महाभारतम्-02-सभापर्व-083
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विदुरस्य इन्द्रप्रस्थगमनम्।। 1।। पाण्डवानां द्यूतसभाप्रवेशः।। 2।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-83-1x |
ततः प्रायाद्विदुरोऽश्वैरुदारै- र्महाजवैर्बलिभिः साधु दान्तैः। बलान्नियुक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा मनीषिणां पाण्डवानां सकाशे।। | 2-83-1a 2-83-1b 2-83-1c 2-83-1d |
सोऽभिपत्य तदध्वानमासाद्य नृपतेः पुरम्। प्रविवेश महाबुद्धिः पूज्यमानो द्विजातिभिः।। | 2-83-2a 2-83-2b |
स राजगृहमासाद्य कुबेरभवनोपमम्। अभ्यागच्छत धर्मात्मा धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।। | 2-83-3a 2-83-3b |
तं वै राजा सत्यधृतिर्महात्मा अजातशत्रुर्विदुरं यथावत्। पूजापूर्वं प्रतिगृह्याजमीढ- स्ततोऽपृच्छद्धृतराष्ट्रं सपुत्रम्।। | 2-83-4a 2-83-4b 2-83-4c 2-83-4d |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-83-5x |
विज्ञायते ते मनसोऽप्रहर्षः कच्चित्क्षत्तः कुशलेनागतोऽसि। कच्चित्पुत्राः स्थविरस्यानुलोमा वशानुगाश्चापि विशोऽथ कच्चित्।। | 2-83-5a 2-83-5b 2-83-5c 2-83-5d |
विदुर उवाच।। | 2-83-6x |
राजा महात्मा कुशली सपुत्र आस्ते वृतो ज्ञातिभिरिन्द्रकल्पः। प्रीतो राजन्पुत्रगुणैर्विनीतो विशोक एवात्मरतिर्महात्मा।। | 2-83-6a 2-83-6b 2-83-6c 2-83-6d |
इदं तु त्वां कुरुराजोऽभ्युवाच पूर्वं पृष्ट्वा कुशलं चाव्ययं च। इयं सभा त्वत्सभातुल्यरूपा भ्रातॄणां ते दृस्यतामेत्य पुत्र।। | 2-83-7a 2-83-7b 2-83-7c 2-83-7d |
समागम्य भ्रातृभिः पार्थ तस्यां सुहृद्द्यूतं क्रियतां रम्यतां च। प्रीयामहे भवतां सङ्गमेन समागताः कुरवश्चापि सर्वे।। | 2-83-8a 2-83-8b 2-83-8c 2-83-8d |
दुरोदरा विहिता ये तु तत्र महात्मना धृतराष्ट्रेण राज्ञा। तान्द्रक्ष्यसे कितवान्सन्निविष्टा- नित्यागतोऽहं नृपते तज्जुषस्व।। | 2-83-9a 2-83-9b 2-83-9c 2-83-9d |
युधिष्ठर उवाच।। | 2-83-10x |
द्यूते क्षत्तः कलहो विद्यते नः को वै रोचतने बुध्यमानः। किं वा भवान्मन्यते युक्तरूपं भवद्वाक्ये सर्व एव स्थिताः स्मः।। | 2-83-10a 2-83-10b 2-83-10c 2-83-10d |
विदुर उवाच।। | 2-83-11x |
जानाम्यहं द्यूतमनर्थमूलं कृतश्च यत्नोऽस्य मया निवारणे। राजा च मां प्राहिमोत्त्वत्सकाशं श्रुत्वा विद्वञ्श्रेय इहाचरस्व।। | 2-83-11a 2-83-11b 2-83-11c 2-83-11d |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-83-12x |
के तत्रान्ये कितवा दीव्यमाना विना राज्ञो धृतराष्ट्रस्य पुत्रैः। पृच्छामि त्वां विदुर ब्रूहि नस्तान् यैर्दीव्यामः शतशः सन्निपत्य।। | 2-83-12a 2-83-12b 2-83-12c 2-83-12d |
