महाभारतम्-08-कर्णपर्व-044
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कर्णेन युधिष्ठिरस्य पराजयपूर्वकमपहासः।। 1 ।।
सङ्कुलयुद्धम्।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 8-44-1x |
विदार्य कर्णस्तां सेनां युधिष्ठिरमथाद्रवत्। रथहस्त्यश्वपत्तीनां सहस्रैः परिवारितः।। | 8-44-1a 8-44-1b |
नानायुधसहस्राणि प्रेरितान्यरिभिर्वृषः। छित्त्वा बाणशतैरुग्रैस्तानविध्यदसम्भ्रमात्।। | 8-44-2a 8-44-2b |
निचकर्त शिरांस्येषां बाहूनूरूंश्च सूतजः।। ते हता भूतले पेतुर्भग्नाश्चान्ये विदुद्रुवुः।। | 8-44-3a 8-44-3b |
द्रविडान्ध्रनिषादास्तु पुनः सात्यकिचोदिताः। प्रभ्यद्रवञ्जिघांसन्तः पत्तयः कर्णमाहवे।। | 8-44-4a 8-44-4b |
ते विबाहुशिरस्त्राणाः प्रहताः कर्णसायकैः। पेतुः पृथिव्यां युगपच्छिन्नं सालवनं यथा।। | 8-44-5a 8-44-5b |
एवं योधशतान्याजौ सहस्राण्ययुतानि च। हतानीयुर्महीं देहैर्यशसाऽपूरयन्दिशः।। | 8-44-6a 8-44-6b |
अथ वैकर्तनं कर्णं रणे क्रुद्धमिवान्तकम्। रुरुधुः पाण्डुपाञ्चाला व्याधिं मन्त्रौषधा इव।। | 8-44-7a 8-44-7b |
स तान्प्रमृद्याब्यपतत्पुनरेव युधिष्ठिरम्। मन्त्रौषधिक्रियातीतो व्याधिरत्युल्बणो यथा।। | 8-44-8a 8-44-8b |
स राजगृद्धिभी रुद्धः पाण्डुपाञ्चालकेकयैः। नाशकत्तानतिक्रान्तुं मृत्युर्ब्राह्मविदो यथा।। | 8-44-9a 8-44-9b |
ततो युधिष्ठिरः कर्णमदूरस्थं निवारितम्। `तैर्योधप्रमुखैर्वीरं दृष्ट्वा विव्याध सायकैः।। | 8-44-10a 8-44-10b |
कर्णः पार्थशराविद्धस्तोत्रार्दित इव द्विपः। प्रमथ्य सहितान्वीरान्युधिष्ठिरमपीडयत्।। | 8-44-11a 8-44-11b |
ततो युधिष्ठिरः कर्णमासाद्य जयतां वरम्'। अब्रवीत्परवीरघ्नं क्रोधसंरक्तलोचनः।। | 8-44-12a 8-44-12b |
कर्णकर्ण वृथादृष्टे सूतपुत्र वचः शृणु। सदा स्पर्धसि सङ्ग्रामे फल्गुनेन तरस्विना।। | 8-44-13a 8-44-13b |
यथाऽस्मान्बाधसे नित्यं धार्तराष्ट्रमते स्थितः। यद्बलं यच्च ते वीर्यं प्रद्वेषो यस्तु पाण्डुषु।। | 8-44-14a 8-44-14b |
तत्सर्वं दर्शयस्वाद्य पौरुषं महदास्थितः। युद्धश्रद्वां च तेऽद्याहं विनेष्यामि महाहवे।। | 8-44-15a 8-44-15b |
एवमुक्त्वा महाराज कर्णं पाण्डुसुतस्तदा। सुवर्णपुङ्खैर्दशभिर्विव्यादायस्मयैः शरैः।। | 8-44-16a 8-44-16b |
तं सूतपुत्रो दशभिः प्रत्यविद्ध्यदरिन्दमः। वत्सदन्तैर्महेष्वासः प्रहसन्निव भारत।। | 8-44-17a 8-44-17b |
सोऽवज्ञाय तु निर्विद्धः सूतपुत्रेण पाण्डवः। प्रजज्वाल ततः क्रोधाद्धविषेव हुताशनः।। | 8-44-18a 8-44-18b |
