महाभारतम्-08-कर्णपर्व-044

← कर्णपर्व-043 महाभारतम्
अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-044
वेदव्यासः
कर्णपर्व-045 →

कर्णेन युधिष्ठिरस्य पराजयपूर्वकमपहासः।। 1 ।।
सङ्कुलयुद्धम्।। 2 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
सञ्जय उवाच। 8-44-1x
विदार्य कर्णस्तां सेनां युधिष्ठिरमथाद्रवत्।
रथहस्त्यश्वपत्तीनां सहस्रैः परिवारितः।।
8-44-1a
8-44-1b
नानायुधसहस्राणि प्रेरितान्यरिभिर्वृषः।
छित्त्वा बाणशतैरुग्रैस्तानविध्यदसम्भ्रमात्।।
8-44-2a
8-44-2b
निचकर्त शिरांस्येषां बाहूनूरूंश्च सूतजः।।
ते हता भूतले पेतुर्भग्नाश्चान्ये विदुद्रुवुः।।
8-44-3a
8-44-3b
द्रविडान्ध्रनिषादास्तु पुनः सात्यकिचोदिताः।
प्रभ्यद्रवञ्जिघांसन्तः पत्तयः कर्णमाहवे।।
8-44-4a
8-44-4b
ते विबाहुशिरस्त्राणाः प्रहताः कर्णसायकैः।
पेतुः पृथिव्यां युगपच्छिन्नं सालवनं यथा।।
8-44-5a
8-44-5b
एवं योधशतान्याजौ सहस्राण्ययुतानि च।
हतानीयुर्महीं देहैर्यशसाऽपूरयन्दिशः।।
8-44-6a
8-44-6b
अथ वैकर्तनं कर्णं रणे क्रुद्धमिवान्तकम्।
रुरुधुः पाण्डुपाञ्चाला व्याधिं मन्त्रौषधा इव।।
8-44-7a
8-44-7b
स तान्प्रमृद्याब्यपतत्पुनरेव युधिष्ठिरम्।
मन्त्रौषधिक्रियातीतो व्याधिरत्युल्बणो यथा।।
8-44-8a
8-44-8b
स राजगृद्धिभी रुद्धः पाण्डुपाञ्चालकेकयैः।
नाशकत्तानतिक्रान्तुं मृत्युर्ब्राह्मविदो यथा।।
8-44-9a
8-44-9b
ततो युधिष्ठिरः कर्णमदूरस्थं निवारितम्।
`तैर्योधप्रमुखैर्वीरं दृष्ट्वा विव्याध सायकैः।।
8-44-10a
8-44-10b
कर्णः पार्थशराविद्धस्तोत्रार्दित इव द्विपः।
प्रमथ्य सहितान्वीरान्युधिष्ठिरमपीडयत्।।
8-44-11a
8-44-11b
ततो युधिष्ठिरः कर्णमासाद्य जयतां वरम्'।
अब्रवीत्परवीरघ्नं क्रोधसंरक्तलोचनः।।
8-44-12a
8-44-12b
कर्णकर्ण वृथादृष्टे सूतपुत्र वचः शृणु।
सदा स्पर्धसि सङ्ग्रामे फल्गुनेन तरस्विना।।
8-44-13a
8-44-13b
यथाऽस्मान्बाधसे नित्यं धार्तराष्ट्रमते स्थितः।
यद्बलं यच्च ते वीर्यं प्रद्वेषो यस्तु पाण्डुषु।।
8-44-14a
8-44-14b
तत्सर्वं दर्शयस्वाद्य पौरुषं महदास्थितः।
युद्धश्रद्वां च तेऽद्याहं विनेष्यामि महाहवे।।
8-44-15a
8-44-15b
एवमुक्त्वा महाराज कर्णं पाण्डुसुतस्तदा।
सुवर्णपुङ्खैर्दशभिर्विव्यादायस्मयैः शरैः।।
8-44-16a
8-44-16b
तं सूतपुत्रो दशभिः प्रत्यविद्ध्यदरिन्दमः।
वत्सदन्तैर्महेष्वासः प्रहसन्निव भारत।।
8-44-17a
8-44-17b
सोऽवज्ञाय तु निर्विद्धः सूतपुत्रेण पाण्डवः।
