महाभारतम्-02-सभापर्व-069
← सभापर्व-068 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-069 वेदव्यासः |
सभापर्व-070 → |
शिशुपाले सन्नद्धे सति उत्पातदर्शनेन युधिष्ठिरस्य प्रश्ने नारदेन तत्तदुत ्पातानां विशिष्य फलकथनम्।।
|
वैशम्पायन उवाच।। | 2-69-1x |
ततो युद्धाय संनद्धं चेदिराजं युधिष्ठिरः। दृष्ट्वा मतिमतां श्रेष्ठो नारदं समुवाच ह।। | 2-69-1a 2-69-1b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-69-2x |
अन्तरिक्षे च भूमौ च तेऽस्त्यविदितं क्वचित्। यानि राजविनाशाय भौमानि च खगानि च।। | 2-69-2a 2-69-2b |
निमित्तानीह जायन्ते उत्पाताश्च पृथग्विधाः। एतदित्छामि कार्त्स्न्येन श्रोतुं त्वत्तो महामुने।। | 2-69-3a 2-69-3b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-69-4x |
इत्येवं मितमान्विप्रः कुरुराजस्य धीमतः। पृच्छतः सर्वमव्यग्रमाचचक्षे महायशाः।। | 2-69-4a 2-69-4b |
नारद उवाच।। | 2-69-5x |
पराक्रमं च मार्गं च संनिपातं समुच्छ्रयम्। आरोहणं कुरुश्रेष्ठ अन्योन्यं प्रतिसर्पणम्।। | 2-69-5a 2-69-5b |
पश्मीनां व्यतिसंसर्गं व्यायामं वृत्तिपीडनम्। दर्शनादर्शनं चैव अदृश्यानां च दर्शनम्।। | 2-69-6a 2-69-6b |
हानिं वृद्धिं च ह्रासं च वर्णस्थानं बलाबलम्। सर्वमेतत्परीक्षेत ग्रहाणां ग्रहकोविदः।। | 2-69-7a 2-69-7b |
भौमाः पूर्वं प्रवर्तन्ते खेचराश्च ततः परम्। उत्पद्यन्ते च लोकेऽस्मिन्नुत्पाता देवनिर्मिताः।। | 2-69-8a 2-69-8b |
यदा तु सर्वभूतानां छाया न परिवर्तते। अपरेण गते सूर्ये तत्पराभवलक्षणम्।। | 2-69-9a 2-69-9b |
अच्छाये विमलच्छाया प्रतिच्छायेव दृश्यते। यत्र चैत्यकवृक्षाणां तत्र विद्यान्महद्भयम्।। | 2-69-10a 2-69-10b |
शीर्णपर्णप्रवालाश्च शुष्कपर्णाश्च चैत्यकाः। अपभ्रष्टप्रवालाश्च तत्राभावं विनिर्दिशेत्।। | 2-69-11a 2-69-11b |
स्निग्धपर्णप्रवालाश्च दृश्यन्ते यत्र चैत्यकाः। ईहमानाश्च वृक्षाश्च भावस्तत्र न संशयटः।। | 2-69-12a 2-69-12b |
पुष्पे पुष्पं प्रजायेत फले वा फलमाश्रितम्। राजा वा राजमात्रो वा मरणायोपपद्यते।। | 2-69-13a 2-69-13b |
प्रावृट्छरदि हेमन्ते वसन्ते वापि सर्वशः। आकालिकं पुष्पफलं राष्ट्रक्षोभं विनिर्दिशेत्।। | 2-69-14a 2-69-14b |
नदीनां स्त्रोतसोऽकाले द्योतयन्ति महाभयम्। वनस्पतिः पूज्यमानः पूजितोऽपूजितोऽपि वा।। | 2-69-15a 2-69-15b |
यदा भज्येत वातेन भिद्यते नमितोऽपि वा। अग्निवायुभयं विद्याच्छ्रेष्ठो वापि विनश्यति।। | 2-69-16a 2-69-16b |
