महाभारतम्-02-सभापर्व-036
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द्वारकातः आगतस्य श्रीकृष्णस्याज्ञया यज्ञसामग्रीसम्पादनोपक्रमः।। 1।।
द्वैपायनेन ऋत्विगानयनम्।। 2।।
ब्राह्मणक्षत्रियादीनामामन्त्रणाय दूतप्रेषणम्।। 3।।
धृतराष्ट्राद्यमन्त्रणाय नकुलगमनम्।। 4।।।
दीक्षा ।। 5।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-36-1x |
रक्षणाद्धर्मराजस्य सत्यस्य परिपालनात्। शत्रूणां क्षपणाच्चैव स्वकर्मनिरताः प्रजाः।। | 2-36-1a 2-36-1b |
बलीनां सम्यगादानाद्धर्मतश्चानुशासनात्। निकामवर्षी पर्जन्यः स्फीतो जनपदोऽभवत्।। | 2-36-2a 2-36-2b |
सर्वारम्भाः सुप्रवृत्ता गोरक्षा कर्षणं वणिक्। विशेषात्सर्वमेवैतत्सञ्जज्ञे राजकर्मणः।। | 2-36-3a 2-36-3b |
दस्युभ्यो वञ्चकेभ्यो वा राजन्प्रति परस्परम्। राजवल्लभतश्चैव नाश्रूयन्त मृषागिरः।। | 2-36-4a 2-36-4b |
अवर्षं चातिवर्षं च व्याधिपावकमूर्छनम्। सर्वमेतत्तदा नासीद्धर्मनित्ये युधिष्ठिरे।। | 2-36-5a 2-36-5b |
प्रियं कर्तुमुपस्थातुं बलिकर्म स्वभावजम्। अभिहर्तुं नृपा जग्मुर्नान्यैः कार्यैः कथञ्चनः।। | 2-36-6a 2-36-6b |
धर्मैर्धनागमैस्तस्य ववधे निचयो महान्। कर्तुं यस्य न शक्येन क्षयो वर्षशतैरपि।। | 2-36-7a 2-36-7b |
स्वकोष्ठस्य परीमाणं कोशस्य च महीपतिः। विज्ञाय राजा कौन्तेयो यज्ञायैव मनो दधे।। | 2-36-8a 2-36-8b |
सुहृदश्चैव ये सर्वे पृथक्च सहचाब्रुवन्। यज्ञकालस्तव विभो क्रियतामत्र साम्प्रतम्।। | 2-36-9a 2-36-9b |
अथैवं ब्रुवतामेव तेषामभ्याययौ हरिः। ऋषिः पुराणो वेदात्मा दृश्यश्चैव विजानताम्।। | 2-36-10a 2-36-10b |
जगतस्तस्थुषां श्रेष्ठः प्रभवश्चाप्ययश्च ह। भूतभव्यभवन्नाथः केशवः केशिसूदनः।। | 2-36-11a 2-36-11b |
प्राकारः सर्ववृष्णीनामापत्स्वभयदोऽरिहा। बलाधिकारे निक्षिप्य सम्यगानकदुन्दुभिम्।। | 2-36-12a 2-36-12b |
उच्चावचमुपादाय धर्मराजाय माधवः। धनौघं पुरुषव्याघ्रो बलेन महता वृतः।। | 2-36-13a 2-36-13b |
तं धनौघमपर्यन्तं रत्नसागरमक्षयम्। नादयन्रथघोषेण प्रविशेश पुरोत्तमम्।। | 2-36-14a 2-36-14b |
पूर्णमापूरयंस्तेषां द्विषच्छोकावहोऽभवत्। असूर्यमिव सूर्येण निवातमिव वायुना। कृष्णेन समुपेतेन जहृषे भारतं पुरम्।। | 2-36-15a 2-36-15b 2-36-15c |
तं मुदाऽभिसमागम्य सत्कृत्य च यथाविधि। स पृष्ट्वा कुशलं चैव सुखासीनं युधिष्ठिरः।। | 2-36-16a 2-36-16b |
म्यद्वैपायनमुखैर्ऋत्विग्भिः पुरुषर्षभः। भीमार्जुनयमैश्चैव सहितः कृष्णमब्रवीत्।। | 2-36-17a 2-36-17b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-36-18x |
त्वत्कृते पृथिवी सर्वा मद्वशे कृष्ण वर्तते। धनं च बहु वार्ष्णेय त्वत्प्रसादादुपार्जितम्।। | 2-36-18a 2-36-18b |
सोऽहमिच्छामि तत्सर्वं विधिवद्देवकीसुत। उपयोक्तुं द्विजाग्र्येभ्यो हव्यवाहे च माधव।। | 2-36-19a 2-36-19b |
