महाभारतम्-02-सभापर्व-012
← सभापर्व-011 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-012 वेदव्यासः |
सभापर्व-013 → |
इन्द्रसभास्थहरिश्चन्द्रचरिते युधिष्ठिरेण पृष्टे तत्कथाप्रसङ्गेन नारदकृता राजसूयप्रशंसा।। 1।। युधिष्ठरम्प्रति पाण्डुसन्देशकथनपूर्वकं नारदस्य गमनम्।। 2।।
|
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-12-1x |
प्रायशो राजलोकस्ते कथितो वदतां वर। वैवस्वतसभायां तु यथा वदसि मे प्रभो।। | 2-12-1a 2-12-1b |
वरुणस्य सभायां तु नागास्ते कथिता विभो। दैत्येन्द्राश्चापि भूयिष्ठाः सरितः सागरास्तथा।। | 2-12-2a 2-12-2b |
तथा धनपतेर्यक्षा गुह्यका राक्षसास्तथा। गन्धर्वाप्सरसश्चैव भगवांश्च वृषध्वजः।। | 2-12-3a 2-12-3b |
पितामहसभायां तु कथितास्ते महर्षभः। सर्वे देवनिकायाश्च सर्वशास्त्राणि वैव ह।। | 2-12-4a 2-12-4b |
शक्रस्य तु सभायां तु देवाः सङ्कीर्तिता मुने। उद्देशतश्च गन्धर्वा विविधाश्च महर्षयः।। | 2-12-5a 2-12-5b |
एक एव तु राजर्षिर्हरिश्चन्द्रो महामुने। कथितस्ते सभायां वै देवेन्द्रस्य महात्मनः।। | 2-12-6a 2-12-6b |
किं कर्म तेनाचरितं तपो वा नियतव्रत। येनासौ सह शक्रेण स्पर्धदे सुमहायशाः।। | 2-12-7a 2-12-7b |
पितृलोकगतश्चैव त्वया विप्र पिता मम। दृष्टः पाण्डुर्महाभागः कथं वाऽपि समागतः।। | 2-12-8a 2-12-8b |
किमुक्तवांश्च भगवंस्तन्ममाचक्ष्व सुव्रत। त्वत्तः श्रोतुं सर्वमिदं परं कौतूहलं हि मे।। | 2-12-9a 2-12-9b |
नारद उवाच। | 2-12-10x |
यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र हरिश्चन्द्रं प्रति प्रभो। तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि माहात्म्यं तस्य धीमतः।। | 2-12-10a 2-12-10b |
` इक्ष्वाकूणां कुले जातस्त्रिशङ्कुर्नाम पार्थिवः। अयोध्याधिपतिर्वीरो विश्वामित्रेण संस्थितः।। | 2-12-11a 2-12-11b |
तस्य सत्यवती नाम पत्नी केकयवंशजा। तस्यां गर्भः समभवद्धर्मेण कुरुनन्दन।। | 2-12-12a 2-12-12b |
सा च काले महाभागा राजन्मासं प्रविश्य च। कुमारं जनयामास हरिश्चन्द्रमकल्मषम्। स वै राजा हरिश्चन्द्रस्त्रैशङ्कव इति स्मृतः'।। | 2-12-13a 2-12-13b 2-12-13c |
स राजा बलवानासीत्सम्राट् सर्वमहीक्षिताम्। तस्य सर्वे महीपालाः शासनावनताः स्थिताः।। | 2-12-14a 2-12-14b |
तेनैकं रथमास्थाय जैत्रं हेमविभूषितम्। शस्त्रप्रतापेन जिता द्वीपाः सप्त जनेश्वर।। | 2-12-15a 2-12-15b |
स निर्जित्य महीं कृत्स्नां सशैलवनकाननाम्। आजहार महाराज राजसूयं महाक्रतुम्।। | 2-12-16a 2-12-16b |
तस्य सर्वे महीपाला धनान्याजह्रुराज्ञया। द्विजानां परिवेष्टारस्तस्मिन्यज्ञे च तेऽभवन्।। | 2-12-17a 2-12-17b |
`समाप्तयज्ञो विधिवद्धरिश्चन्द्रः प्रतापवान्। अभिषिक्तश्च शुशुभे साम्राज्येन नराधिपः।। | 2-12-18a 2-12-18b |
राजसूयेऽभिषिक्तश्च समाप्तवरदक्षिणे'।। | 2-12-19a |
