुं त्रिंशता बाणैः सर्वमर्मस्वताडयत्।। | 8-49-26a 8-49-26b |
स विह्वलितसर्वाङ्गः प्रचचाल रथोत्तमे। भूमिकम्पे यथा वृक्षश्चचालाकम्पितो भृशम्।। | 8-49-27a 8-49-27b |
चलतस्तस्य कायात्तुं शिरो ज्वलितकुण्डलम्। सोष्णीषं सशिरस्त्राणं क्षुरप्रेण त्वपातयत्।। | 8-49-28a 8-49-28b |
तच्छिरः प्रापतद्भूमौ श्येनाहृतमिवामिषम्। ततोऽस्य कायो वसुधां पश्चात्प्रापतदच्युत।। | 8-49-29a 8-49-29b |
तस्मिन्हते महाराज पुत्रास्तस्य पदानुगाः। गौतमं समरे त्यक्त्वा दुद्रुवुस्ते दिशो दश।। | 8-49-30a 8-49-30b |
धृष्टद्युम्नं तु समरे सन्निवार्य महारथः। कृतवर्माऽब्रवीद्वृष्टस्तिष्ठतिष्ठेति भारत।। | 8-49-31a 8-49-31b |
तदभूत्तुमुलं युद्वं वृष्णिपार्षतयो रणे। आमिषार्थे यथा युद्धं श्येनयोः क्रुद्धयोर्नृप।। | 8-49-32a 8-49-32b |
धृष्टद्युम्नस्तु समरे हार्दिक्यं नवभिः शरैः। आजघानोरसि क्रुद्वः पीडयन्हृदिकात्मजम्।। | 8-49-33a 8-49-33b |
कृतवर्मा तु समरे पार्षतेन दृढाहतः। पार्षतं सरथं साश्वं छादयामास सायकैः।। | 8-49-34a 8-49-34b |
सरथश्छादितो राजन्धृष्टद्युम्नो न दृश्यते। मेघैरिव परिच्छन्नो भास्करो जलधारिभिः।। | 8-49-35a 8-49-35b |
विधूय तं बाणगणं शरैः कनकभूषणैः। व्यरोचत रणे राजन्धृष्टद्युम्नः कृतव्रणः।। | 8-49-36a 8-49-36b |
ततस्तु पार्षतः क्रुद्धः शस्त्रवृष्टिं सुदारुणाम्। कृतवर्माणमासाद्य व्यसृजत्पृतनापतिः।। | 8-49-37a 8-49-37b |
तामापतन्तीं सहसा शस्त्रवृष्टिं सुदारुणाम्। शरैरनेकसाहस्रैर्हार्दिक्योऽवारयद्युधि।। | 8-49-38a 8-49-38b |
दृष्ट्वा तु वारितां युद्धे शस्त्रवृष्टिं दुरासदाम्। कृतवर्माणमासाद्य वारयामास पार्षतः।। | 8-49-39a 8-49-39b |
`यथा युग्मरथेनाजौ वाहान्वाहेरमिश्रयत्। गृहीत्वा चर्म खङ्गं च रथं तस्यावपुप्लुवे।। | 8-49-40a 8-49-40b |
मिलितेष्वथ वाहेषु प्रत्यासन्ने च पार्षते। दृष्ट्वाऽपदानं तस्याशु गदां जग्राह सात्वतः।। | 8-49-41a 8-49-41b |
गदापाणिस्ततो राजन्रथात्तूर्णमवप्लुतः। तमदृष्ट्वा रथोपस्थे सारथिं समताडयत्।। | 8-49-42a 8-49-42b |
खङ्गेन शितधारेण स हतः प्रापतद्रथात्। कृतवर्मा ततो हृष्टस्तलशब्दं चकार ह।। | 8-49-43a 8-49-43b |
पार्षतं चाब्रवीद्राजन्नेह्येहीति पुनःपुनः। स तं न ममृषे युद्वे तलशब्दं समीरितम्।। | 8-49-44a 8-49-44b |
अवप्लुत्य रथात्तस्मात्स्वरथं पुनरास्थितः। अभ्ययात्स तु तत्तूर्णं तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 8-49-45a 8-49-45b |
ततो राजन्महेष्वासं कृतवर्माणमाशु वै। गदां गृह्य पुनर्वेगात्कृतवर्माणमाहनत्।। | 8-49-46a 8-49-46b |
सोऽतिविद्वो बलवता न्यपतन्मूर्च्छया हतः। श्रुतर्वा रथमारोप्य अपोवाह रणाजिरात्'।। | 8-49-47a 8-49-47b |
धृष्टद्युम्नस्तु समरे दृष्ट्वा शत्रुं महारथः। कौरवान्समरे तूर्णं वारयामास सायकैः।। | 8-49-48a 8-49-48b |
ततस्ते तावका योधा धृष्टद्युम्नमुपाद्रवन्। सिंहनादरवांश्चक्रुस्ततो युद्धमवर्तत।। | 8-49-49a 8-49-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे एकोनपञ्चाशोऽध्यायः।। 49 ।। |
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