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जरासन्धशौर्यकथनादिरूपं श्रीकृष्णवाक्यम्।।

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कृष्ण उवाच।। 2-14-1x
सर्वैर्गुणैर्महाराज राजसूयं त्वमर्हसि।
जानतस्त्वेव ते सर्वं किञ्चिद्वक्ष्यामि भारत।।
2-14-1a
2-14-1b
जामदग्न्येन रामेण क्षत्रं यदवशेषितम्।
तस्मादवरजं लोके यदिदं क्षत्रसंज्ञितम्।।
2-14-2a
2-14-2b
कृतोऽयं कलुसङ्कल्पः क्षत्रियैर्वसुधाधिप।
निदेशवाग्भिस्तत्तेह विदितं भरतर्षभ।।
2-14-3a
2-14-3b
ऐलस्येक्ष्वाकुवंशस्य प्रकृतिं परिचक्षते।
राजानः श्रेणिबद्धाश्च तथाऽन्ये क्षत्रिया भुवि।।
2-14-4a
2-14-4b
ऐलवंश्याश्च ये राजंस्तथैवेक्ष्वाकवो नृपाः।
तानि चैकशतं विद्धि कुलानि भरतर्षभ।।
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2-14-5b
ययातेस्त्वेव भोजानां विस्तरो गुणतो महान्।
भजतेऽद्य महाराज विस्तरं सचतुर्दिशम्।।
2-14-6a
2-14-6b
तेषां तथैव तां लक्ष्मीं सर्वक्षत्रमुपासते।
इदानीमेव वै राजञ्जरासन्धो महीपतिः।।
2-14-7a
2-14-7b
अभिभूय श्रियं तेषां कुलानामभिषेचितः।
स्थितो मूर्ध्नि नरेन्द्राणामोजसाऽऽक्रम्य सर्वशः।।
2-14-8a
2-14-8b
सोऽवनीं मध्यमां भुक्त्वा मिथो भेदममन्यत।
प्रभुर्यस्तु परो राजा यस्मिन्नेकवशे जगत्।।
2-14-9a
2-14-9b
स साम्राज्यं महाराज प्राप्तो भवति योगतः।
तं स राजा जरासन्धं संश्रित्य किल सर्वशः।।
2-14-10a
2-14-10b
राजन्सेनापतिर्जातः शिशुपालः प्रतापवान्।
तमेव च महाराज शिष्यवत्समुपस्थितः।।
2-14-11a
2-14-11b
वक्रः करूषाधिपतिर्मायायोधी महाबलः।।
अपरौ च महावीर्यौ महात्मानौ समाश्रितौ।।
2-14-12a
2-14-12b
जरासन्धं महावीर्यं तौ हिंसडिम्बिकावुभौ।
वक्रदन्तः करूषस्य करभो मेघवाहनः।
मूर्ध्ना दिव्यं मणिं बिभ्रद्यमद्भुतमणिं विदुः।।
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2-14-13b
2-14-13c
मरुं च नरकं चैव शास्ति यो यवनाधिपः।
अपर्यन्तबलो राजा प्रतीच्यां वरुणो यथा।।
2-14-14a
2-14-14b
भगदत्तो महाराज वृद्धस्तव पितुः सखा।
स वाचा प्रणतस्तस्य कर्मणा च विशेषतः।।
2-14-15a
2-14-15b
स्नेहबद्धश्च मनसा पितृवद्भक्तिमांस्त्वयि।
प्रतीच्यां दक्षिणं चान्तं पृथिव्याः प्रति यो नृपः।।
2-14-16a
2-14-16b
मातुलो भवतः शूरः पुरुजित्कुन्तिवर्धनः।
स ते सन्नितिमानेकः स्नेहतः शत्रुसूदनः।।
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2-14-17b
जरासन्धं गतस्त्वेव पुरा यो न मया हतः।
पुरुषोत्तमविज्ञातो योसौ चेदिषु दुर्मतिः।।
2-14-18a
2-14-18b
आत्मानं प्रतिजानाति लोकेऽस्मिन्पुरुषोत्तमम्।
आदत्ते सततं मोहाद्यः स चिह्नं च मामकम्।।
2-14-19a
2-14-19b
वङ्गपुण्ड्रकिरातेषु राजा बलसमन्वितः।