प्रजज्वाल ततः क्रोधाद्धविषेव हुताशनः।।
8-44-18a
8-44-18b
ज्वालामालापरिक्षिप्तो राज्ञो देहो व्यदृश्यत।
युगान्ते दग्धुकामस्य संवर्ताग्नेरिवापरः।।
8-44-19a
8-44-19b
ततो विस्फार्य सुमहच्चापं हेमपरिष्कृतम्।
समाधत्त शितं बाणं गिरीणामपि दारणम्।।
8-44-20a
8-44-20b
ततः पूर्णायतोत्कृष्टं यमदण्डनिभं शरम्।
मुमोच त्वरितो राजा सूतपुत्रजिघांसया।।
8-44-21a
8-44-21b
स तु वेगवता मुक्तो बाणो वज्राशनिस्वनः।
विवेश सहसा कर्णं सव्ये पार्श्वे महारथम्।।
8-44-22a
8-44-22b
स तु तेन प्रहारेण पीडितः प्रमुमोह वै।
स्रस्तगात्रो महाबाहुर्धनुरुत्सृज्य कम्पितः।।
8-44-23a
8-44-23b
गतासुरिव निश्चेताः शल्यस्याभिमुखोऽपतत्।
राजाऽपि भूयो नाजघ्ने कर्णं पार्थहितेप्सया।।
8-44-24a
8-44-24b
ततो हाहाकृतं सर्वं धार्तराष्ट्रबलं महत्।
विवर्णमुखमार्तं च कर्णं दृष्ट्वा तथागतम्।।
8-44-25a
8-44-25b
सिंहनादाश्च सञ्जज्ञुः क्ष्वेलाः किलकिलास्तथा।
पाण्डवानां महाराज दृष्ट्वा राज्ञः पराक्रमम्।।
8-44-26a
8-44-26b
प्रतिलभ्य तु राधेयः संज्ञां नातिचिरादिव।
दध्रे राजविनाशाय मनः क्रूरपराक्रमः।।
8-44-27a
8-44-27b
स हेमविकृतं चापं विस्फार्य विजयं महत्।
अवाकिरदमेयात्मा पाण्डवं निशितैः शरैः।।
8-44-28a
8-44-28b
ततः क्षुराभ्यां पाञ्चाल्यौ चक्ररक्षौ महात्मनः।
जघान चन्द्रदेवं च दण्डधारं च संयुगे।।
8-44-29a
8-44-29b
तावुभौ धर्मराजस्य प्रवीरौ युधि भारत।
रथाभ्याशे चकाशेते चन्द्रस्येव पुनर्वसू।।
8-44-30a
8-44-30b
युधिष्ठिरः पुनः कर्णमविद्व्यत्त्रिंशता शरैः।
सुषेणं सत्यसेनं च त्रिभिस्त्रिभिरताडयत्।।
8-44-31a
8-44-31b
शल्यं नवत्या विव्याध त्रिसप्तत्या च सूतजम्।
तांस्तस्य गोप्तॄन्विव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः।।
8-44-32a
8-44-32b
ततः प्रहस्याधिरथिः षष्ठ्या राजञ्शितैः शरैः।
विद्ध्वा युधिष्ठिरं सङ्ख्ये ननादातिरथस्तदा।।
8-44-33a
8-44-33b
ततः प्रवीराः पाण्डूनामभ्यधावन्नमर्षिताः।
युधिष्ठिरं परीप्सन्तः कर्णमभ्यर्दयञ्छरैः।।
8-44-34a
8-44-34b
सात्यकिश्चेकितानश्च युयुत्सुः पाण्ड्य एव च।
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः।।
8-44-35a
8-44-35b
यमौ च भीमसेनश्च शिशुपालस्य चात्मजः।
कारूशा मात्स्यशेषाश्च केकयाः काशिकोसलाः।।
8-44-36a
8-44-36b
एते च त्वरिता वीरा वसुषेणमताडयन्।
जनमेजयश्च पाञ्चाल्यः कर्णं विव्याध सायकैः।।
8-44-37a
8-44-37b
वाराहकर्णनाराचैर्नालीकैर्निशितैः शरैः।
