महाभारतम्-02-सभापर्व-017
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युधिष्ठिरेण जरासन्धप्रभावप्रश्ने श्रीकृष्णेन तदुपोद्घाततया बृहद्रथराजोपा ख्यानकथनारम्भः।। 1।। अपुत्रस्य बृहथस्य पत्नीभ्यां सह तपोवनगमनम्।। 2।। तत्र चण्डकौशिकमुनिना बृहद्रथाय पुत्रीयाम्रफलदानम्।। 3।। प्रविभक्ततत्फलभोजनेन सञ्जातगर्भयोस्तद्भार्ययोः पृथगेकैकशरीरखण्डसम्भवः।।4।। तत्पत्नीभ्यां दासीद्वारा बहिस्त्याजितयोः खण्डयोः जरानाम्न्या राक्षस्या स न्धानाजरासन्धसम्भवः।। 5।। बालकं गृहीत्वा आगतया जरया सह बृहद्रथस्य संवादः।। 6।।
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वासुदेव उवाच।। | 2-17-1x |
जातस्य भारते वंशे तथा कुन्त्याः सुतस्य च। या वै युक्ता मतिः सेयमर्जुनेन प्रदर्शिता।। | 2-17-1a 2-17-1b |
न स्म मृत्युं वयं विद्म रात्रौ वा यदि वा दिवा। न चापि कञ्चिदमरमयुद्धेनानुशुश्रुम।। | 2-17-2a 2-17-2b |
एतावदेव पुरुषैः कार्यं हृदयतोषणम्। नयेन विधिदृष्टेन यदुपक्रमते परान्।। | 2-17-3a 2-17-3b |
सुनयस्यानपायस्य संयोगे परमः क्रमः। सङ्गत्या जायतेऽसाम्यं साम्यं च न भवेद्द्वयोः।। | 2-17-4a 2-17-4b |
अनयस्यानुपायस्य संयुगे परमः क्षयटः। संशयो जायते साम्याज्जयश्च न भवेद्द्वयोः।। | 2-17-5a 2-17-5b |
ते वयं नयमास्थाय शत्रुदेशसमीपगाः। कथमन्तं न गच्छेम वृक्षस्येव नदीरयाः।। पररन्ध्रे पराक्रान्ताः स्वरन्ध्रावरणे स्थिताः।। | 2-17-6a 2-17-6b 2-17-6c |
व्यूढानीकैरतिबलैर्न युद्व्येदरिभिः सह। इति बुद्धिमतां नीतिस्तन्ममापीह रोचते।। | 2-17-7a 2-17-7b |
अनवद्या ह्यसम्बुद्धाः प्रविष्टाः शत्रुसद्म तत्। शत्रुदेशमुपाक्रम्य तं कामं प्राप्नुयामहे।। | 2-17-8a 2-17-8b |
एको ह्येव श्रियं नित्यं बिभर्ति पुरुषर्षभः। अन्तरात्मेव भूतानां तत्क्षयं नैव लक्षये।। | 2-17-9a 2-17-9b |
अथवैनं निहत्याजौ शेषेणापि समाहताः। प्राप्नुयाम ततः स्वर्गं ज्ञातित्राणपरायणाः।। | 2-17-10a 2-17-10b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-17-11x |
कृष्ण कोऽयं जरासन्धः किंवीर्यः किम्पराक्रमः। यस्त्वां स्पृष्ट्वाऽग्निसदृशं न दग्धः शलभो यथा।। | 2-17-11a 2-17-11b |
कृष्ण उवाच।। | 2-17-12x |
शृणु राजञ्जरासन्धो यद्वीर्यो यत्पराक्रमः। यथा चोपेक्षितोऽस्माभिर्बहुशः कृतविप्रियः।। | 2-17-12a 2-17-12b |
अक्षौहिणीनां तिसृणां पतिः समरदर्पितः। राजा बृहद्रथो नाम मगधाधिपतिर्बली।। | 2-17-13a 2-17-13b |