तदहं यष्टुमिच्छामि दाशार्ह सहितस्त्वया। अनुजैश्च महाबाहो तन्माऽनुज्ञातुमर्हसि।। | 2-36-20a 2-36-20b |
तद्दीक्षापय गोविन्द त्वमात्मानं महाभुज। त्वयीष्टवति दाशार्ह विपाप्मा भविता ह्यहम्।। | 2-36-21a 2-36-21b |
मां वाप्यभ्यनुजानीह सहैभिरनुजैर्विभो। अनुज्ञातस्त्वया कृष्ण प्राप्नुयां क्रतुमुत्तमम्।। | 2-36-22a 2-36-22b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-36-23x |
तं कृष्णःस प्रत्युवाचेदं बहूक्त्वा गुणविस्तरम्। त्वमेव राजशार्दूल रम्राडर्हो महाक्रतुम्। सम्प्राप्नुहि त्वया प्राप्ते कृतकृत्यास्ततो वयम्।। | 2-36-23a 2-36-23b 2-36-23c |
यदस्वाभीप्सितं यज्ञं मयि श्रेयस्यवस्थिते। नियुङ्क्ष्व त्वं च मां कृत्ये सर्वं कर्तास्मि ते वचः।। | 2-36-24a 2-36-24b |
युधिष्ठिर उवाच। | 2-36-25x |
सफलः कृष्ण सङ्कल्पः सिद्धिश्च नियता मम। यस्यमे त्वं हृषीकेश यथेप्सितमुपस्थितः।। | 2-36-25a 2-36-25b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-36-26x |
अनुज्ञातस्तु कृष्णेन पाण्डवो भ्रातृभिः सह। ईजितुं राजसूयेन साधनान्युपचक्रमे।। | 2-36-26a 2-36-26b |
ततस्त्वाज्ञापयामास पाण्डवोऽरिनिबर्हणः। सहदेवं युधां श्रेष्ठं मन्त्रिणश्चैव सर्वशः।। | 2-36-27a 2-36-27b |
अस्मिन्क्रतौ यथोक्तानि यज्ञाङ्गानि द्व्जातिभिः। यथोपकरणं सर्वं मङ्गलानि च सर्वशः।। | 2-36-28a 2-36-28b |
अधियज्ञांश्च सम्भारान्दौम्योक्तान्क्षिप्रमेव हि। समानयन्तु पुरुषा यथायोगं यथाक्रमम्।। | 2-36-29a 2-36-29b |
इन्द्रसेनो विशोकश्च पूरश्चार्जुनसारथिः। अन्नाद्याहरणे युक्ताः सन्तु मत्प्रियकाम्यया।। | 2-36-30a 2-36-30b |
सर्वकामाश्च कार्यन्तां रसगन्धसमन्विताः। मनोरथप्रीतिकरा द्विजानां कुरुसत्तम।। | 2-36-31a 2-36-31b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-36-32x |
तद्वाक्यसमकालं च कृतं सर्वं न्यवेदयत्। सहदेवो युधां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरे।। | 2-36-32a 2-36-32b |
ततो द्वैपायनो राजन्नृत्विजः समुपानयत्। वेदानिव महाभागान्साक्षान्मूर्तिमतो द्विजान्।। | 2-36-33a 2-36-33b |
स्वयं ब्रह्मत्वमकरोत्तस्य सत्यवतीसुतः। धनञ्जयानामृषभः सुसामा सामगोऽभवत्।। | 2-36-34a 2-36-34b |
याज्ञवल्क्यो बभूवाथ ब्रह्मिष्ठोऽध्वर्युसत्तमः। पैलो होता वसोः पुत्रो धौम्येन सहितोऽभवत्।। | 2-36-35a 2-36-35b |
एतेषां पुत्रवर्गाश्च शिष्याश्च भरतर्षभ। बभूवुर्होत्रगाः सर्वे वेदवेदाङ्गपारगाः।। | 2-36-36a 2-36-36b |
ते वाचयित्वा पुण्याहमूहयित्वा च तं विधिम्। शास्त्रोक्तं पूजयामासुस्तद्देवयजनं महत्।। | 2-36-37a 2-36-37b |
तत्र चक्रुरनुज्ञाताः शरणान्युत शिल्पिनः। गन्धवन्ति विशालानि वेश्मानीव दिवौकसाम्।। | 2-36-38a 2-36-38b |