वत्सदन्तैर्विपाठैश्च क्षुरप्रैश्चटकामुखैः।।
8-44-38a
8-44-38b
नानाप्रहरणैश्चोग्रै रथहस्त्यश्वसादिभिः।
सर्वतोऽभ्यद्रवत्कर्णं परिवार्य जिघांसया।।
8-44-39a
8-44-39b
स पाण्डवानां प्रवरैः सर्वतः समभिद्रुतः।
छाद्यमानः शिततैर्घोरैः स्वस्वनामाङ्कितैः शरैः।।
8-44-40a
8-44-40b
न चचाल रणे कर्णो महेन्द्रो दानवैरिव।
`निजघान महेष्वासान्पाञ्चालानेकविंशतिम्।।
8-44-41a
8-44-41b
ततः पुनरमेयात्मा चेदीनां प्रवरान्दश।
न्यहनद्भरतश्रेष्ठ कर्णो वैकर्तनस्तदा।।
8-44-42a
8-44-42b
तस्य बाणसहस्राणि सम्प्रपन्नानि मारिष।
दृश्यन्ते दिक्षु सर्वासु शलभानामिव व्रजाः।।
8-44-43a
8-44-43b
कर्णनामाङ्किता बाणाः स्वर्णपुङ्खाः सुतेजनाः।
नराश्वकायान्निर्भिद्य पेतुरुर्व्यां समन्ततः।।
8-44-44a
8-44-44b
कर्णेनैकेन समरे चेदीनां प्रवरास्तदा।
सृज्जयानां च सर्वेषां शतशो निहता रणे।।
8-44-45a
8-44-45b
कर्णस्य शरसञ्छन्नं बभूव तुमुलं तमः।
नाज्ञायत ततः किञ्चित्परेषामात्मनोऽपि वा।।
8-44-46a
8-44-46b
तस्मिंस्तमसि भूते च क्षत्रियाणां भयङ्करे।
विचचार महबिहुर्निर्दहन्क्षत्रियान्बहून्'।।
8-44-47a
8-44-47b
ततः शरमहाज्वालो वीर्योष्मा कर्णपावकः।
निर्दहन्पाण्डववनं चारु पर्यचरद्रणे।।
8-44-48a
8-44-48b
`ततस्तेषां महाराज पाण्डवानां महारथाः।
सृञ्जयानां च सर्वेषां शतशोऽथ सहस्रशः।
अस्त्रैः कर्णं महेष्वासं समन्तात्पर्यवारयन्।।
8-44-49a
8-44-49b
8-44-49c
स संवार्य महास्त्राणि महेष्वासो महात्मनाम्।
प्रहस्य पुरुषेन्द्रस्य कर्णश्चिच्छेद कार्मुकम्'।।
8-44-50a
8-44-50b
ततः सन्धाय नवतिं निमेषान्नतपर्वणाम्।
बिभेद कवचं राज्ञो रणे कर्णः शितैः शरैः।।
8-44-51a
8-44-51b
तद्वर्म हेमविकृतं रत्नचित्रं बभौ पतत्।
सविद्युदभ्रं सवितुः श्लिष्टं वातहतं यथा।।
8-44-52a
8-44-52b
तदङ्गात्पुरुषेन्द्रस्य भ्रष्टं वर्म व्यरोचत।
रत्नैरलंवृतं चित्रेर्व्यभ्नं निशि यथा नभः।।
8-44-53a
8-44-53b
भिन्नवर्मा शरैः पार्थो रुधिरेण समुक्षितः।
बभासे पुरुषश्रेष्ठ उद्यन्निव दिवाकरः।।
8-44-54a
8-44-54b
स शराचितसर्वाङ्गश्छिन्नवर्माऽथ संयुगे।
क्षात्रं धर्मं समास्थाय सिंहनादमकुर्वत।।
8-44-55a
8-44-55b
नर्दित्वा च चिरं कालं पाण्डवो रभसो रणे।
शक्तिं चिक्षेप वेगेन प्रदीप्तामशनीमिव।।
8-44-56a
8-44-56b
तां ज्वलन्तीमिवाकाशे शक्तिं शप्तभिराशुगैः।
भल्लैश्चिच्छेद राधेयः सा त्वशीर्यत वै रणे।।
8-44-57a
8-44-57b