ज्वालामालापरिक्षिप्तो राज्ञो देहो व्यदृश्यत। युगान्ते दग्धुकामस्य संवर्ताग्नेरिवापरः।। | 8-44-19a 8-44-19b |
ततो विस्फार्य सुमहच्चापं हेमपरिष्कृतम्। समाधत्त शितं बाणं गिरीणामपि दारणम्।। | 8-44-20a 8-44-20b |
ततः पूर्णायतोत्कृष्टं यमदण्डनिभं शरम्। मुमोच त्वरितो राजा सूतपुत्रजिघांसया।। | 8-44-21a 8-44-21b |
स तु वेगवता मुक्तो बाणो वज्राशनिस्वनः। विवेश सहसा कर्णं सव्ये पार्श्वे महारथम्।। | 8-44-22a 8-44-22b |
स तु तेन प्रहारेण पीडितः प्रमुमोह वै। स्रस्तगात्रो महाबाहुर्धनुरुत्सृज्य कम्पितः।। | 8-44-23a 8-44-23b |
गतासुरिव निश्चेताः शल्यस्याभिमुखोऽपतत्। राजाऽपि भूयो नाजघ्ने कर्णं पार्थहितेप्सया।। | 8-44-24a 8-44-24b |
ततो हाहाकृतं सर्वं धार्तराष्ट्रबलं महत्। विवर्णमुखमार्तं च कर्णं दृष्ट्वा तथागतम्।। | 8-44-25a 8-44-25b |
सिंहनादाश्च सञ्जज्ञुः क्ष्वेलाः किलकिलास्तथा। पाण्डवानां महाराज दृष्ट्वा राज्ञः पराक्रमम्।। | 8-44-26a 8-44-26b |
प्रतिलभ्य तु राधेयः संज्ञां नातिचिरादिव। दध्रे राजविनाशाय मनः क्रूरपराक्रमः।। | 8-44-27a 8-44-27b |
स हेमविकृतं चापं विस्फार्य विजयं महत्। अवाकिरदमेयात्मा पाण्डवं निशितैः शरैः।। | 8-44-28a 8-44-28b |
ततः क्षुराभ्यां पाञ्चाल्यौ चक्ररक्षौ महात्मनः। जघान चन्द्रदेवं च दण्डधारं च संयुगे।। | 8-44-29a 8-44-29b |
तावुभौ धर्मराजस्य प्रवीरौ युधि भारत। रथाभ्याशे चकाशेते चन्द्रस्येव पुनर्वसू।। | 8-44-30a 8-44-30b |
युधिष्ठिरः पुनः कर्णमविद्व्यत्त्रिंशता शरैः। सुषेणं सत्यसेनं च त्रिभिस्त्रिभिरताडयत्।। | 8-44-31a 8-44-31b |
शल्यं नवत्या विव्याध त्रिसप्तत्या च सूतजम्। तांस्तस्य गोप्तॄन्विव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः।। | 8-44-32a 8-44-32b |
ततः प्रहस्याधिरथिः षष्ठ्या राजञ्शितैः शरैः। विद्ध्वा युधिष्ठिरं सङ्ख्ये ननादातिरथस्तदा।। | 8-44-33a 8-44-33b |
ततः प्रवीराः पाण्डूनामभ्यधावन्नमर्षिताः। युधिष्ठिरं परीप्सन्तः कर्णमभ्यर्दयञ्छरैः।। | 8-44-34a 8-44-34b |
सात्यकिश्चेकितानश्च युयुत्सुः पाण्ड्य एव च। धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः।। | 8-44-35a 8-44-35b |
यमौ च भीमसेनश्च शिशुपालस्य चात्मजः। कारूशा मात्स्यशेषाश्च केकयाः काशिकोसलाः।। | 8-44-36a 8-44-36b |
एते च त्वरिता वीरा वसुषेणमताडयन्। जनमेजयश्च पाञ्चाल्यः कर्णं विव्याध सायकैः।। | 8-44-37a 8-44-37b |
वाराहकर्णनाराचैर्नालीकैर्निशितैः शरैः। वत्सदन्तैर्विपाठैश्च क्षुरप्रैश्चटकामुखैः।। | 8-44-38a 8-44-38b |