रूपवान्वीर्यसम्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः। नित्यं दीक्षाङ्किततनुः शतक्रतुरिवापरः।। | 2-17-14a 2-17-14b |
तेजसा सूर्यसङ्काशः क्षमया पृथिवीसमः। यश्चान्तकसमः क्रोधे श्रिया वैश्रवणोपमः।। | 2-17-15a 2-17-15b |
`स्वराज्यं कारयामास मगधेषु गिरिव्रजे'। तस्याभिजनसंयुक्तैर्गणैर्भरतसत्तम। व्याप्तेयं पृथिवी सर्वा सूर्यस्येव गभस्तिभिः।। | 2-17-16a 2-17-16b 2-17-16c |
स काशिराजस्य सुते यमजे भरतर्षभः। उपयेमे महावीर्यो रूपद्रविणसंयुते। तयोश्चकार समयं मिथः स पुरुषर्षभः।। | 2-17-17a 2-17-17b 2-17-17c |
नातिवर्तिष्य इत्येवं पत्नीभ्यां सन्निधौ तदा। स ताभ्यां शुशुभे राजा पत्नीभ्यां वसुधाधिपः।। | 2-17-18a 2-17-18b |
प्रियाम्भामनुरूपाभ्यां करेणुभ्यामिव द्विपः। तयोर्मध्यगतश्चापि रराज वसुधाधिपः।। | 2-17-19a 2-17-19b |
गङ्गायमुनयोर्मध्ये मूर्तिमानिव सागरः। विषयेषु निमग्रस्य तस्य यौवनमत्यगात्।। | 2-17-20a 2-17-20b |
न च वंशकरः पुत्रस्तस्याजायत कश्चन। मङ्गलैर्बभिर्होमैः पुत्रकामाभिरिष्टिभिः।। | 2-17-21a 2-17-21b |
नाससाद नृपश्रेष्ठः पुत्रं कुलविवर्धनम्। स भार्याभ्यां च सहितो निर्वेदमगमद्धृशम्।। | 2-17-22a 2-17-22b |
`राज्यं चापि परित्यज्य तपोवनमथाश्रयत्। ' वार्यमाणः प्रकृतिभिर्नृपभक्त्या विशाम्पते'।। | 2-17-23a 2-17-23b |
अथ काक्षीवतः पुत्रं गौतमस्य महात्मनः।। शुश्राव तपसि श्रेष्ठमुदारं चण्डकौशिकम्।। | 2-17-24a 2-17-24b |
यदृच्छयाऽऽगतं तं तु वृक्षमूलमुपाश्रितम्। पत्नीभ्यां सहितो राजा सर्वयत्नैरतोषयत्।। | 2-17-25a 2-17-25b |
`बृहद्रथं च स ऋषिर्यथावच्चाभ्यनन्दत। ' उपविष्टः स तेनाथ अनुज्ञातो महात्मना।। | 2-17-26a 2-17-26b |
तमपृच्छत्तदा विप्रः किमागमनमित्यथ। विप्रैरनुगतस्यैव पत्नीभ्यां सहितस्य च।। | 2-17-27a 2-17-27b |
स उवाच मुनिं राजा भगवन्नास्ति मे सुतः। अपुत्रस्य तु राज्येन वृद्धत्वे किं प्रयोजनम्।। | 2-17-28a 2-17-28b |
सोऽहं तपश्चरिष्यामि पत्नीभ्यां सहितो वने। नाप्रजस्य मुने किर्तिः स्वधा चैवाक्षया भवेत्। एवमुक्तः स राज्ञा तु मुनिः कारुण्यमागतः।। | 2-17-29a 2-17-29b 2-17-29c |
तमब्रवीत्सत्यधृतिः सत्यवागृषिसत्तमः। परितुष्टोऽस्मि राजेन्द्र वरं वरय सुव्रत।। | 2-17-30a 2-17-30b |
ततः सभार्यः प्रणतस्तमुवाच बृहद्रथः। पुत्रदर्शननैराश्याद्बाष्पसन्दिग्धया गिरा।। | 2-17-31a 2-17-31b |
