महाभारतम्-02-सभापर्व-098
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निजनगरं गच्छतो युधिष्ठिरस्य मध्येमार्गं दूताह्वानेन पुनर्निवृत्त्य द्यूत सभाप्रवेशः।। 1।। अनुद्यूतेपि युधिष्ठिरस्य शकुनिना पराजयः।। 2।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-98-1x |
ततो व्यध्वगतं पार्थं प्रातिकामी युधिष्ठिरम्। उवाच वचनाद्राज्ञो धृतराष्ट्रस्य धीमतः।। | 2-98-1a 2-98-1b |
उपास्तीर्णा सभा राजन्नक्षानुप्त्वा युधिष्ठिर। एहि पाण्डव दीव्येति पिता त्वाह नराधिपः।। | 2-98-2a 2-98-2b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-98-3x |
धातुर्नियोगाद्भूतानि प्राप्नुवन्ति शुभाशुभम्। न निवृत्तिस्तयोरस्ति देवतव्यं पुनर्यदि।। | 2-98-3a 2-98-3b |
अक्षद्यूते समाह्वानं नियोगात्स्थविरस्य च। जानन्नपि क्षयकरं नातिक्रमितुमुत्सहे।। | 2-98-4a 2-98-4b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-98-5x |
असम्भवो हेममयस्य जन्तो- स्तथापि रामो लुलुभे मृगाय। प्रायः समासन्नपराभवाणां धियो विपर्यस्ततरा भवन्ति।। | 2-98-5a 2-98-5b 2-98-5c 2-98-5d |
इति ब्रुवन्निववृते भ्रातृभिः सह पाण्डवः। जानांश्च शकुनेर्मायां पार्थो द्यूतमियात्पुनः।। | 2-98-6a 2-98-6b |
विविशुस्ते सभां तां तु पुनरेव महारथाः। व्यथयन्ति स्म चेतांसि मुहृदां भरतर्षभाः।। | 2-98-7a 2-98-7b |
यथोपजोषमासीनाः पुनर्द्यूतप्रवृत्तये। सर्वलोकविनाशाय दैवेनोपनिपीडिताः।। | 2-98-8a 2-98-8b |
शकुनिरुवाच।। | 2-98-9x |
अमुञ्चत्स्थविरो यद्वो धनं पूजितमेव तत्। महाधनं ग्लहं त्वेकं शृणु भो भरतर्षभ।। | 2-98-9a 2-98-9b |
वयं वा द्वादशाब्दानि युष्माभिर्द्यूतनिर्जिताः। प्रविशेम महारण्यं रौरवाजिनवाससः।। | 2-98-10a 2-98-10b |
त्रयोदशं च स्वजनैरज्ञाताः परिवत्सरम्। ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश।। | 2-98-11a 2-98-11b |
अस्माभिर्निर्जिता यूयं वने द्वादश वत्सरान्। वसध्वं कृष्णया सार्धमजिनैः प्रतिवासिताः।। | 2-98-12a 2-98-12b |
त्रयोदशं च स्वजनैरज्ञाताः पिरवत्सरम्। ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश।। | 2-98-13a 2-98-13b |
त्रयोदशे च निर्वृत्ते पुनरेव यथोचितम्। स्वराज्यं प्रतिपत्तव्यमितरैरथवेतरैः।। | 2-98-14a 2-98-14b |
अनेन व्यवसायेन सहास्माभिर्युधिष्ठिर। अक्षानुप्त्वा पुनर्द्यूतमेहि दीव्यस्व भारत।। | 2-98-15a 2-98-15b |
अथ सभ्याः सभामध्ये समुच्छ्रितकरास्तदा। ऊचुरुद्विग्नमनसः संवेगात्सर्व एव हि।। | 2-98-16a 2-98-16b |
सभ्या ऊचुः। | 2-98-17x |
अहो धिग्बान्धवा नैनं बोधयन्ति महद्भयम्। बुद्ध्या बुद्ध्येन्न वा बुद्ध्येदयं वै भरतर्षभ।। | 2-98-17a 2-98-17b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-98-18x |
जनप्रवादान्सुबहूञ्शृण्वन्नपि नराधिपः। ह्रिया च धर्मसंयोगात्पार्थो द्यूतमियात्पुनः।। | 2-98-18a 2-98-18b |
जानन्नापि महाबुद्धिः पुनर्द्यूतमवर्तयत्। अप्यासन्नो विनाशः स्यात्कुरूणामितिचिन्तयन्।। | 2-98-19a 2-98-19b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-98-20x |
कथं वै मद्विधो राजा स्वधर्ममनुपालयन्। आहूतो विनिवर्तेत दीव्यामि शकुने त्वया।। | 2-98-20a 2-98-20b |
शकुनिरुवाच।। | 2-98-21x |
गवाश्वं बहुधेनुकमपर्यन्तमजाविकम्। गजाः कोशो हिरण्यं च दासीदासाश्च सर्वशः।। | 2-98-21a 2-98-21b |
हित्वा नो ग्लह एवैको वनवासाय पाण्डवाः। यूयं वयं वा विजिता वसेम वनमाश्रिताः।। | 2-98-22a 2-98-22b |
त्रयोदशं च वै वर्णमज्ञाताः स्वजनैस्तथा। अनेन व्यवसायेन दीव्याम पुरुषर्षभाः। | 2-98-23a 2-98-23b |
समुत्क्षेपेण चैकेन वनवासाय भारत।। | 2-98-24a |
` वैशम्पायन उवाच।। | 2-98-24x |
एवं दैवबलाविष्टो धर्मराजो युधिष्ठिरः। भीष्मद्रोणाऽऽवार्यमाणो विदुरेण च धीमता।। | 2-98-24a 2-98-24b |
युयुत्सुना कृपेणाथ सञ्जयेन च भारत। गान्धार्या पृथया चैव भीमार्जुनयमैस्तथा।। | 2-98-25a 2-98-25b |
विकर्णेन च वीरेण द्रौपद्या द्रौणिना तथा। सोमदत्तेन च तथा बाह्लीकेन च धीमता।। | 2-98-26a 2-98-26b |
वार्यमाणोपि सततं न च राजन्नियच्छति। एवं संवार्यमाणोपि कौन्तेयो हितकाम्यया।। | 2-98-27a 2-98-27b |
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं मुहूर्तं कलिमाविशत्। अविष्टः कलिना राजञ्छकुनिं प्रत्यभाषत।। | 2-98-28a 2-98-28b |
एवं भवत्विति तदा वनवासाय दीव्यति'। प्रतिजग्राह तं पार्थो ग्लहं जग्राह सौबलः।। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-98-29a 2-98-29b 2-98-29c |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि अष्टनवतितमोऽध्यायः।। 98 ।। |
2-98-16 संवेगादतिशयात्।।
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