प्रादाच्च द्रविणं प्रीत्या याचकानां नरेश्वरः। यथोक्तवन्तस्ते तस्मिंस्ततः पञ्चगुणाधिकम्।। | 2-12-20a 2-12-20b |
अतर्पयच्च विविधैर्वसुभिर्ब्राह्मणांस्तदा। प्रसर्पकाले सम्प्राप्ते नानादिग्भ्यः समागतान्।। | 2-12-21a 2-12-21b |
भक्ष्यभोज्यैश्च विविधैर्यथाकामपुरस्कृतैः। रत्नौघतर्पितैस्तुष्टैर्द्विजैश्च समुदाहृतम्। तेजस्वी च यशस्वी च नृपेभ्योऽभ्यधिकोऽभवत् । | 2-12-22a 2-12-22b 2-12-22c |
एतस्मात्कारणाद्राजन्हरिश्चन्द्रो विराजते। तेभ्यो राजसहस्रेभ्यस्तद्विद्वि भरतर्षभ।। | 2-12-23a 2-12-23b |
समाप्य च हरिश्चन्द्रो महायज्ञं प्रतापवान्। अभिषिक्तश्च शुशुभे साम्राज्येन नराधिप।। | 2-12-24a 2-12-24b |
ये चान्ये च महीपाला राजसूयं महाक्रतुम्। यजन्ते ते सहेन्द्रेण मोदन्ते भरतर्षभ। | 2-12-25a 2-12-25b |
ये चापि नि नं प्राप्ताः सङ्ग्रामेष्वपलायिनः। ते तत्सदनम् ताद्य मोन्दते भरतर्षभ।। | 2-12-26a 2-12-26b |
तपसा ये च तीव्रेण त्यजन्तीह कलेवरम्। ते तत्स्थानं समासाद्य श्रीमन्तो भान्ति नित्यशः।। | 2-12-27a 2-12-27b |
पिता च त्वाऽऽह कौन्तेय पाण्डुः कौरवनन्दन। हरिश्चन्द्रे श्रियं दृष्ट्वा नृपतौ जातविस्मयः।। | 2-12-28a 2-12-28b |
विज्ञाय मानुषं लोकमायान्तं मां नराधिप। प्रोवाच प्रणतो भूत्वा वदेथास्त्वं युधिष्ठिरम्।। | 2-12-29a 2-12-29b |
समर्थोऽसि महीं जेतुं भ्रातरस्ते स्थिता वशे। राजसूयं क्रतुश्रेष्ठमहारस्वेति भारत।। | 2-12-30a 2-12-30b |
त्वयीष्टवति पुत्रेऽहं हरिश्चन्द्रवदाशु वै। मोदिष्ये बहुलाः शश्वत्समाः शक्रस्य संसदि।। | 2-12-31a 2-12-31b |
एवं भवतु वक्ष्येऽहं तव पुत्रं नराधिपम्। भूलोकं यदि गच्छेयमिति पाण्डुमथाब्रुवम्।। | 2-12-32a 2-12-32b |
तस्य त्वं पुरुषव्याघ्र सङ्कल्पं कुरु पाण्डव। गन्तासित्वं महेन्द्रस्य पूर्वैः सह सलोकताम्।। | 2-12-33a 2-12-33b |
बहुविघ्नश्च नृपते क्रतुरेष स्मृतो महान्। छिद्राण्यस्य वाञ्छन्ति यज्ञघ्ना ब्रह्मराक्षसाः।। | 2-12-34a 2-12-34b |
युद्धं च क्षत्रशमनं पृथिवीक्षयकारणम्। किञ्चिदेव निमित्तं च भवत्यत्र क्षयावहम्।। | 2-12-35a 2-12-35b |
एतत्सञ्चिन्त्य राजेन्द्र यत्क्षमं तत्समाचर। अप्रमत्तोत्थितो नित्यं चातुर्वर्ण्यस्य रक्षणे।। | 2-12-36a 2-12-36b |
भव एधस्व मोदस्व धनैस्तर्पय च द्विजान्। एतत्ते विस्तरेणोक्तं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। आपृच्छे त्वां गमिष्यामि दाशार्हनगरीं प्रति।। | 2-12-37a 2-12-37b 2-12-37c |
वैशम्पायन उवाच। | 2-12-38x |
एवमाख्याय पार्थेभ्यो नारदो जनमेजय। जगाम तैर्वृतो राजन्नृषिभिर्यैः समागतः।। | 2-12-38a 2-12-38b |
गते तु नारदे पार्थो भ्रातृभिः सह कौरवः। राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं चिन्तयामास पार्थिवः।। | 2-12-39a 2-12-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि मन्त्रपर्वणि द्वादशोऽध्यायः।। 12।। |
सभापर्व-011 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-013 |