पौण्ड्रको वासुदेवेति योसौ लोकेऽभिविश्रुतः।।
2-14-20a
2-14-20b
चतुर्थभाङ्महाराज भोज इन्द्रसखो बली।
विद्याबलाद्यो व्यजयत्स पाण्ड्यक्रथकैशिकान्।।
2-14-21a
2-14-21b
भ्राता तस्याकृतिः शूरो जामदग्न्यसमोऽभवत्।
स भक्तो मागधं राजा भीष्मकः परवीरहा।।
2-14-22a
2-14-22b
प्रियाण्याचरतः प्रह्वान्सदा सम्बन्धिनस्ततः।
भजतो न भजत्यस्मानप्रियेषु व्यवस्थितः।।
2-14-23a
2-14-23b
न कुलं सबलं राजन्नभ्यजानात्तथाऽऽत्मनः।
पश्यमानो यशो दीप्तं जरासन्धमुपस्थितः।।
2-14-24a
2-14-24b
उदीच्याश्च तथा भोजाः कुलान्यष्टादश प्रभो।
जरासन्धभयादेव प्रतीचीं दिशमास्थिताः।।
2-14-25a
2-14-25b
शूरसेना भद्रकारा बोधाः शाल्वाः पटच्चराः।
सुस्थलाश्च सुकुट्टाश्च कुलिन्दाः कुन्तिभिः सह।।
2-14-26a
2-14-26b
शाल्वायनाश्च राजानः सोदर्यानुचरैः सह।
दक्षिणा ये च पञ्चालाः पूर्वाः कुन्तिषु कोसलाः।।
2-14-27a
2-14-27b
तथोत्तरां दिशं चापि परित्यज्य भयार्दिताः।
मत्स्याः सन्न्यस्तपादाश्च दक्षिणां दिशमाश्रिताः।।
2-14-28a
2-14-28b
तथैव सर्वपञ्चाला जरासन्धभायर्दिताः।
स्वराज्यं सम्परित्यज्य विद्रुताः सर्वतोदिशम्।।
2-14-29a
2-14-29b
`अग्रतो ह्यस्य पाञ्चालास्तत्रानीके महात्मनः।
अनिर्गते सारबले मागधेभ्यो गिरिव्रजात्।।
2-14-30a
2-14-30b
उग्रसेनसुतः कंसः पुरा निर्जित्य बान्धवान्'।
बार्हद्रथसुते देव्यावुपागच्छद्वृथामतिः।।
2-14-31a
2-14-31b
अस्तिः प्रास्तिश्च नाम्ना ते सहदेवानुजेऽबले।
बलेन तेन स्वज्ञातीनभिभूय वृथामतिः।।
2-14-32a
2-14-32b
श्रैष्ठ्यं प्राप्तः स तस्यासीदतीवापनयो महान्।
भोजराजन्यवृद्धैश्च पीड्यमानैर्दुरात्मना।।
2-14-33a
2-14-33b
ज्ञातित्राणमभीप्सद्भिरस्मत्सम्भावना कृता।
दत्वाऽऽक्रूराय सुतनुं तामाहुकसुतां तदा।।
2-14-34a
2-14-34b
सङ्कर्षणद्वितीयेन ज्ञातिकार्यं मया कृतम्।
हतौ कंससुनामानौ मया रामेण चाप्युत।।
2-14-35a
2-14-35b
`हत्वा कंसं तथैवादौ जरासन्धस्य बिभ्यतः।
मया रामेण चान्यत्र ज्ञातयः परिपालितः'।।
2-14-36a
2-14-36b
भये तु समतिक्रान्ते जरासन्धे समुद्यते।
मन्त्रोऽयं मन्त्रितो राजन्कुलैरष्टादशावरैः।।
2-14-37a
2-14-37b
अनारमन्तो निघ्नन्तो महास्त्रैः शत्रुघातिभिः।
न हन्यामो वयं तस्य त्रिभिर्वर्षशतैर्बलम्।।
2-14-38a
2-14-38b
तस्य ह्यमरसङ्काशौ बलेन बलिनां वरौ।
नामभ्यां हंसडिबिकावशस्त्रनिधनावुभौ।।
2-14-39a
2-14-39b
तावुभौ सहितौ वीरौ जरासन्धश्च वीर्यवान्।
त्रयस्त्रयाणां लोकानां पर्याप्ता इति मे मतिः।।
2-14-40a
2-14-40b
न हि केवलमस्माकं यावन्तोऽन्ये च पार्थिवाः।
तथैव तेषामासीच्च बुद्धिर्बुद्धिमतां वर।।
2-14-41a
2-14-41b
`अष्टादश मया तस्य सङ्ग्रामा रोमहर्षणाः।
दत्ता न च हतो राजञ्जरासन्धो महाबलः'।।
2-14-42a
2-14-42b
