महाभारतम्-06-भीष्मपर्व-053
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द्रोणधृष्टद्युम्नयोर्युद्धम् ।। 1 ।।
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धृतराष्ट्र उवाच। | 6-53-1x |
कथं द्रोणो महेष्वासः पाञ्चाल्यश्चापि पार्षतः। उभौ समीयतुर्यत्तौ तन्ममाचक्ष्व सञ्जय ।। | 6-53-1a 6-53-1b |
दिष्टमेव परं मन्ये पौरुषादिति मे मतिः। यत्र शान्तनवो भीष्मो नातरद्युधि पाण्डवम् ।। | 6-53-2a 6-53-2b |
भीष्मो हि समरे क्रुद्धो हन्याल्लोकांश्चराचरान्। स कथं पाण्डवं युद्धे नातरत्सञ्जयौजसा ।। | 6-53-3a 6-53-3b |
सञ्जय उवाच। | 6-53-4x |
श्रृणु राजन्स्थिरो भूत्वा युद्धमेतत्सुदारुणम्। न शक्याः पाण्डवा जेतुं देवैरपि सवासवैः ।। | 6-53-4a 6-53-4b |
द्रोणस्तु निशितैर्बाणैर्धृष्टद्युम्नमविध्यत। सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत् ।। | 6-53-5a 6-53-5b |
तथाऽस्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिः सायकोत्तमैः । पीडयामास संक्रुद्धो धृष्टद्युम्नस्य मारिष ।। | 6-53-6a 6-53-6b |
धृष्टद्युम्नस्ततो द्रोणं नवत्या निशितैः शरैः । विव्याध प्रहसन्वीरस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत् ।। | 6-53-7a 6-53-7b |
ततः पुनरमेयात्मा भारद्वाजः प्रतापवान्। शरैः प्रच्छादयामास धृष्टद्युम्नममर्षणम् ।। | 6-53-8a 6-53-8b |
आददे च शरं घोरं पार्षतान्तचिकीर्षकया। शक्राशनिसमस्पर्शं कालदण्डमिवापरम् ।। | 6-53-9a 6-53-9b |
हाहाकारो महानासीत्सर्वसैन्येषु भारत । तमिषुं संधितं दृष्ट्वा भारद्वाजेन संयुगे ।। | 6-53-10a 6-53-10b |
तत्राद्भुतमपश्याम धृष्टद्युम्नस्य पौरुषम्। यदेकः समरे वीरस्तस्थौ गिरिरिवाचलः ।। | 6-53-11a 6-53-11b |
तं च दीप्तं शरं घोरमायान्तं मृत्युमात्मनः । चिच्छेद शरवृष्टिं च भारद्वाजे मुमोच ह ।। | 6-53-12a 6-53-12b |
तत उच्चुक्रुशुः सर्वे पाञ्चालाः पाण्डवैः सह। धृष्टद्युम्नेन तत्कर्म कृतं दृष्ट्वा सुदुष्करम् ।। | 6-53-13a 6-53-13b |
ततः शक्तिं महावेगां स्वर्णवैडूर्यभूषिताम् । द्रोणस्य निधनाकाङ्क्षी चिक्षेप स पराक्रमी ।। | 6-53-14a 6-53-14b |
तामापतन्तीं सहसा शक्तिं कनकभूषिताम्। त्रिधा चिच्छेद समरे भारद्वाजो हसन्निव ।। | 6-53-15a 6-53-15b |
शक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नः प्रतपवान् । ववर्ष शरवर्षाणि द्रोणं प्रति जनेश्वरः।। | 6-53-16a 6-53-16b |
शरवर्षं ततस्तत्तु सन्निवार्य महायशाः। द्रोणो द्रुपदपुत्रस्य मध्ये चिच्छेद कार्मुकम् ।। | 6-53-17a 6-53-17b |
स च्छिन्नधन्वा समरे गदां गुर्वी महायशाः । द्रोणाय प्रेषयामास गिरिसारमयीं बली ।। | 6-53-18a 6-53-18b |
सा गदा वेगवन्मुक्ता प्रायाद्द्रोणजिघांसया । तत्राद्भुतमपश्याम भारद्वाजस्य पौरुषम् ।। | 6-53-19a 6-53-19b |
लाघवाद्व्यंसयामास गदां हेमविभूषिताम्। व्यंसयित्वा गदां तां च प्रेषयामास पार्षतम् ।। | 6-53-20a 6-53-20b |
भल्लान्सुनिशितान्पीतातान्रुक्मपुङ्खान्सुदारुणान्। ते तस्य कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे ।। | 6-53-21a 6-53-21b |