नानाप्रहरणैश्चोग्रै रथहस्त्यश्वसादिभिः। सर्वतोऽभ्यद्रवत्कर्णं परिवार्य जिघांसया।। | 8-44-39a 8-44-39b |
स पाण्डवानां प्रवरैः सर्वतः समभिद्रुतः। छाद्यमानः शिततैर्घोरैः स्वस्वनामाङ्कितैः शरैः।। | 8-44-40a 8-44-40b |
न चचाल रणे कर्णो महेन्द्रो दानवैरिव। `निजघान महेष्वासान्पाञ्चालानेकविंशतिम्।। | 8-44-41a 8-44-41b |
ततः पुनरमेयात्मा चेदीनां प्रवरान्दश। न्यहनद्भरतश्रेष्ठ कर्णो वैकर्तनस्तदा।। | 8-44-42a 8-44-42b |
तस्य बाणसहस्राणि सम्प्रपन्नानि मारिष। दृश्यन्ते दिक्षु सर्वासु शलभानामिव व्रजाः।। | 8-44-43a 8-44-43b |
कर्णनामाङ्किता बाणाः स्वर्णपुङ्खाः सुतेजनाः। नराश्वकायान्निर्भिद्य पेतुरुर्व्यां समन्ततः।। | 8-44-44a 8-44-44b |
कर्णेनैकेन समरे चेदीनां प्रवरास्तदा। सृज्जयानां च सर्वेषां शतशो निहता रणे।। | 8-44-45a 8-44-45b |
कर्णस्य शरसञ्छन्नं बभूव तुमुलं तमः। नाज्ञायत ततः किञ्चित्परेषामात्मनोऽपि वा।। | 8-44-46a 8-44-46b |
तस्मिंस्तमसि भूते च क्षत्रियाणां भयङ्करे। विचचार महबिहुर्निर्दहन्क्षत्रियान्बहून्'।। | 8-44-47a 8-44-47b |
ततः शरमहाज्वालो वीर्योष्मा कर्णपावकः। निर्दहन्पाण्डववनं चारु पर्यचरद्रणे।। | 8-44-48a 8-44-48b |
`ततस्तेषां महाराज पाण्डवानां महारथाः। सृञ्जयानां च सर्वेषां शतशोऽथ सहस्रशः। अस्त्रैः कर्णं महेष्वासं समन्तात्पर्यवारयन्।। | 8-44-49a 8-44-49b 8-44-49c |
स संवार्य महास्त्राणि महेष्वासो महात्मनाम्। प्रहस्य पुरुषेन्द्रस्य कर्णश्चिच्छेद कार्मुकम्'।। | 8-44-50a 8-44-50b |
ततः सन्धाय नवतिं निमेषान्नतपर्वणाम्। बिभेद कवचं राज्ञो रणे कर्णः शितैः शरैः।। | 8-44-51a 8-44-51b |
तद्वर्म हेमविकृतं रत्नचित्रं बभौ पतत्। सविद्युदभ्रं सवितुः श्लिष्टं वातहतं यथा।। | 8-44-52a 8-44-52b |
तदङ्गात्पुरुषेन्द्रस्य भ्रष्टं वर्म व्यरोचत। रत्नैरलंवृतं चित्रेर्व्यभ्नं निशि यथा नभः।। | 8-44-53a 8-44-53b |
भिन्नवर्मा शरैः पार्थो रुधिरेण समुक्षितः। बभासे पुरुषश्रेष्ठ उद्यन्निव दिवाकरः।। | 8-44-54a 8-44-54b |
स शराचितसर्वाङ्गश्छिन्नवर्माऽथ संयुगे। क्षात्रं धर्मं समास्थाय सिंहनादमकुर्वत।। | 8-44-55a 8-44-55b |
नर्दित्वा च चिरं कालं पाण्डवो रभसो रणे। शक्तिं चिक्षेप वेगेन प्रदीप्तामशनीमिव।। | 8-44-56a 8-44-56b |
तां ज्वलन्तीमिवाकाशे शक्तिं शप्तभिराशुगैः। भल्लैश्चिच्छेद राधेयः सा त्वशीर्यत वै रणे।। | 8-44-57a 8-44-57b |
हृदि बाह्वोर्ललाटे च क्षिप्रकारी युधिष्ठिरः। चतुर्भिस्तोमरैः कर्णं ताडयित्वाऽनदन्मुदा।। | 8-44-58a 8-44-58b |