अथ हंस इति ख्यातः कश्चिदासीन्महान्नृपः।
रामेण स हतस्तत्र सङ्ग्रामेऽष्टादशावरे।।
2-14-43a
2-14-43b
हतो हंस इति प्रोक्तस्य केनापि भारत।
तच्छ्रुत्वा डिबिको राजन्यमुनाम्भस्यमज्जत ।।
2-14-44a
2-14-44b
विना हसेन लोकेऽस्मिन्नाहं जीवितुमुत्सहे।
इत्येतां मतिमास्थाय डिबिको निधनं गतः।।
2-14-45a
2-14-45b
तथा तु डिबिकं श्रुत्वा हंसः परुपुरञ्जयः।
प्रपेदे यमुनामेव सोपि तस्यां न्यमज्जत।।
2-14-46a
2-14-46b
तौ स राजा जराजन्धः श्रुत्वा च निधनं गतौ।
पुरं शून्येन मनसा प्रययौ भरतर्षभ।।
2-14-47a
2-14-47b
ततो वयमित्रघ्न तस्मिन्प्रतिगते नृपे।
पुनरान्दिनः सर्वे मधुरायां वसामहे।।
2-14-48a
2-14-48b
यदा त्वभ्येत्य पितरं सा वै राजीवलोचना।
कंसभार्या जरासन्धं दुहिता मागधं नृपम्।
चोदयत्येव राजेन्द्र पतिव्यसनदुःखिता।।
2-14-49a
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2-14-49c
पतिघ्नं मे जहीत्येवं पुनः पुनररिन्दम।
ततो वयं महाराज तं मन्त्रं पूर्वमन्त्रितम्।।
2-14-50a
2-14-50b
संस्मरन्तो विमनसो व्यपयाता नराधिप।
पृथक्त्वेन महाराज सङ्क्षिप्य महतीं श्रियम्।।
2-14-51a
2-14-51b
पलायामो भयात्तस्य ससुतज्ञातिबान्धवाः।
इति सञ्चिन्त्य सर्वे स्म प्रतीचीं दिशमाश्रिताः।।
2-14-52a
2-14-52b
कुशस्थलीं पुरीं रम्यां रैवतेनोपशोभिताम्।
ततो निवेशं तस्यां च कृतवन्तो वयं नृप।।
2-14-53a
2-14-53b
तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्।
स्त्रियोऽपि यस्यां युध्येयुः किमु वृष्णिमहारथाः।।
2-14-54a
2-14-54b
तस्यां वयममित्रघ्न निवसामोऽकुतोभयाः।
आलोच्य गिरिमुख्यं तं मागधं तीर्णमेव च।।
2-14-55a
2-14-55b
माधवाः कुरुशार्दूल परां मुदमवाप्नुवन्।
एवं वयं जरासन्धादभितः कृतकिल्बिषाः।।
2-14-56a
2-14-56b
सामर्थ्यवन्तः सम्बन्धाद्गोमन्तं समुपाश्रिताः।
त्रियोजनायतं सद्म त्रिस्कन्धं योजनावधि।।
2-14-57a
2-14-57b
योजनान्ते शतद्वारं वीरविक्रमतोरणम्।
अष्टादशावरैर्नद्धं क्षत्रियैर्युद्धदुर्मदैः।।
2-14-58a
2-14-58b
अष्टादश सहस्राणि भ्रातृणां सन्ति नः कले।
आहुकस्य शतं पुत्रा एकैकस्त्रिदशावरः।।
2-14-59a
2-14-59b
चारुदेष्णः सह भ्रात्रा चक्रदेवोऽथ सात्यकिः।
अहं च रोहिणेयश्च साम्बः प्रद्युम्न एव च।।
2-14-60a
2-14-60b
एवमेते रथाः सप्त राजन्नन्यान्निबोध मे।
कृतवर्मा ह्यनाधृष्टिः समीकः समिर्तिजयः।।
2-14-61a
2-14-61b
कङ्कः शङ्कुश्च कुन्तिश्च सप्तैते वै महारथाः।
`प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भानुरक्रूरसारणौ।।
2-14-62a
2-14-62b
निशठश्च गदश्चैव सप्त चैते महारथाः।
विकमो झिल्लिबभ्रू च उद्धवोऽथ विदूरथः।।
2-14-63a
2-14-63b
वसुदेवोग्रसेनौ च सप्तैते मन्त्रिपुङ्गवाः।
प्रसेनजिच्च यमलो राजराजगुणान्वितः।।