विदुर उवाच।। | 2-83-13x |
गन्धारराजः शकुनिर्विशाम्पते राजाऽतिदेवी कृतहस्तो मताक्षः। विनिंशतिश्चित्रसेनश्च राजा सत्यव्रतः पुरुमित्रो जयश्च।। | 2-83-13a 2-83-13b 2-83-13c 2-83-13d |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-83-14x |
महाभयाः कितवाः सन्निविष्टा मायोपधा देवितारोऽत्र सन्ति। धात्रा तु दिष्टस्य वशे किलेदं सर्वं जगत्तिष्ठति न स्वतन्त्रम्।। | 2-83-14a 2-83-14b 2-83-14c 2-83-14d |
नाहं राज्ञो धृतराष्ट्रस्य शासना- न्न गन्तुमिच्छामि कवे दुरोदरम्। इष्टो हि पुत्रस्य पिता सदैव तदस्मि कर्ता विदुरात्थ मां यथा।। | 2-83-15a 2-83-15b 2-83-15c 2-83-15d |
न चाकामः शकुनिना देविताहं न चेन्मां जिष्णुराह्वयिता सभायाम्। आहूतोऽहं न निवर्ते कदाचित् तदाहितं शाश्वतं वै व्रतं मे।। | 2-83-16a 2-83-16b 2-83-16c 2-83-16d |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-83-17x |
एवमुक्त्वा विदुरं धर्मराजः प्रायात्रिकं सर्वमाज्ञाप्य तूर्णम्। प्रायाच्छ्वोभूते सगणः सानुयात्रः सह स्त्रीभिर्दौपदामादि कृत्वा।। | 2-83-17a 2-83-17b 2-83-17c 2-83-17d |
दैवं हि प्रज्ञां मुष्णाति चक्षुस्तेज इवापतत्। धातुश्च वशमन्वेति पाशैरिव नरः सितः।। | 2-83-18a 2-83-18b |
इत्युक्त्वा प्रययौ राजा सह क्षत्र्रा युधिष्ठिरः। अमृष्यमाणस्तस्याथ समाह्वानमरिन्दमः।। | 2-83-19a 2-83-19b |
बाह्लिकेन रथं यत्तमास्थाय परवीरहा। परिच्छन्नो ययौ पार्थो भ्रातृभिः सह पाण्डवः। राजश्रिया दीप्यमानो ययौ ब्रह्मपुरः सरः।। | 2-83-20a 2-83-20b 2-83-20c |
`सन्दिदेश ततः प्रेष्यानागतान्नगरं प्रति। ततस्ते नृपशार्दूल चक्रुर्वै नृपशासनम्।। | 2-83-21a 2-83-21b |
ततो राजा महातेजाः संयम्य सपरिच्छदम्। ह्मणैः स्वस्ति वाच्याथ प्रययौ मन्दिराद्बहिः | 2-83-22a 2-83-2b |
ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा गत्यर्थं स यथाविधि। अन्येभ्यः स तु दत्त्वा च गन्तुमेवोपचक्रमे।। | 2-83-23a 2-83-23b |
सर्वलक्षणसम्पन्नं राजहंसपरिच्छदम्। तमारुह्य महाराजो गजेन्द्रं षष्टिहायनम्।। | 2-83-24a 2-83-24b |
हारी किरीटी हेमाभः सर्वाभरणभूषितः। रराज राजन्पार्थो वै परया नृपशोभया।। | 2-83-25a 2-83-25b |
रुक्मवेदिगतः प्राज्यो ज्वलन्निव हुताशनः। ततो जगाम राजा स प्रहृष्टनरवाहनः।। | 2-83-26a 2-83-26b |
रथघोषेण महता पूरयन्वै नभः स्थलम्। संस्तूयमानः स्तुतिभिः सूतमागधबन्दिभिः।। | 2-83-27a 2-83-27b |
