महाभारतम्-02-सभापर्व-071
← सभापर्व-070 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-071 वेदव्यासः |
सभापर्व-072 → |
विस्तरेण राजसूयवर्णनम्।। 1।।
|
वैशम्पायन उवाच।। | 2-71-1x |
ततः प्रववृते यज्ञो धर्मराजस्य धीमतः। शान्तविघ्नार्हणक्षोभो महर्षिगणसङ्कुलः।। | 2-71-1a 2-71-1b |
तं तु यज्ञं महाबाहुरासमाप्तेर्जनार्दनः। ररक्ष भगवाञ्छौरिः शार्ङ्गचक्रगदाधरः।। | 2-71-2a 2-71-2b |
तस्मिन्यज्ञे प्रवृत्ते तु वाग्मिनो हेतुवादिनः। हेतुवादान्बहून्प्राहुः परपक्षजिगीषवः।। | 2-71-3a 2-71-3b |
ददृशुस्ते नृपतयो यज्ञस्य विधिमुत्तमम्। उपेन्द्रस्येव विहितं सहदेवेन भारत।। | 2-71-4a 2-71-4b |
तद्यज्ञे न्यवसन्राजन्ब्राह्मणा भृशमुत्सुकाः। कथयन्तः कथाः पुण्याः पश्यन्तो नटनर्तकान्।। | 2-71-5a 2-71-5b |
ददृशुस्तोरणान्यत्र हेमतालमयानि च। दीप्तभास्करतुल्यानि प्रदीप्तानीव तेजसा।। | 2-71-6a 2-71-6b |
स यज्ञस्तोरणैस्तत्र ग्रहैर्द्योरिव सम्बभौ। शय्यासनविहारांश्च सुबहून्रत्नसंवृतान्।। | 2-71-7a 2-71-7b |
घटान्पात्रीकटाहानि कलशानि समन्ततः। न ते किञ्चिदसौवर्णमपश्यंस्तत्र पार्थिवाः।। | 2-71-8a 2-71-8b |
भुञ्जानानां च विप्राणां स्वादुभोज्यैः पृथग्विधैः। अनिशं श्रूयते तत्र मुदितानां महात्मनाम्।। | 2-71-9a 2-71-9b |
दीयतां दीयतामेषां भुज्यतां भुज्यतामिति। एवम्प्रकाराः सञ्जल्पाः श्रूयन्ते तत्र नित्यशः।। | 2-71-10a 2-71-10b |
ओदनानां विकाराणि स्वादूनि च बहूनि च। विविधआनि च भक्ष्याणि पेयानि मधुराणि च।। | 2-71-11a 2-71-11b |
ददुर्द्विजानां सततं राजप्रेष्या महाध्वरे। पूर्णे शतसहस्रे तु विप्राणां भुञ्जतां तदा।। | 2-71-12a 2-71-12b |
स्थापितस्तत्र सञ्ज्ञार्थं शङ्खोऽध्मायत नित्यशः। मुहुर्मुहुः प्रणादस्तु तस्य शङ्खस्य भारत।। | 2-71-13a 2-71-13b |
उत्तमः श्रूयते शब्दः श्रुत्वा विस्मयमागमन्। एवं प्रवृत्ते यज्ञे तु तुष्टपुष्टजनायुते।। | 2-71-14a 2-71-14b |
अन्नस्य बहुशो राजन्नुत्सेधाः पर्वतोपमाः। दधिकुल्याश्च ददृशुः सर्पिषश्च ह्रदाञ्जनाः।। | 2-71-15a 2-71-15b |
जम्बूद्वीपो हि सकलो नानाजनपदायुतः। राजन्नदृश्यतैकस्थो राज्ञस्तस्मिन्महाक्रतौ।। | 2-71-16a 2-71-16b |
तत्र राजसहस्राणि पुरुषाणां ततस्ततः। गृहीत्वा धनमाजग्मुस्तस्य राज्ञो महाक्रतौ।। | 2-71-17a 2-71-17b |
राजानः स्रग्विणश्चैव संमृष्टमणिकुण्डलाः। तान्परीविविषुर्विप्राञ्छतशोऽथ सहस्रशः।। | 2-71-18a 2-71-18b |
विविधान्यन्नपानानि लेह्यानि विविधानि च। तेषां नृपोपभोग्यानि ब्राह्मणेभ्यो ददुः स्म ते।। | 2-71-19a 2-71-19b |
नानाविधानि भक्ष्याणि स्वादुपुष्पफलानि च। गुलानि स्वादुक्षौद्राणि ददुस्ते ब्राह्मणेषु वै।। | 2-71-20a 2-71-20b |
एतानि सततं भुक्त्वा तस्मिन्यज्ञे द्विजातयः। परां प्रीतिं ययुः सर्वे मोदमानास्ततस्ततः।। | 2-71-21a 2-71-21b |
एवं प्रमुदितं सर्वं बहुशो धनधान्यवत्। यज्ञवाटं नृपा दृष्ट्वा विस्मयं परमं ययुः।। | 2-71-22a 2-71-22b |
यथाबद्धूयमानाग्निं राजसूयं महाक्रतुम्। पाण्डवस्य यथाशास्त्रं जुहुवुः सर्वयाजकाः।। | 2-71-23a 2-71-23b |
व्यासधौम्यादयः सर्वे विधिवत्षोडशर्त्विजः। स्वस्वकर्माणि चक्रुस्ते पाण्डवस्य महाक्रतौ।। | 2-71-24a 2-71-24b |
नाषडङ्गविदत्रासीत्सदस्यो नाबहुश्रुतः। नाव्रतो नानुपाध्यायो न पापो नाक्षमो द्विजः।। | 2-71-25a 2-71-25b |