अथान्यद्धनुरादाय धृष्टद्युम्नो महारथः । द्रोणं युधि पराक्रम्य शरैर्विव्याध पञ्चभिः ।। | 6-53-22a 6-53-22b |
रुधिराक्तौ ततस्तौ तु शुशुभाते नरर्षभौ । वसन्तसमये राजन्पुष्पिताविव किंशुकौ ।। | 6-53-23a 6-53-23b |
अमर्षितस्ततो राजन्पराक्रम्य चमूमुखे । द्रोणो द्रुपदपुत्रस्य पुनश्चिच्छेद कार्मुकम् ।। | 6-53-24a 6-53-24b |
अथैनं छिन्नधन्वानं शरैः सन्नतपर्वभिः । अभ्यवर्षदमेयात्मा वृष्ट्या मेघ इवाचलम् ।। | 6-53-25a 6-53-25b |
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीजादपातयत् । अथास्य चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः ।। | 6-53-26a 6-53-26b |
पातयामास समरे सिंहनादं ननाद च। ततोऽपरेण भल्लेन हस्ताच्चापमथाच्छिनत् ।। | 6-53-27a 6-53-27b |
स च्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः । गदापाणिरवारोहत्स्व्यापयन्पौरुषं महत्।। | 6-53-28a 6-53-28b |
तामस्य विशिस्वैस्तूर्णं पातयामास भारत । रथादनवरूढस्य तदद्भुतमिवाभवत् ।। | 6-53-29a 6-53-29b |
ततः स विपुलं चर्म शतचन्द्रं च भानुमत्। खङ्गं च विपुलं दिव्यं प्रगृह्य सुभुजो बली ।। | 6-53-30a 6-53-30b |
अभिदुद्राव वेगेन द्रोणस्य वधाकाङ्क्षया। आमिषार्थी यथा सिंहो वने मत्तमिव द्विपम् ।। | 6-53-31a 6-53-31b |
तत्राद्भुतमपश्याम भारद्वाजस्य पौरुषम् । लाघवं चास्त्रयोगं च बलं बाह्वोश्च भारत ।। | 6-53-32a 6-53-32b |
यदेनं शरवर्षेण वारयामास पार्षतम् । न शशाक ततो गन्तुं बलवानपि संयुगे ।। | 6-53-33a 6-53-33b |
निवारितस्तु द्रोणेन धृष्टद्युम्नो महारथः । न्यावारयच्छरौघांस्तांश्चर्मणा कृतहस्तवत् ।। | 6-53-34a 6-53-34b |
ततो भीमो महाबाहुः सहसाऽभ्यपतद्बली । साहाय्यकारी समरे पार्षतस्य महात्मनः ।। | 6-53-35a 6-53-35b |
स द्रोमं निशितैर्बाणै राजन्विव्याध सप्तभिः । पार्षतं च रथं तूर्णं स्वकमारोहयत्तदा।। | 6-53-36a 6-53-36b |
ततो दुर्योधनो राजन्कलिङ्गं समचोदयत्। सैन्येन महता युक्तं भारद्वाजस्य रक्षणे ।। | 6-53-37a 6-53-37b |
ततः सा महती सेन कलिङ्गानां जनेश्वर । भीममभ्युद्ययौ तूर्णं तव पुत्रस्य शासनात् ।। | 6-53-38a 6-53-38b |
पाञ्चाल्यमथ संत्यज्य द्रोणोऽपि रथिनां वरः। विराटद्रुपदौ वृद्धौ वारयामास संयुगे।। | 6-53-39a 6-53-39b |
धृष्टद्युम्नोऽपि समरे धर्मराजानमभ्ययात्। ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम् ।। | 6-53-40a 6-53-40b |
कलिङ्गानां च समरे भीष्मस्य च महात्मनः । जगतः प्रक्षयकरं घोररूपं भयावहम् ।। | 6-53-41a 6-53-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि द्वितीयदिवसयुद्धे त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ।। |
6-53-3 नातरत् न लङ्घितवान् ।। 6-53-5 नीडात् स्थानात् ।। 6-53-20 व्यंसयामास वञ्चयतिस्म ।। 6-53-21 पीतान् पायितजलान् ।।
भीष्मपर्व-052 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | भीष्मपर्व-054 |