उद्भिन्नरुधिरः कर्णः क्रुद्वः सर्प इव श्वसन्। जघान सूतं पार्थस्य पार्ष्ठिं च नवभिः शरैः।। | 8-44-59a 8-44-59b |
ध्वजं चिच्छेद नृपतेस्त्रिभिर्विव्याध चैव तम्। इषुधी चास्य चिच्छेद रथं च तिलशोऽच्छिनत्।। | 8-44-60a 8-44-60b |
एतस्मिन्नन्तरे शूराः पाण्डवानां महारथाः। | 8-44-61a 8-44-61b |
सात्यकिः पञ्चविंशत्या शिखण्डी नवभिः शरैः। अवर्षतां महाराज राधेयं शत्रुकर्शनम्।। | 8-44-62a 8-44-62b |
शैनेयं तु ततुः क्रुद्धः कर्णः पञ्चभिरायसैः। विव्याध समरे राजंस्त्रिभिश्चान्यैः शिलीमुखैः।। | 8-44-63a 8-44-63b |
दक्षिणं तु भुजं तस्य त्रिभिः कर्णोऽभ्यविध्यत। सव्यं षोडशभिर्बाणैर्यन्तारं चास्य सप्तभिः।। | 8-44-64a 8-44-64b |
अथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः। सूतपुत्रोऽनयत्क्षिप्रं यमस्य सदनं प्रति।। | 8-44-65a 8-44-65b |
अथापरेण भल्लेन धनुश्छित्त्वा महारथः। सारथेः सशिरस्त्राणं शिरः कायादपाहरत्।। | 8-44-66a 8-44-66b |
हताश्वसूते तु रथे स्थितः स शिनिपुङ्गवः। शक्तिं चिक्षेप कर्णाय वैदूर्यमणिभूषिताम्।। | 8-44-67a 8-44-67b |
तामापतन्तीं सहसा द्विधा चिच्छेद भारत। कर्णो वै धन्विनां श्रेष्ठस्तांश्च सर्वानवारयत्।। | 8-44-68a 8-44-68b |
ततस्तान्निशितैर्बाणैः पाण्डवानां महारथान्। न्यवारयदमेयात्मा शिक्षया च बलेन च।। | 8-44-69a 8-44-69b |
अर्दयित्वा शरैस्तांस्तु सिंहः क्षुद्रमृगानिव। पीडयन्धर्मराजानं शरैः सन्नतपर्वमिः। अभ्यद्रवत राधेयो धर्मपुत्रं शितैः शरैः।। | 8-44-70a 8-44-70b 8-44-70c |
ततः पार्षो ह्यपासासीद्वताश्वो हतसारथिः। अशक्नुवन्मुखे स्थातुं ततः कर्णस्य दुर्मनाः।। | 8-44-71a 8-44-71b |
तमभिद्रुत्य राधेयः पाण्डुपुत्रं युधिष्ठिरम्। अब्रवीत्प्रहसन्राजन्कुत्सयन्निव पाण्डवम्।। | 8-44-72a 8-44-72b |
कथं नाम कुले जातः क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः। प्रजह्यात्समरे शत्रून्प्राणान्रक्ष महाहवे।। | 8-44-73a 8-44-73b |
न भवान्क्षत्रधर्मेषु कुशलोऽसीति मे मतिः। ब्राह्मे बले भवान्युक्तः स्वाध्याये यज्ञकर्मणि।। | 8-44-74a 8-44-74b |
मा स्म युध्यस्व कौन्तेय मा स्म वीरान्समासदः। मा चैवं विप्रियं ब्रूहि मा च त्वं भज संयुगम्।। | 8-44-75a 8-44-75b |
वक्तव्या मारिषाऽन्ये तु न वक्तव्यास्तु मादृशाः। मादृशान्हि ब्रुवन्युद्धे एतदन्यच्च लप्स्यसे।। | 8-44-76a 8-44-76b |
स्वगृहं गच्छ कौन्तेय यत्र वा केशवार्जुनौ। न हि त्वां समरे राजन्हन्यात्कर्णः कथञ्चन।। | 8-44-77a 8-44-77b |