न तत्र कृपणः कश्चिद्दरिद्रो न बभूव ह। क्षुधितो दुःखितो वापि प्राकृतो वापि मानुषः।। | 2-71-26a 2-71-26b |
भोजनं भोजनार्थिभ्यो दापयामास सर्वदा। सहदेवो महातेजाः सततं राजशासनात्।। | 2-71-27a 2-71-27b |
संस्तरे कुशलाश्चापि सर्वकर्माणि याजकाः। दिवस दिवसे चक्रुर्यथाशास्त्रार्थचक्षुषः।। | 2-71-28a 2-71-28b |
ब्राह्मणा देवशास्त्रज्ञः कथाश्चक्रुश्च सर्वतः। रेमिरे च कथान्ते तु सर्वे तस्मिन्महाक्रतौ।। | 2-71-29a 2-71-29b |
सा वेदिर्वेदसम्पन्नैर्देवद्विजमहर्षिभिः। बभासे तदा कीर्णा नक्षत्रैर्द्यौरिवामला।। | 2-71-30a 2-71-30b |
पाण्डित्यदर्शनार्थाय केचन द्विजसत्तमाः। तर्कार्थमागताः केचित्केचिद्विद्याभिमानिनः।। | 2-71-31a 2-71-31b |
केचिद्दिदृक्षया केचिद्भीत्या राज्ञः प्रतापिनः। सर्वेऽप्यवभृथस्नाता याजकाः केचन द्विजाः।। | 2-71-32a 2-71-32b |
ततो वै हेमयूपांश्च सर्वरत्नसमाचितान्। शोभार्थं कारयामास सहदेवो महाद्युतिः।। | 2-71-33a 2-71-33b |
ददृशुस्तोरणान्यत्र हेमतालमयानि च। स यज्ञस्तोरणैस्तैश्च ग्रहैर्द्योरिव सम्बभौ।। | 2-71-34a 2-71-34b |
तालानां तोरणैर्हैमैर्दान्तैरिव दिशागजैः। दिक्षु सर्वासु विन्यस्तैस्तेजोभिर्भास्करैर्यथा।। | 2-71-35a 2-71-35b |
सकिरीटैर्नृपैश्चैव शुशुभे तत्सदस्तदा। देवैर्दिव्यैश्च यक्षैश्च उरगैर्दिव्यमानुषैः।। | 2-71-36a 2-71-36b |
विद्याधरगणैः कीर्णः पाण्डवस्य महात्मनः। स राजसूयः शुशुभे धर्मराजस्य धीमतः।। | 2-71-37a 2-71-37b |
गन्धर्वगणसङ्कीर्णः शोभितोऽप्सरसां गणैः। देवैर्मुनिगणैर्यक्षैर्देवलोक इवापरः।। | 2-71-38a 2-71-38b |
स किम्पुरुषगीतैश्च किन्नरैरुपशोभितः। नारदश्च जगौ तत्र तुम्बुरुश्च महाद्युतिः।। | 2-71-39a 2-71-39b |
विश्वासुश्चित्रसेनस्तथाऽन्ये गीतकोविदाः। रमयन्ति स्म तान्सर्वान्यज्ञकर्मान्तरेष्वथ।। | 2-71-40a 2-71-40b |
तत्र चाप्सरसः सर्वाः सुन्दर्यः प्रियदर्शनाः। ननृतुश्च जगुश्चात्र नित्यं कर्मान्तरेष्वथ।। | 2-71-41a 2-71-41b |
इतिहासपुराणानि आख्यानानि च सर्वशः। ऊचुर्वै शब्दशास्त्रज्ञा नित्यं कर्मान्तरेष्वथ।। | 2-71-42a 2-71-42b |
भेर्यश्च मुरजाश्चैव मड्डुका गोमुखाश्च ये। शृङ्गवंशाम्बुजा वीणाः श्रूयन्ते स्म सहस्रशः।। | 2-71-43a 2-71-43b |
लोकेऽस्मिन्सर्वविप्राश्च वैश्याः शूद्रा नृपादयः। सर्वे म्लेच्छाः सर्वगणास्त्वादिमध्यान्तजास्तथा। | 2-71-44a 2-71-44b |
नानादेशसमुद्भूतैर्नानाजातिभिरागतैः। पर्याप्त इव लोकोऽयं युधिष्ठिरनिवेशने।। | 2-71-45a 2-71-45b |
भीष्मद्रोणादयः सर्वे कुरवः ससुयोधनाः। वृष्णयश्च समग्राश्च पाञ्चालाश्चापि सर्वशः।। | 2-71-46a 2-71-46b |
यज्ञेऽस्मिन्सर्वकर्माणि चक्रुर्दासा इव क्रतौ। एवं प्रवृत्तो यज्ञः स धर्मराजस्य धीमतः।। | 2-71-47a 2-71-47b |
शुशुभे च महाबाहो सोमस्येव क्रतुर्यथा। वस्त्राणि कम्बलांश्चैव प्रावारांश्चैव सर्वदा।। | 2-71-48a 2-71-48b |
निष्कहेमजभाण्डानि भूषणानि च सर्वशः। प्रददौ तत्र विप्राणां धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 2-71-49a 2-71-49b |
यानि तत्र महीपालैर्लब्धवान्भरतर्षभः। तानि सर्वाणि रत्नानि ब्राह्मणानां ददौ तदा'।। | 2-71-50a 2-71-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि शिशुपालवधपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः।।71 ।। |
सभापर्व-070 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-072 |