हृदि बाह्वोर्ललाटे च क्षिप्रकारी युधिष्ठिरः।
चतुर्भिस्तोमरैः कर्णं ताडयित्वाऽनदन्मुदा।।
8-44-58a
8-44-58b
उद्भिन्नरुधिरः कर्णः क्रुद्वः सर्प इव श्वसन्।
जघान सूतं पार्थस्य पार्ष्ठिं च नवभिः शरैः।।
8-44-59a
8-44-59b
ध्वजं चिच्छेद नृपतेस्त्रिभिर्विव्याध चैव तम्।
इषुधी चास्य चिच्छेद रथं च तिलशोऽच्छिनत्।।
8-44-60a
8-44-60b
एतस्मिन्नन्तरे शूराः पाण्डवानां महारथाः।
8-44-61a
8-44-61b
सात्यकिः पञ्चविंशत्या शिखण्डी नवभिः शरैः।
अवर्षतां महाराज राधेयं शत्रुकर्शनम्।।
8-44-62a
8-44-62b
शैनेयं तु ततुः क्रुद्धः कर्णः पञ्चभिरायसैः।
विव्याध समरे राजंस्त्रिभिश्चान्यैः शिलीमुखैः।।
8-44-63a
8-44-63b
दक्षिणं तु भुजं तस्य त्रिभिः कर्णोऽभ्यविध्यत।
सव्यं षोडशभिर्बाणैर्यन्तारं चास्य सप्तभिः।।
8-44-64a
8-44-64b
अथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः।
सूतपुत्रोऽनयत्क्षिप्रं यमस्य सदनं प्रति।।
8-44-65a
8-44-65b
अथापरेण भल्लेन धनुश्छित्त्वा महारथः।
सारथेः सशिरस्त्राणं शिरः कायादपाहरत्।।
8-44-66a
8-44-66b
हताश्वसूते तु रथे स्थितः स शिनिपुङ्गवः।
शक्तिं चिक्षेप कर्णाय वैदूर्यमणिभूषिताम्।।
8-44-67a
8-44-67b
तामापतन्तीं सहसा द्विधा चिच्छेद भारत।
कर्णो वै धन्विनां श्रेष्ठस्तांश्च सर्वानवारयत्।।
8-44-68a
8-44-68b
ततस्तान्निशितैर्बाणैः पाण्डवानां महारथान्।
न्यवारयदमेयात्मा शिक्षया च बलेन च।।
8-44-69a
8-44-69b
अर्दयित्वा शरैस्तांस्तु सिंहः क्षुद्रमृगानिव।
पीडयन्धर्मराजानं शरैः सन्नतपर्वमिः।
अभ्यद्रवत राधेयो धर्मपुत्रं शितैः शरैः।।
8-44-70a
8-44-70b
8-44-70c
ततः पार्षो ह्यपासासीद्वताश्वो हतसारथिः।
अशक्नुवन्मुखे स्थातुं ततः कर्णस्य दुर्मनाः।।
8-44-71a
8-44-71b
तमभिद्रुत्य राधेयः पाण्डुपुत्रं युधिष्ठिरम्।
अब्रवीत्प्रहसन्राजन्कुत्सयन्निव पाण्डवम्।।
8-44-72a
8-44-72b
कथं नाम कुले जातः क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः।
प्रजह्यात्समरे शत्रून्प्राणान्रक्ष महाहवे।।
8-44-73a
8-44-73b
न भवान्क्षत्रधर्मेषु कुशलोऽसीति मे मतिः।
ब्राह्मे बले भवान्युक्तः स्वाध्याये यज्ञकर्मणि।।
8-44-74a
8-44-74b
मा स्म युध्यस्व कौन्तेय मा स्म वीरान्समासदः।
मा चैवं विप्रियं ब्रूहि मा च त्वं भज संयुगम्।।
8-44-75a
8-44-75b
वक्तव्या मारिषाऽन्ये तु न वक्तव्यास्तु मादृशाः।
मादृशान्हि ब्रुवन्युद्धे एतदन्यच्च लप्स्यसे।।
8-44-76a
8-44-76b
स्वगृहं गच्छ कौन्तेय यत्र वा केशवार्जुनौ।