तत आज्ञापयामास स राजा राजसत्तमः। सहदेवं तदा सद्यो मन्त्रिणं पुरुषर्षभः।। | 2-36-39a 2-36-39b |
आमन्त्रणार्थं दूतांस्त्वं प्रेषयस्वाशुगान्द्रुतम्। उपश्रुत्य वचो राज्ञः स दूतान्प्राहिणोत्तदा।। | 2-36-40a 2-36-40b |
आमन्त्रयध्वं राष्ट्रेषु ब्राह्मणान्भूमिपानथ। विनाश्च मान्याञ्शूद्रांश्च सर्वानानयतेति च।। | 2-36-41a 2-36-41b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-36-42x |
ते सर्वान्पृथिवीपालान्पाण्डवेयस्य शासनात्। आमन्त्रयाम्बभूवुस्ते प्रेषयामास चापरान्।। | 2-36-42a 2-36-42b |
दूताश्च वाहनैर्जग्भू राष्ट्राणि सुबहून्यपि। ततो युधिष्ठिरो राजा प्रेषयामास पाण्डवम्।। | 2-36-43a 2-36-43b |
नकुलं हास्तिनपुरं भीष्माय भरतर्षभ। द्रोणाय धृतराष्ट्राय विदुराय कृपाय च। भ्रातृणां चैव सर्वेणां येऽनुरक्ता युधिष्ठिरे।। | 2-36-44a 2-36-44b 2-36-44c |
ततस्ते तु यथाकालं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्। दीक्षयाञ्चक्रिरे विप्रा राजसूयाय भारत।। | 2-36-45a 2-36-45b |
`ज्येष्ठामूले अमावास्यां मृगाजिनसमावृतः। रौरवाजिनसंवीतो नवनीताक्तदेहवान्'।। | 2-36-46a 2-36-46b |
दीक्षितः स तु धर्मात्मा धर्मराजो युधिष्ठिरः। जगाम यज्ञायतनं वृतो विप्रैः सहस्रशः।। | 2-36-47a 2-36-47b |
भातृभिर्ज्ञातिभिश्चैव सुहृद्भिः सचिवैः सह। क्षत्रियैश्च मनुष्येन्द्रैर्नानादेशसमागतैः।। | 2-36-48a 2-36-48b |
अमात्यैश्च नरश्रेष्ठो धर्मो विग्रहवानिव। आजग्मुर्ब्राह्मणास्तत्र विषयेभ्यस्ततस्ततः।। | 2-36-49a 2-36-59b |
सर्वविद्यासु निष्णाता वेदवेदाङ्गपारगाः। तेषामावसथांश्चक्रुर्धर्मराजस्य शासनात्।। | 2-36-50a 2-36-50b |
बह्वन्नाच्छादनैर्युक्तान्सगणानां पृथक् पृथक्। सर्वर्तुगुणसम्पन्नाञ्शिल्पिनोऽथ सहस्रशः।। | 2-36-51a 2-36-51b |
तेषु ते न्यवसन्राजन्ब्राह्मणा नृपसत्कृताः। कथयन्तः कथा बह्वीः पश्यन्तो नटनर्तकान्।। | 2-36-52a 2-36-52b |
भुञ्जतां चैव विप्राणां वदतां च महास्वनः। अनिशं श्रूयते तत्र मुदितानां महात्मनाम्।। | 2-36-53a 2-36-53b |
दीयतां दीयतामेषां भुज्यतां भुज्यतामिति। एवम्प्रकाराः सञ्जल्पाः श्रूयन्तेस्मात्र नित्यशः।। | 2-36-54a 2-36-54b |
गवां शतसहस्राणि शयनानां च भारत। रुक्मस्य योषितां चैव धर्मराजः पृथक् ददौ।। | 2-36-55a 2-36-55b |
प्रावर्ततैव यज्ञः स पाण्डवस्य महात्मनः। पृथिव्यामेकवीरस्य शक्रस्येव त्रिविष्टपे।। | 2-36-56a 2-36-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः।। 36।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्2-36-5 मूर्छनं प्रदीपनम्।। 2-36-7 निचयो भाण्डागारम्।। 2-36-34 धनञ्जयानां धनञ्जयगोत्राणां मध्ये श्रेष्ठः सुसामानाम आङ्गिरसः ।।
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