राजोवाच।। | 2-17-32x |
भगवन् राज्यमुत्सृज्य प्रस्थितस्य तपोवनम्। किं वरेणाल्पभाग्यस्य किं राज्येनाप्रजस्य मे।। | 2-17-32a 2-17-32b |
कृष्ण उवाच। | 2-17-33x |
एतच्छ्रुत्वा मुनिर्ध्यानमगमन्क्षुभितेन्द्रियः। तस्यैव चाम्रवृक्षस्य छायायां समुपाविशत।। | 2-17-33a 2-17-33b |
तस्योपविष्टस्य मुनेरुत्सङ्गे निपपात ह। अवानमशुकादष्टमेकमाम्रफलं किल।। | 2-17-34a 2-17-34b |
तत्प्रगृह्य मुनिश्रेष्ठो हृदयेनाभिमन्त्र्य च। राज्ञे ददावप्रतिमं पुत्रसम्प्राप्तिकारणम्।। | 2-17-35a 2-17-35b |
उवाच च महाप्राज्ञस्तं राजानं महामुनिः। गच्छ राजन्कृतार्थोऽसि निवर्तस्व नराधिप।। | 2-17-36a 2-17-36b |
`एष ते तनयो राजन्मा तपेह तपोवने। प्रजाः पालय धर्मेण एव धर्मो महीक्षिताम्।। | 2-17-37a 2-17-37b |
यजस्व विविधैर्यज्ञैरिन्द्रं तर्पय चेन्दुना। पुत्रं राज्ये प्रतिष्ठाप्य तत आश्रममाव्रज।। | 2-17-38a 2-17-38b |
अष्टौ वरान्प्रयच्छामि तव पुत्रस्य पार्थिव। ब्रह्मण्यत्वमजेयत्वं युद्धेषु च तथा मतिः।। | 2-17-39a 2-17-39b |
प्रियातिथेयतां चैव दीनानामन्ववेक्षणम्। तथा बलं च सुभहल्लोके कीर्ति च शाश्वतीम्।। | 2-17-40a 2-17-40b |
अनुरागं प्रजानां चेत्येवमष्टौ वरान्नृप। गच्छ त्वं कृतकृत्योऽसि निवर्तस्व जनाधिप'।। | 2-17-41a 2-17-41b |
अनुज्ञातः स ऋषिणा पत्नीभ्यां सहितो नृपः। पौरैरनुगतश्चापि विवेश स्वपुरं ततः।। | 2-17-42a 2-17-42b |
यथासमयमाज्ञाय तदा स नृपसत्तमः। द्वाभ्यामेकं फलं प्रादात्पत्नीभ्यां भरतर्षभ।। | 2-17-43a 2-17-43b |
मुनेश्च बहुमानेन कालस्य च विपर्ययात्। ते तदाम्रं द्विधा कृत्वा भक्षयामासतुः शुभे। | 2-17-44a 2-17-44b |
तयोः समभवद्गर्भः फलप्राशनसम्भवः। ते च दृष्ट्वा स नृपतिः परां मुदमवाप ह।। | 2-17-45a 2-17-45b |
अथ काले महाप्राज्ञ यथासमयमागते। जायेतामुभे राजञ्शरीरशकले तदा।। | 2-17-46a 2-17-46b |
एकाक्षिबाहुचरणे अर्धोदरमुखस्फिचे। दृष्ट्वा शरीरशकले प्रवेपतुरुभे भृशम्।। | 2-17-47a 2-17-47b |
उद्विग्रे सह संमन्त्र्य ते भगित्यौ तदाऽबले। सजीवे प्राणिशकले तत्यजाते सुदुःखिते।। | 2-17-48a 2-17-48b |
तयोर्धात्र्यौ सुसंवीते कृत्वा ते गर्भसम्प्लवे। निर्गम्यान्तः पुरद्वारात्समुत्सृज्याभिजग्मतुः।। | 2-17-49a 2-17-49b |
`दुकूलाभ्यां सुसञ्छन्ने पाण्डराभ्यामुभे तदा। अज्ञाते कस्यचित्ते तु जहतुस्ते चतुष्पथे।। | 2-17-50a 2-17-50b |