न हि त्वां समरे राजन्हन्यात्कर्णः कथञ्चन।।
8-44-77a
8-44-77b
सञ्जय उवाच। 8-44-78x
वरप्रदानं कुन्त्यास्तु कर्णः स्मृत्वा महारथः।
वधप्राप्तं तु कौन्तेयं नावधीत्पुरुषोत्तमः।।
8-44-78a
8-44-78b
एवमुक्त्वा ततः पार्थं विसृज्य च महाबलः।
न्यहनत्पाण्डवीं सेनां वज्रहस्त इवासुरीम्।।
8-44-79a
8-44-79b
ततोऽपायाद्द्रुतं राजन्व्रीडन्निव नरेश्वरः।। 8-44-80a
अथापयातं राजानं मत्वाऽन्वीयुस्तमच्युतम्।
चेदिपाण्डवपाञ्चालाः सात्यकिश्च महारथः।
द्रौपदेयास्तथा शूरा माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।।
8-44-81a
8-44-81b
8-44-81c
ततो युधिष्ठिरानीकं दृष्ट्वा कर्णः पराङ्मुखम्।
कुरुभिः सहितो वीरः प्रहृष्टः पृष्ठतोऽन्वगात्।।
8-44-82a
8-44-82b
भेरीशङ्खमृदङ्गानां कार्मुकाणां च निःस्वनः।
बभूव धार्तराष्ट्राणां सिंहनादरवस्तथा।।
8-44-83a
8-44-83b
युधिष्ठिरस्तु कौरव्य रथमारुह्य सत्वरम्।
श्रुतकीर्तेर्महाराज दृष्ट्वा तत्कर्णविक्रमम्।।
8-44-84a
8-44-84b
काल्यमानं बलं दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मारिष।
स्वान्योधानब्रवीत्क्रुद्वो निघ्नतैतान्किमासत।।
8-44-85a
8-44-85b
ततो राज्ञाऽभ्यनुज्ञाताः पाण्डवानां महारथाः।
भीमसेनमुखाः सर्वे पुत्रांस्ते प्रत्युपाद्रवन्।।
8-44-86a
8-44-86b
अभवत्तुमुलः शब्दो योधानां तत्र भारत।
रथहस्त्यश्वपत्तीनां द्रवतां निनदो महान्।
उद्यतप्रतिविष्टानां शस्त्राणां च ततस्ततः।।
8-44-87a
8-44-87b
8-44-87c
आगच्छत प्रहरत क्षिप्रं विपरिधावत।
इति ब्रुवाणा ह्यन्योन्यं जघ्नुर्योधा महारणे।।
8-44-88a
8-44-88b
अभ्रच्छायेव तत्रासीच्छरवृष्टिभिरम्बरे।
समावृतैर्नरवरैर्निघ्नद्भिरितरेतरम्।।
8-44-89a
8-44-89b
विपताकध्वजच्छत्रा व्यश्वसूतरथायुधाः।
व्यङ्गाङ्गावयवाः पेतुः क्षितौ क्षीणाः क्षितीश्वराः।
शिखराणीव शेलानां वज्रभिन्नानि मानिष।।
8-44-90a
8-44-90b
8-44-90c
सारोहा निहताः पेतुर्द्विपा भिन्ना महीतले।
छिन्नभिन्नविपर्यस्तवर्मालङ्कारविग्रहाः।।
8-44-91a
8-44-91b
सारोहास्तुरगाः पेतुर्हतवीराः सहस्रशः।
विप्रविद्वायुधाङ्गाश्च द्विरदा रथिभिर्हताः।
प्रतिवीरैश्च सम्मर्दे पत्तिसङ्घाः सहस्रशः।।
8-44-92a
8-44-92b
8-44-92c
विशालायतताम्राक्षैः पद्मेन्दुसदृशाननैः।
शिरोभिर्युद्धशौण्डानां सर्वतः संवृता मही।।
8-44-93a
8-44-93b
यथा भुवि तथा व्योम्नि निःस्वनं शुश्रुवुर्जनाः।
विमानेऽप्सरसां सङ्घैर्गीतवादित्रनिःस्वनैः।।
8-44-94a