दिशः सर्वाश्च दीप्यन्ते जायन्ते राजविभ्रमाः। भिद्यमानो यदा वृक्षो निनदेच्चापि पातितः। सह राष्ट्रं च पतितं नतं वृक्षं प्रपातयेत्।। | 2-69-17a 2-69-17b 2-69-17c |
अथैनं छेदयेत्कश्चित्प्रतिक्रुद्धो वनस्पतिः। छेत्ता भेत्ता पतिश्चैव क्षिप्रमेव नशिष्यति।। | 2-69-18a 2-69-18b |
देवतानां च पतनं मष्टपानां च पातनम्। अचलानां प्रकम्पश्च तत्पराभवलक्षणम्।। | 2-69-19a 2-69-19b |
निशि चेन्द्रधनुर्दृष्टं ततोपि च महद्भयम्। तद्द्रष्टरेव भीतिः स्यान्नान्येषां भरतर्षभ।। | 2-69-20a 2-69-20b |
रात्राविन्द्रधनुर्दृष्ट्वा तद्राष्ट्रं परिवर्जयेत्।। | 2-69-21a |
अर्चा यत्र प्रनृत्यन्त नदन्ति च हसन्ति च। उन्मीलन्ति निमीलन्ति राष्ट्रक्षोभं विनिर्दिशेत्।। | 2-69-22a 2-69-22b |
शिला यदि प्रसिञ्चन्ति स्नेहांश्चोदकसम्भवान्। अन्यद्वा विकृतं किञ्चित्तद्भयस्य निदर्शनम्।। | 2-69-23a 2-69-23b |
म्रियन्ते वा महामात्रा राजा सपरिवारकः। पुरस्य या भवेद्व्याधी राष्ट्रे देशे च विभ्रमाः।। | 2-69-24a 2-69-24b |
देवतानां यदाऽऽवासे राज्ञां वा यत्र वेश्मनि। भाण्डागारायुधागारे निविशेत यदा मधु।। | 2-69-25a 2-69-25b |
सर्वं तदा भवेत्स्थानं हन्यमानं बलीयसा। आगन्तुकं भयं तत्र भवेदित्येव निर्दिशेत्।। | 2-69-26a 2-69-26b |
पादपश्चैव यो यत्र रक्तं स्रवति शोणितम्। दन्ताग्रात्कुञ्जरो वापि शृङ्गाद्वा वृषभस्तथा।। | 2-69-27a 2-69-27b |
पादपाद्राष्ट्रिविभ्रंशः कुञ्जराद्राजविभ्रमः। गोब्राह्मणविनाशः स्याद्वृवभस्येति निर्दिशेत्।। | 2-69-28a 2-69-28b |
छत्रं नरपतेर्यत्र निपतेत्पृथिवीतले। सराष्ट्रो नृपती राजन्क्षिप्रमेव विनश्यति।। | 2-69-29a 2-69-29b |
देवागारेषु वा यत्र राज्ञो वा यत्र वेश्मनि। विकृतं यदि दृश्येत नागावासेषु वा पुनः।। | 2-69-30a 2-69-30b |
तस्य देशस्य पीडा स्याद्राज्ञो जनपदस्य वा। अनावृष्टिभयं घोरमतिदुर्भिक्षमादिशेत्।। | 2-69-31a 2-69-31b |
अर्चाया बाहुभङ्गेन गृहस्थानां भयं भवेत्। भग्ने प्रहरणे विद्यात्सेनापतिविनाशनम्।। | 2-69-32a 2-69-32b |
आगन्तुका तु प्रतिमा स्थानं यत्र न विन्दति। जभ्यन्तरेण षण्मासाद्राजा त्यजति तत्पुरम्।। | 2-69-33a 2-69-33b |
प्रदीर्यते मही यत्र विनदत्यपि पात्यते। म्रियते तत्र राजा च तत्र राष्ट्रं विनश्यति।। | 2-69-34a 2-69-34b |
एणीपदान्वा सर्पान्वा डुण्डुभानथ दीप्यकान्। मण्डूको ग्रसते यत्र तत्र राजा विनश्यति।। | 2-69-35a 2-69-35b |