महासैन्येन सहितो यथादित्यः स्वरश्मिभिः। ण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि।। | 2-83-28a 2-83-28b |
बभौ युधिष्ठिरो राजा पौर्णमास्यामिवोडुराट्। चामरैर्हेमदण्डैश्च धूयमानः समन्ततः।। | 2-83-29a 2-83-29b |
याशिषः प्रहृष्टानां नराणां पथि पाण्डवः। प्रत्यगृह्णाद्यथान्यायं यथआवद्भरतर्षभः।। | 2-83-30a 2-83-30b |
तथैव सैनिका राजन्राजानमनुयान्ति ये। तेषां हलहलाशब्दो दिवं स्तब्धः प्रतिष्ठितः।। | 2-83-31a 2-83-31b |
नृपस्याग्ने ययौ राजन्भीमसेनो रथी बली। उभौ पार्श्वगतौ राज्ञः सतल्पौ वै सुकल्पितौ।। | 2-83-32a 2-83-32b |
अधिरूढौ यमौ चापि जग्मतुर्भरतर्षभ। शोभयन्तौ महासैन्यं तावुभौ रूपशालिनौ।। | 2-83-33a 2-83-33b |
पृष्ठतोऽनुययौ जिष्णुर्वीरः शस्त्रभृतां वरः। श्वेताश्वो गाण्डिवं गृह्य अग्निदत्तं रथं गतः।। | 2-83-34a 2-83-34b |
सैन्यमध्ये ययौ राजन्कुरुराजो युधिष्ठिरः। द्रौपदीप्रमुखा नार्यः सानुगाः सपरिच्छदाः।। | 2-83-35a 2-83-35b |
आरुह्य ता विचित्राङ्ग्यो यानानि विविधानि च। महत्या सेनया राजन्नग्रे यानानि विविधानि च। | 2-83-36a 2-83-36b |
समृद्धनरनागाश्वं सपताकरथध्वजम्। संनद्धवरनिस्त्रिंशं पथि निर्घोषनिः स्वनम्।। | 2-83-37a 2-83-37b |
शङ्खदुन्दुभितालानां वेणुवीणानुवनादितम्। शुशुभे पाण्डवं सैन्यं प्रयास्यत्तत्तदा नृप।। | 2-83-38a 2-83-38b |
यथा कुबेरो लङ्कायां पुरा चात्यन्तशोभया। महत्या सेनया सार्धं गुरुमिन्द्रं स गच्छति।। | 2-83-39a 2-83-39b |
तथा ययौ स पार्थोऽपि असङ्ख्येयविभूतिना। सुसमृद्धेन सैन्येन यथा वैश्रवणस्तथा।। | 2-83-40a 2-83-40b |
स सरांसि नदीश्चैव वनान्युपवनानि च। अत्यक्रामन्महाराज पुरीं चाभ्यवपद्यत।। | 2-83-41a 2-83-41b |
स हास्तिनसमीपे तु कुरुराजो युधिष्ठिरः। चक्रे निवेशनं तत्र ततः स सहसैनिकाः।। | 2-83-42a 2-83-42b |
शिवे देशे समे चैव न्यवसत्पाण्डवस्तदा। ततोराजन्समाहूय शोकविह्वलया गिरा।। | 2-83-43a 2-83-43b |
तद्वाक्यं च सर्वस्वं धृतराष्ट्रचिकीर्षितम्। आचचक्षे यथावृत्तं विदुरोऽथ नृपस्य ह।। | 2-83-44a 2-83-44b |
तच्छ्रुत्वा भाषितं तेन धर्मराजोऽब्रवीदिदम्। न मर्षयाम्यहं क्षत्तः समाह्वानं व्रतं हि मे। स्वस्त्यस्तु लोके विप्राणां प्रजानां चैव सर्वदा।। | 2-83-45a 2-83-45b 2-83-45c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-83-46x |
प्रविवेश ततो राजा नगरं नागसाह्वयम्। धृतराष्ट्रेण चाहूतः कालस्य समयेन च'।। | 2-83-46a 2-83-46b |
स हास्तिनपुरं गत्वा धृतराष्ट्रगृहं ययौ। समियाय च धर्मात्मा धृतराष्ट्रेण पाण्डवः।। | 2-83-47a 2-83-47b |
तथा भीष्मेण द्रोणेन कर्णेन च कृपेण च। समियाय यथान्यायं द्रौणिना च विभुः सह | 2-83-48a 2-83-48b |
