महाभारतम्-02-सभापर्व-041
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शिशुपालं सान्त्वयन्तं युधिष्ठिरं निवार्य भीष्णेण श्रीकृष्णमाहात्म्यकथनम् ।। 1।।
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वैशम्पायन उवाच। | 2-41-1x |
ततो युधिष्ठिरो राजा शिशुपालमुपाद्रवत्। उवाच चैनं मधुरं सान्त्वपूर्वमिदं वचः।। | 2-41-1a 2-41-1b |
नेदं युक्तं महीपाल यादृशं वै त्वमुक्तवान्। अधर्मश्च परो राजन्पारुष्यं च निरर्थकम्।। | 2-41-2a 2-41-2b |
न हि धर्मं परं जातु नावबुध्येत पार्थिवः। भीष्मः शान्तनवस्त्वेनं मावमंस्थास्त्वमन्यथा।। | 2-41-3a 2-41-3b |
पश्य चैतान्महीपालांस्त्वत्तो वृद्धतरान्बहून्। मृष्यन्ते चार्हणां कृष्णे तद्वत्वं क्षन्तुमर्हसि।। | 2-41-4a 2-41-4b |
वेद तत्त्वेन कृष्णं हि भीष्णश्चेदिपते भृशम्। न ह्येनं त्वं तथा यथैनं वेद कौरवः।। | 2-41-5a 2-41-5b |
भीष्म उवाच। | 2-41-6x |
नास्मै देयो ह्यनुनयो नायमर्हति सान्त्वनम्। लोकवृद्धतमे कृष्णे योऽर्हणां नाभिमन्यते।। | 2-41-6a 2-41-6b |
क्षत्रियः क्षत्रियं जित्वा रणे रणकृतां वरः। यो मुञ्चति वशे कृत्वा गुरुर्भवति तस्य सः।। | 2-41-7a 2-41-7b |
अस्यां हि समितौ राज्ञामेकमप्यजितं युधि। न पश्यामि महीपालं सात्वतीपुत्रतेजसा।। | 2-41-8a 2-41-8b |
न हि केवलमस्माकमयमर्च्यतमोऽच्युतः। त्रयाणामपि लोकानामर्चनीयो महाभुजः।। | 2-41-9a 2-41-9b |
कृष्णेन हि जिता युद्धे बहवः क्षत्रियर्षभाः। जगत्सर्वं च वार्ष्णेये निखिलेन प्रतिष्ठितम्।। | 2-41-10a 2-41-10b |
तस्मात्सत्स्वपि वृद्धेषु कृष्णमर्चाम नेतरान्। एवं वक्तुं न चार्हस्त्वं मा तेऽभूद्बुद्धिरीदृशी।। | 2-41-11a 2-41-11b |
ज्ञानवृद्धा मया राजन्बहवः पर्युपासिताः। `यस्य राजन्प्रभावज्ञाः पुरा सर्वे च रक्षिताः'। तेषां कथयतां शौरेरहं गुणवतो गुणान्।। | 2-41-12a 2-41-12b 2-41-12c |
समागतानामश्रौषं बहून्बहुमतान्सताम्। कर्माण्यपि च यान्यस्य जन्मप्रभृति धीमतः।। | 2-41-13a 2-41-13b |
बहृशः कथ्यमानानि नरैर्भूयः श्रुतानि मे। न केवलं वयं कामाच्चेदिगज जनार्दनम्।। | 2-41-14a 2-41-14b |
न सम्बन्धं पुरस्कृत्य कृतार्थं वा कथञ्चन। अर्चामहेऽर्चितं सद्भिर्भुवि भूतसुखावहम्।। | 2-41-15a 2-41-15b |
यशः शौर्यं जयं चास्य विज्ञायार्चां प्रयुञ्ज्महे न च कश्चिदिहास्माभिः सुवालोप्यपरीक्षितः।। | 2-41-16a 2-41-16b |
गुणैर्वृद्धानतिक्रम्य हरिरर्च्यतमो मतः। ज्ञानवृद्धो द्विजातीनां क्षत्रियाणां बलाधिकः।। | 2-41-17a 2-41-17b |
वैश्यानां धान्यधनवाञ्शूद्राणामेव जन्मतः। पूज्यतायां च गोविन्दे हेतू द्वावपि संस्थितौ।। | 2-41-18a 2-41-18b |
वेदवेदाङ्गविज्ञानं बलं चाभ्यधिकं तथा। नृणां लोके हि कोऽन्योस्ति विशिष्टः केशवादृते।। | 2-41-19a 2-41-19b |
दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्यं ह्रीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमा। संनतिः श्रीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताऽच्युते।। | 2-41-20a 2-41-20b |
तमिमं लोकसम्पन्नमाचार्यं पितरं गुरुम्। अर्घ्यमर्चितमर्चामः सर्वे सङ्क्षन्तुमर्हथ।। | 2-41-21a 2-41-21b |
ऋत्विग्गुरुर्विवाह्यश्च स्नातको नृपतिः प्रियः। सर्वमेतद्धृषीकेशस्तस्मादभ्यर्चितोऽच्युतः।। | 2-41-22a 2-41-22b |
कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः। कृष्णस्य हि कृते विश्वमिदं भूतं चराचरम्।। | 2-41-23a 2-41-23b |
एष प्रकृतिरव्यक्ता कर्ता चैव सनातनः। परश्च सर्वभूतेभ्यस्तस्मात्पूज्यतमोऽच्युतः।। | 2-41-24a 2-41-24b |
द्धिर्मनो महद्वायुस्तेजोऽभः खं मही च या। चतुर्विधं च यद्भूतं सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम्।। | 2-41-25a 2-41-25b |
आदित्यश्चन्द्रमाश्चैव नक्षत्राणि ग्रहाश्च ये। दिशश्च विदिशश्चैव सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम्।। | 2-41-26a 2-41-26b |
` एष रुद्रश्च सर्वात्मा ब्रह्मा चैव सनातनः। अक्षरं क्षररूपेण मानुषत्वमुपागतः'।। | 2-41-27a 2-41-27b |
अग्निहोत्रमुखा वेदा गायत्री च्छन्दसां मुखम्। राजा मुखं मनुष्याणां नदीनां सागरो मुखम्।। | 2-41-28a 2-41-28b |
नक्षत्राणां मुखं चन्द्र आदित्यस्तेजसां मुखम्। पर्वतानां मुखं मेरुर्गरुडः पततां मुखम्।। | 2-41-29a 2-41-29b |
ऊर्ध्वं तिर्यगधश्चैव यावती जगतो गतिः। सदेवकेषु लोकेषु भगवान्केशवो मुखम्।। | 2-41-30a 2-41-30b |
अयं तु पुरुषो बालः शिशुपालो न बुध्यते। सर्वत्र सर्वदा कृष्णं तस्मादेवं प्रभाषते।। | 2-41-31a 2-41-31b |
यो हि धर्मं विचिनुयादुत्कृष्टं मतिमान्नरः। स वै पश्येद्यथा धर्मं न तथा चेदिराडयम्।। | 2-41-32a 2-41-32b |
सवृद्धबालेष्वथवा पार्थिवेषु महात्मसु। को नार्हं मन्यते कृष्णं को वाप्येनं न पूजयेत्।। | 2-41-33a 2-41-33b |
अथैनां दुष्कृतां पूजां शिशुपालो व्यवस्यति। दुष्कृतायां यथान्यायं तथाऽयं कर्तुमर्हति।। | 2-41-34a 2-41-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अर्घाहरणपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्2-41-25 चतुर्विधं जरायुजादि भौतिकम्।।
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