अभिन्नं वाप्यपक्वं वा यत्रान्नमुपचीयते। जीर्यन्ते वा म्रियन्ते वा तदन्नं नोपभुञ्जते।। | 2-69-36a 2-69-36b |
उदपाने च यत्रापो विवर्धन्ते युधिष्ठिर। स्थावरेषु प्रवर्तन्ते निर्गच्छेन्न पुनस्ततः।। | 2-69-37a 2-69-37b |
अपादं वा त्रिपादं वा द्विशीर्षं वा चतुर्भुजम्। स्त्रियो यत्र प्रसूयन्ते ब्रूयात्तत्र पराभवम्।। | 2-69-38a 2-69-38b |
अजैडकाः स्त्रियो गावो ये चान्ये च वियोनयः। विकृतानि प्रजायन्ते तत्र तत्र पराभवः।। | 2-69-39a 2-69-39b |
नदी यत्र प्रतिस्रोता आवहेत्कलुषोदकम्। दिशश्च न प्रकाशन्ते तत्पराभवलक्षणम्।। | 2-69-40a 2-69-40b |
एतानि च निमित्तानि यानि चान्यानि भारत। केशवादेव जायन्ते भौमानि च खगानि च।। | 2-69-41a 2-69-41b |
चन्द्रादित्यौ ग्रहाश्चैव नक्षत्राणि च भारत। वायुरग्निस्तथा चापः पृथिवी च जनार्दनात्।। | 2-69-42a 2-69-42b |
यस्य देशस्य हानिं वा वृद्धिं वा कर्तुमिच्छति। तस्मिन्देशे निमित्तानि तानि तानि करोत्ययम्।। | 2-69-43a 2-69-43b |
सोसौ चेदिपतेस्तात विनाशं समुपस्थितम्। निवेदयति गोविन्दः स्वैरुपायैर्न संशयः।। | 2-69-44a 2-69-44b |
इयं प्रचलिता भूमिरशिवा वान्ति मारुताः। राहुश्चाप्यपतत्सोममपर्वणि विशाम्पते।। | 2-69-45a 2-69-45b |
सनिर्घाताः पतन्त्युल्कास्तमः सञ्जायते भृशम्। चेदिराजविनाशाय हरिरेष विजृम्भते।। | 2-69-46a 2-69-46b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-69-47x |
एवमुक्त्वा तु देवर्षिर्नारदो विरराम ह। ताभ्यां पुरुषसिंहाभ्यां तस्मिन्युद्ध उपस्थिते। | 2-69-47a 2-69-47b |
ददृशुर्भूमिपालास्ते घोरानौत्पातिकान्बहून्।। तत्र वै दृश्यमानानां दिक्षु सर्वासु भारत। | 2-69-48a 2-69-48b |
अश्रूयन्त तदा राजञ्छिवानामशिवा रवाः।। ररास च मही कृत्स्ना सवृक्षवनपर्वता। | 2-69-49a 2-69-49b |
अपर्वणि च मध्याह्ने मूर्यं स्वर्भानुरग्रसत्।। ध्वजाग्रे चेदिराजस्य सर्वरत्नपरिष्कृते। | 2-69-50a 2-69-50b |
अपतत्खाच्च्युतो गृध्रस्तीक्ष्णतुण्डः परन्तप।। आरण्यैः सहसा हृष्टा ग्राम्याश्च मृगपक्षिणः। | 2-69-51a 2-69-51b |
चुक्रुशुर्भैरवं तत्र तस्मिन्युद्ध उपस्थिते।। एवमादिनि घोराणि भौमानि च स्वगानि च। | 2-69-52a 2-69-52b |
औत्पातिकान्यदृश्यन्त सङ्क्रुद्धे शार्ङ्गधन्वनि।। | 2-69-53a |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि शिशुपालवधपर्वणि एकोनसप्ततितमोऽध्यायः।। 69 ।। |
सभापर्व-068 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-070 |