समेत्य च महाबाहुः सोमदत्तेन चैव ह। दूर्योधनेन सभ्रात्रा सौबलेन च वीर्यवान्।। | 2-83-49a 2-83-49b |
ये चान्ये तत्र राजानः पूर्वमेव समागताः। दुःशासनेन वीरेण सर्वैर्भ्रातृभिरेव च।। | 2-83-50a 2-83-50b |
जयद्रथेन च तथा कुरुभिश्चापि सर्वशः। ततः सर्वैर्महाबाहुर्भ्रातृभिः पिरवारितः।। | 2-83-51a 2-83-51b |
प्रविवेश गृहं राज्ञो धृतराष्ट्रस्य धीमतः। ददर्श तत्र गान्धारीं देवीं पतिमनुव्रताम्।। | 2-83-52a 2-83-52b |
स्नुषाभिः संवृतां शश्वत्ताराभिरिव रोहिणीम्। अभिवाद्य स गान्धारीं तया च प्रतिनन्दितः।। | 2-83-53a 2-83-53b |
ददर्श पितरं वृद्धं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम्।। | 2-83-54a |
राज्ञा मूर्धन्युपाघ्रातास्ते च कौरवनन्दनाः। चत्वारः पाण्डवा राजन्भीमसेनपुरोगमाः।। | 2-83-55a 2-83-55b |
ततो हर्षः समभवत्कौरवाणां विशाम्पते। तान्दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रान्पाण्डवान्प्रियदर्शनान्।। | 2-83-56a 2-83-56b |
विविशुस्तेऽभ्यनुज्ञाता रत्नवन्ति गृहाणि च। ददृशुश्चोपयातारो द्रोपदीप्रमुखाः स्त्रियः।। | 2-83-57a 2-83-57b |
याज्ञसेन्याः परामृद्धिं दृष्ट्वा प्रज्वलितामिव। स्नुषास्ता धृतराष्ट्रस्य नातिप्रमनसोऽभवन्।। | 2-83-58a 2-83-58b |
ततस्ते पुरुषव्याघ्रा ग्तवा स्त्रीभिस्तु संविदम्। कृत्वा व्यायामपूर्वाणि कृत्यानि प्रतिकर्म च।। | 2-83-59a 2-83-59b |
ततः कृताह्निकाः सर्वे दिव्यचन्दनभूषिताः। कल्याणमनसश्चैव ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च।। | 2-83-60a 2-83-60b |
मनोज्ञमशनं भुक्त्वा विविशुः शरणान्यथ। उपगीयमाना नारीभिरस्वपन्कुरुपुङ्गवाः।। | 2-83-61a 2-83-61b |
जगाम तेषां सा रात्रिः पुण्या रतिविहारिणाम्। स्तूयमानाश्च विश्रान्ताः काले निद्रामथात्यजन्।। | 2-83-62a 2-83-62b |
मुखोषितास्ते रजनीं प्रातः सर्वे कृताह्निकाः। सभां रम्यां प्रविविशुः कितवैरभिनन्दिताः।। | 2-83-63a 2-83-63b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि व्यशीतितमोऽध्यायः।।83 ।। |
2-83-2 द्विजातिभिस्त्रैवर्णिकैः।।
2-83-6 आत्मरतिः आत्मनः स्वस्योत्कर्ष एव रतिर्यस्य नतु धर्ममन्वीक्षते इति भावः।। 2-83-7 अव्ययं धनादेरविनाशम्।। 2-83-9 दुरोदरा द्यूतकराः।। 2-83-17 आदि अविभक्तिकनिर्देशः।। 2-83-57 यातारः यातरः।। 2-83-59 संविदं मिथः कथाम्। व्यायामः श्रमानोदनव्यापारः पूर्वो येषां तानि। प्रतिकर ्म केशप्रसाधनादिपरिष्कारम्।।
सभापर्व-082 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-084 |