2-14-64a
2-14-64b
स्यमन्तको मणिर्यस्य रुक्मं निस्रुवते बहु।
पुत्रौ चान्धकभोजस्य वृद्धो राजा च ते दश।।
2-14-65a
2-14-65b
वज्रसंहनना वीरी वीर्यवन्तो महाबलाः।
स्मरन्तो मध्यमं देशं वृष्णिवीरा गतज्वराः।।
2-14-66a
2-14-66b
पाण्डवैश्चापि सततं नाथवन्तो वयं नृप।
सर्वसम्पद्गुणैः सिद्धे तस्मिन्नेवं व्यवस्थिते।।
2-14-67a
2-14-67b
क्षत्रे सम्राजमात्मानं कर्तुमर्हसि भारत।
दुर्योधनं शान्तनवं द्रोणं द्रौणायनिं कृपम्।।
2-14-68a
2-14-68b
कर्णं च शिशुपालं च रुक्मिणं च धनुर्धरम्।
एकलव्यं द्रुमं श्वेतं शैब्यं शकुनिमेव च।।
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2-14-69b
एतानजित्वा सङ्ग्रामे कथं शक्नोषि तं क्रतुम्।
तथैते गौरवेणैव न योत्स्यन्ति नराधिपाः।।
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एकस्तत्र बलोन्मत्तः कर्णो वैकर्तनो वृषा।
योत्स्यते स परामर्षी दिव्यास्रबलगर्वितः'।।
2-14-71a
2-14-71b
न तु शक्यं जरासन्धे जीवमाने महाबल
राजसूयस्त्वयाऽवाप्तुमेषा राजन्मतिर्मम।।
2-14-72a
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तेन रुद्धा हि राजानः सर्वे जित्वा गिरिव्रजे।
कन्दरे पर्वतेन्द्रस्य सिंहेनेव महाद्विपाः।।
2-14-73a
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स हि राजा जरासन्धो यियक्षुर्वसुधाधिपैः।
`अभिषिक्तः स राजन्यैः सहस्रैरुत चाष्टभिः'।
महादेवं महात्मानमुमापतिमरिन्दम।।
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आराध्य तपसोग्रेण निर्जितास्तेन पार्थिवाः।
प्रतिज्ञायाश्च पारं स गतः पार्थिवसत्तम।।
2-14-75a
2-14-75b
स हि निर्जित्य निर्जित्य पार्थिवान्पृतनागतान्।
पुरमानीय बद्ध्वा च चकार पुरुषव्रजम्।।
2-14-76a
2-14-76b
वयं चैव महाराज जरासन्धभयात्तदा।
मधुरा सम्परित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम्।।
2-14-77a
2-14-77b
यदि त्वेनं महाराज यज्ञं प्राप्तुमभीप्ससि।
यतस्व तेषां मोक्षाय जरासन्धवधाय च।।
2-14-78a
2-14-78b
समारम्भो न शक्योऽयमन्यथा कुरुनन्दन।
राजसूयस्य कार्त्स्न्येन कर्तुं मतिमतां वर।।
2-14-79a
2-14-79b
इत्येषा मे मती राजन्यथा वा मन्यसेऽनघ।
एवं गते ममाचक्ष्व स्वयं निश्चित्य हेतुभिः।।
2-14-80a
2-14-80b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
मन्त्रपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः।। 14।।

2-14-4 भुवि ये श्रेणिबद्धा राजानः येचान्ये क्षत्रियाः तान् इक्ष्वाकुवंशस्य प्रकृ ति प्रजां परिचक्षते।।

2-14-56 माधवाः मधुवश्याः ।।

सभापर्व-013 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-015
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