महाभारतम्-02-सभापर्व-081
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दुर्योधनेन धृतराष्ट्रोक्तिप्रतिकूलभाषणम्।। 1।।
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दुर्योधन उवाच।। | 2-81-1x |
यस्य नास्ति निजा प्रज्ञा केवलं तु बहुश्रुतः। न स जानाति शास्त्रार्थं दर्वी सूपरसानिव।। | 2-81-1a 2-81-1b |
जानन्वै मोहयति मां नावि नौरिव संयता। स्वार्थे किं नावधानं ते उताहो द्वेष्टि मां भवान्।। | 2-81-2a 2-81-2b |
न सन्तीमे धार्तराष्ट्रा येषां त्वमनुशासिता। भविष्यमर्थमाख्यासि सर्वदा कृत्यमात्मनः।। | 2-81-3a 2-81-3b |
परनेयोऽग्रणीर्यस्य स मार्गान्प्रतिमुह्यति। पन्थानमनुगच्छेयुः कथं तस्य पदानुगाः।। | 2-81-4a 2-81-4b |
राजन्परिणतप्रज्ञो वृद्धसेवी जितेन्द्रियः। प्रतिपन्नान्स्वकार्येषु संमोहयसि नो भृशम्।। | 2-81-5a 2-81-5b |
लोकवृत्ताद्राजवृत्तमन्यदाह बृहस्पतिः। तस्माद्राज्ञाऽप्रमत्तेन स्वार्थश्चिन्त्यः सदैव हि।। | 2-81-6a 2-81-6b |
क्षत्रियस्य महाराज जये वृत्तिः समाहिता। स वै धर्मस्त्वधर्मो वा स्ववृत्तौ का परीक्षणा।। | 2-81-7a 2-81-7b |
प्रकालयेद्दिशः सर्वाः प्रतोदेनेव सारथिः। प्रत्यमित्रश्रियं दीप्तां जिघृक्षुर्भरतर्षभ।। | 2-81-8a 2-81-8b |
प्रच्छन्नो वा प्रकाशो वा योगो योऽरिं प्रबाधते। तद्वै शस्त्रं शस्त्रविदां न शस्त्रं छेदनं स्मृतम्।। | 2-81-9a 2-81-9b |
शत्रुश्चैव हि मित्रं च न लेख्यं न च मातृका। यो वै सन्तापयति यं स शत्रुः प्रोच्यते नृप।। | 2-81-10a 2-81-10b |
असन्तोषः श्रियो मूलं तस्मात्तं कामयाम्यहम्। समुच्छ्रये यो यतते स राजन्परमो नयः।। | 2-81-11a 2-81-11b |
ममत्वं हि न कर्तव्यमैश्वर्ये वा धनेऽपि वा। पूर्वावाप्तं हरन्त्यन्ये राजध्रमं हि तं विदुः।। | 2-81-12a 2-81-12b |
अद्रोहसमंय कृत्वा चिच्छेद नमुचेः शिरः। शक्रः साऽभिमता तस्य रिपौ वृत्तिः सनातनी।। | 2-81-13a 2-81-13b |
द्वावेतौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव। राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।। | 2-81-14a 2-81-14b |
नास्ति वै जातितः शत्रुः पुरुषस्य विशाम्पते। येन साधारणी वृत्तिः स शत्रुर्नेतरो जनः।। | 2-81-15a 2-81-15b |
शत्रुपक्षं समृध्यन्तं यो मोहात्समुपेक्षते। व्याधिराप्यायित इव तस्य मूलं छिनत्ति सः।। | 2-81-16a 2-81-16b |
अल्पोऽपि ह्यरिरत्यर्थं वर्धमानः पराक्रमैः। वल्मीको मूलज इव ग्रसते वृक्षमन्तिकात्।। | 2-81-17a 2-81-17b |
आजमीढ रिपोर्लक्ष्मीर्मा ते रोचिष्ट भारत। एष भारः सत्ववतां न यः शिरसि धिष्ठितः।। | 2-81-18a 2-81-18b |
जन्मवृद्धिमिवार्थानां यो वृद्धिमाभिकाङ्क्षते। एधते ज्ञातिषु स वै सद्यो वृद्धिर्हि विक्रमः।। | 2-81-19a 2-81-19b |
नाप्राप्य पाण्डवैश्वर्यं संशयो मे भविष्यति। अवाप्स्ये वा श्रियं तां हि शयिष्ये वा हतो युधि।। | 2-81-20a 2-81-20b |
एतादृशस्य किं मेऽद्य जीवितेन विशाम्पते। वर्धन्ते पाण्डवा नित्यं वयं स्वस्थिरवृद्धयः।। | 2-81-21a 2-81-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।।81 ।। |
2-81-3 कृत्यं इदानीं कर्तव्यम्।। 2-81-14 अप्रवासिनं तीर्थाटनादिरहितम्।। 2-81-15 साधारणी तुल्या वृत्तिर्जीविका। एकामिषत्वमित्यर्थः।।
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