सञ्जय उवाच। | 8-44-78x |
वरप्रदानं कुन्त्यास्तु कर्णः स्मृत्वा महारथः। वधप्राप्तं तु कौन्तेयं नावधीत्पुरुषोत्तमः।। | 8-44-78a 8-44-78b |
एवमुक्त्वा ततः पार्थं विसृज्य च महाबलः। न्यहनत्पाण्डवीं सेनां वज्रहस्त इवासुरीम्।। | 8-44-79a 8-44-79b |
ततोऽपायाद्द्रुतं राजन्व्रीडन्निव नरेश्वरः।। | 8-44-80a |
अथापयातं राजानं मत्वाऽन्वीयुस्तमच्युतम्। चेदिपाण्डवपाञ्चालाः सात्यकिश्च महारथः। द्रौपदेयास्तथा शूरा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।। | 8-44-81a 8-44-81b 8-44-81c |
ततो युधिष्ठिरानीकं दृष्ट्वा कर्णः पराङ्मुखम्। कुरुभिः सहितो वीरः प्रहृष्टः पृष्ठतोऽन्वगात्।। | 8-44-82a 8-44-82b |
भेरीशङ्खमृदङ्गानां कार्मुकाणां च निःस्वनः। बभूव धार्तराष्ट्राणां सिंहनादरवस्तथा।। | 8-44-83a 8-44-83b |
युधिष्ठिरस्तु कौरव्य रथमारुह्य सत्वरम्। श्रुतकीर्तेर्महाराज दृष्ट्वा तत्कर्णविक्रमम्।। | 8-44-84a 8-44-84b |
काल्यमानं बलं दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष। स्वान्योधानब्रवीत्क्रुद्वो निघ्नतैतान्किमासत।। | 8-44-85a 8-44-85b |
ततो राज्ञाऽभ्यनुज्ञाताः पाण्डवानां महारथाः। भीमसेनमुखाः सर्वे पुत्रांस्ते प्रत्युपाद्रवन्।। | 8-44-86a 8-44-86b |
अभवत्तुमुलः शब्दो योधानां तत्र भारत। रथहस्त्यश्वपत्तीनां द्रवतां निनदो महान्। उद्यतप्रतिविष्टानां शस्त्राणां च ततस्ततः।। | 8-44-87a 8-44-87b 8-44-87c |
आगच्छत प्रहरत क्षिप्रं विपरिधावत। इति ब्रुवाणा ह्यन्योन्यं जघ्नुर्योधा महारणे।। | 8-44-88a 8-44-88b |
अभ्रच्छायेव तत्रासीच्छरवृष्टिभिरम्बरे। समावृतैर्नरवरैर्निघ्नद्भिरितरेतरम्।। | 8-44-89a 8-44-89b |
विपताकध्वजच्छत्रा व्यश्वसूतरथायुधाः। व्यङ्गाङ्गावयवाः पेतुः क्षितौ क्षीणाः क्षितीश्वराः। शिखराणीव शेलानां वज्रभिन्नानि मानिष।। | 8-44-90a 8-44-90b 8-44-90c |
सारोहा निहताः पेतुर्द्विपा भिन्ना महीतले। छिन्नभिन्नविपर्यस्तवर्मालङ्कारविग्रहाः।। | 8-44-91a 8-44-91b |
सारोहास्तुरगाः पेतुर्हतवीराः सहस्रशः। विप्रविद्वायुधाङ्गाश्च द्विरदा रथिभिर्हताः। प्रतिवीरैश्च सम्मर्दे पत्तिसङ्घाः सहस्रशः।। | 8-44-92a 8-44-92b 8-44-92c |
विशालायतताम्राक्षैः पद्मेन्दुसदृशाननैः। शिरोभिर्युद्धशौण्डानां सर्वतः संवृता मही।। | 8-44-93a 8-44-93b |
यथा भुवि तथा व्योम्नि निःस्वनं शुश्रुवुर्जनाः। विमानेऽप्सरसां सङ्घैर्गीतवादित्रनिःस्वनैः।। | 8-44-94a 8-44-94b |