ततो विविशतुर्धात्र्यौ पुनरन्तः पुरं तदा। कथयामासतुरुभे देवीभ्यां तु पृथक्पृथक्'।। | 2-17-51a 2-17-51b |
ते चतुष्पथनिक्षिप्ते जरा नामाथ राक्षसी। जग्राह मनुजव्याघ्र मांसशोणितभोजना।। | 2-17-52a 2-17-52b |
कर्तुकामा सुखवहे शकले सा तु राक्षसी। संयोजयामास तदा विधानबलचोदिता।। | 2-17-53a 2-17-53b |
ते समानीतमात्रे तु शकले पुरुषर्षभ। एकमूर्तिधरो वीरः कुमारः समपद्यत।। | 2-17-54a 2-17-54b |
ततः सा राक्षसी राजन्विस्मयोत्फुल्ललोचना। न शशाक समुद्वोदुं वज्रसारमयं शिशुम्।। | 2-17-55a 2-17-55b |
बालस्ताम्रतलं मुष्टिं कृत्वा चास्ये निधाय सः। प्राक्रोशदतिसंरब्धः सतोय इव तोयदः।। | 2-17-56a 2-17-56b |
तेन शब्देन सम्भ्रान्तः सहसाऽन्तः पुरे जनः। निर्जगाम नरव्याघ्र राज्ञा सह परन्तप।। | 2-17-57a 2-17-57b |
ते चाबले परिम्लाने पयः पूर्णपयोधरे। निराशे पुत्रलाभाय सहसैवाब्यगच्छताम्।। | 2-17-58a 2-17-58b |
ते च दृष्ट्वा तथाभूते राजानं चेष्टसंततिम्। तं च बालं सुबलिनं चिन्तयामास राक्षसी।। | 2-17-59a 2-17-59b |
नार्हामि विषये राज्ञो वसन्ती पुत्रगृद्धिनः। बालं पुत्रमिमं हन्तुं धार्मिकस्य महात्मनः।। | 2-17-60a 2-17-60b |
सा तं बालमुपादाय मेघलेखेन भास्करम्। कृत्वा च मानुषं रूपमुवाच वसुधाधिपम्।। | 2-17-61a 2-17-61b |
बृहद्रथ सुतस्तेऽयं मया दत्तः प्रगृह्यताम्। तव पत्नीद्वये जातो द्विजातिवरशासनात्। धात्रीजनपरित्यक्तो मयाऽयं परिरक्षितः।। | 2-17-62a 2-17-62b 2-17-62c |
कृष्ण उवाच। | 2-17-63x |
ततस्ते भरतश्रेष्ठ काशिराजसुते शुभे। तं बालमभिपद्याशु प्रस्रवैरभ्यषिञ्जताम्।। | 2-17-63a 2-17-63b |
ततः स राजा संहृष्टः सर्वं तदुपलभ्य च। अपृच्छद्धेमगर्भाभां राक्षसीं तामराक्षसीम्।। | 2-17-64a 2-17-64b |
कात्वं कमलगर्भाभे मम पुत्रप्रदायिनी। कामं मा ब्रूहि कल्याणि देवता प्रतिभासि मे।। | 2-17-65a 2-17-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि मन्त्रपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17।। |
2-17-4 क्रमः उपक्रमः।।
2-17-9 तत्क्षये बलक्षयः इति पाठः।। 2-17-34 अवानमशुष्कं सरसमिति यावत्। अमारुतमनाविद्धं इति घ.पाठः।। 2-17-46 प्रजायेतां सुषुवतुः।। 2-17-47 स्फिक् कट्या अधोभागः।। 2-17-53 सुखवहे एकीकृतयोर्वहनं हि सुखेन भवतीति प्रसिद्धम्।। 2-17-54 समानीतमात्रे संयोजितमात्रे।। 2-17-64 अराक्षसी वेषतः।।
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