8-44-94b
हतानभिमुखान्वीरान्वीरैः शतसहस्रशः।
आरोप्यारोप्य गच्छन्ति विमानेष्वप्सरोगणाः।।
8-44-95a
8-44-95b
तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं प्रत्यक्षं स्वर्गलिप्सया।
प्रहृष्टमनसः शूराः क्षिप्रं जघ्नुः परस्परम्।।
8-44-96a
8-44-96b
रथिनो रथिभिः सार्धं चित्रं युयुधुराहवे।
पत्तयः पत्तिभिर्नागाः सह नागैर्हयैर्हयोः।।
8-44-97a
8-44-97b
एवं प्रवृत्ते सङ्ग्रामे गजवाजिनरक्षये।
सैन्येन रजसा वृत्तते स्वे स्वाञ्जघ्नुः परे परान्।।
8-44-98a
8-44-98b
कचाकचं युद्धमासीद्दन्तादन्ति नखानखि।
मुष्टियुद्धं नियुद्धं च देहपाप्मविनाशनम्।।
8-44-99a
8-44-99b
तथा वर्ततति सङ्ग्रमे गजवाजिनरक्षये।
नराश्वनागदेहेभ्यः प्रसृता लोहितापगा।।
8-44-100a
8-44-100b
गजाश्वनरदेहान्सा व्युवाह पतितान्बहून्।
नराश्वगजसम्बाधे नराश्वगजसादिनाम्।।
8-44-101a
8-44-101b
लोहितोदा महाघोरा मांसशोणितकर्दमा।
नराश्वगजदेहान्वै वहन्ती भीरुभीषणा।।
8-44-102a
8-44-102b
तस्या नद्याः परं पारं व्रजन्ति विजयैषिणः।
नागेन च प्लवन्तो वै निमज्ज्योन्मज्ज्य चापरे।।
8-44-103a
8-44-103b
ते तु लोहितदिग्धाङ्गा रक्तवर्मायुधाम्बराः।
सस्नुस्ततस्यां पपुश्चास्रं मम्लुश्च भरतर्षभ।।
8-44-104a
8-44-104b
रथानश्वान्नारान्नागानायुधाभरणानि च।
वर्माणि चाप्यपश्याम पतितानि सहस्रशः।
खं द्यां भूमिं दिशश्चैव प्रायः पश्याम लोहिताः।।
8-44-105a
8-44-105b
8-44-105c
लोहितस्य तु गन्धेन स्पर्देन च रसेन च।
रूपेण चातिरक्ततेन शब्देन च विसर्पता।
विषादः सुमहानासीत्प्रायः सैन्यस्य भारत।।
8-44-106a
8-44-106b
8-44-106c
तत्तु विप्रहतं सैन्यं भीमसेनमुखैस्तव।
भूयः समाद्रवन्वीराः सातत्यकिप्रमुखास्तदा।।
8-44-107a
8-44-107b
तेषामापतततां वेगमविषह्यं निरीक्ष्य च।
पुत्राणां ते महासैन्यमासीद्राजन्पराङ्मुखम्।।
8-44-108a
8-44-108b
तत्प्रकीर्णरथाश्वेभं नरवाजिसमाकुलम्।
विध्वस्तवर्मकवचं प्रविद्वायुधकार्मुकम्।।
8-44-109a
8-44-109b
व्यद्रवत्तावकं सैन्यं लोड्यमानं समन्ततः।
सिंहार्दितमिवारण्ये यथा गजकुलं तथा।।
8-44-110a
8-44-110b
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 44 ।।

8-44-8 मन्त्रौषधक्रिया व्याधिर्विधिहीनक्रिया इव इति ख.ट.पाठः।। 8-44-19 कचाकचि युद्धं इति झ.पाठः।। 8-44-44 चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।।

कर्णपर्व-043 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-045