हतानभिमुखान्वीरान्वीरैः शतसहस्रशः। आरोप्यारोप्य गच्छन्ति विमानेष्वप्सरोगणाः।। | 8-44-95a 8-44-95b |
तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं प्रत्यक्षं स्वर्गलिप्सया। प्रहृष्टमनसः शूराः क्षिप्रं जघ्नुः परस्परम्।। | 8-44-96a 8-44-96b |
रथिनो रथिभिः सार्धं चित्रं युयुधुराहवे। पत्तयः पत्तिभिर्नागाः सह नागैर्हयैर्हयोः।। | 8-44-97a 8-44-97b |
एवं प्रवृत्ते सङ्ग्रामे गजवाजिनरक्षये। सैन्येन रजसा वृत्तते स्वे स्वाञ्जघ्नुः परे परान्।। | 8-44-98a 8-44-98b |
कचाकचं युद्धमासीद्दन्तादन्ति नखानखि। मुष्टियुद्धं नियुद्धं च देहपाप्मविनाशनम्।। | 8-44-99a 8-44-99b |
तथा वर्ततति सङ्ग्रमे गजवाजिनरक्षये। नराश्वनागदेहेभ्यः प्रसृता लोहितापगा।। | 8-44-100a 8-44-100b |
गजाश्वनरदेहान्सा व्युवाह पतितान्बहून्। नराश्वगजसम्बाधे नराश्वगजसादिनाम्।। | 8-44-101a 8-44-101b |
लोहितोदा महाघोरा मांसशोणितकर्दमा। नराश्वगजदेहान्वै वहन्ती भीरुभीषणा।। | 8-44-102a 8-44-102b |
तस्या नद्याः परं पारं व्रजन्ति विजयैषिणः। नागेन च प्लवन्तो वै निमज्ज्योन्मज्ज्य चापरे।। | 8-44-103a 8-44-103b |
ते तु लोहितदिग्धाङ्गा रक्तवर्मायुधाम्बराः। सस्नुस्ततस्यां पपुश्चास्रं मम्लुश्च भरतर्षभ।। | 8-44-104a 8-44-104b |
रथानश्वान्नारान्नागानायुधाभरणानि च। वर्माणि चाप्यपश्याम पतितानि सहस्रशः। खं द्यां भूमिं दिशश्चैव प्रायः पश्याम लोहिताः।। | 8-44-105a 8-44-105b 8-44-105c |
लोहितस्य तु गन्धेन स्पर्देन च रसेन च। रूपेण चातिरक्ततेन शब्देन च विसर्पता। विषादः सुमहानासीत्प्रायः सैन्यस्य भारत।। | 8-44-106a 8-44-106b 8-44-106c |
तत्तु विप्रहतं सैन्यं भीमसेनमुखैस्तव। भूयः समाद्रवन्वीराः सातत्यकिप्रमुखास्तदा।। | 8-44-107a 8-44-107b |
तेषामापतततां वेगमविषह्यं निरीक्ष्य च। पुत्राणां ते महासैन्यमासीद्राजन्पराङ्मुखम्।। | 8-44-108a 8-44-108b |
तत्प्रकीर्णरथाश्वेभं नरवाजिसमाकुलम्। विध्वस्तवर्मकवचं प्रविद्वायुधकार्मुकम्।। | 8-44-109a 8-44-109b |
व्यद्रवत्तावकं सैन्यं लोड्यमानं समन्ततः। सिंहार्दितमिवारण्ये यथा गजकुलं तथा।। | 8-44-110a 8-44-110b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तदशदिवसयुद्धे चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 44 ।। |
8-44-8 मन्त्रौषधक्रिया व्याधिर्विधिहीनक्रिया इव इति ख.ट.पाठः।। 8-44-19 कचाकचि युद्धं इति झ.पाठः।। 8-44-44 चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।।
कर्णपर्व-043 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व-045 |