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वेदव्यासः
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शिशुपालेन भीष्मस्तृतकृष्णचरित्रापहसनपूर्वकं भीष्मोपालम्भनम्।।

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शिशुपाल उवाच। 2-64-1x
बिभीषिकाभिर्बह्वीभिर्भीषयन्भीष्म पार्थिवान्।
न व्यपत्रपसे कस्माद्वृद्धः सन्कुलपांसनः।।
2-64-1a
2-64-1b
युक्तमेतत्तृतीयायां प्रकृतौ वर्तता त्वया।
वक्तुं धर्मादपेतार्थं त्वं हि सर्वकुरूत्तमः।।
2-64-2a
2-64-2b
नावि नौरिव सम्बद्धा यथान्धो वान्धमन्वियात्।
तथाभूता हि कौरव्या येषां भीष्म त्वमग्रणीः।।
2-64-3a
2-64-3b
पूतनाघातपूर्वाणि कर्माण्यस्य विशेषतः।
त्वया कीर्तयताऽस्माकं भूयः प्रव्यथितं मनः।।
2-64-4a
2-64-4b
अवलिप्तस्य मूर्शस्य केशवं स्तोतुमिच्छतः।
कथं भीष्म न ते जिह्वा शतधेयं विदीर्यते।।
2-64-5a
2-64-5b
यत्र कुत्सा प्रयोक्तव्या भीष्म बालतरैर्नरैः।
तमिमं ज्ञानवृद्धः सन्गोपं संस्तोतुमिच्छसि।।
2-64-6a
2-64-6b
यद्यनेन हता बाल्ये शकुनिश्चित्रमत्र किम्।
तौ वाऽश्ववृषभौ भीष्ण यौ न युद्धविशारदौ।।
2-64-7a
2-64-7b
चेतनारहितं काष्ठं यद्यनेन निपातितम्।
पादेन शकटं भीष्ण तत्र किं कृतमद्भुतम्।।
2-64-8a
2-64-8b
`अर्कप्रमाणौ तौ वृक्षौ यद्यनेन निपातितौ। '
नागश्च दमितोऽनेन तत्र को विस्मयः कृतः'।।
2-64-9a
2-64-9b
वल्मीकमात्रः सप्ताहं यद्यनेन धृतोऽचलः।
तदा गोवर्धनो भीष्म न तच्चित्रं मतं मम।।
2-64-10a
2-64-10b
भुक्तमेतेन बह्वन्नं क्रीडता नगमूर्धनि।
इति ते भीष्ण शृण्वानाः परे विस्मयमागताः।।
2-64-11a
2-64-11b
यस्य चानेन धर्मज्ञ भुक्तमन्नं बलीयसः।
स चानेन हतः कंस इत्येतत्तु बलीयसः।
2-64-12a
2-64-12b
स चानेन हतः कंस इत्येतत्तु महाद्भुतम्।।
न ते श्रुतमिदं भीष्म नूनं कथयतां सताम्।
2-64-13a
2-64-13b
यद्वक्ष्ये त्वामधर्मज्ञं वाक्यं कुरुकुलाधम।।
स्त्रीषु गोषु न शस्त्राणि पातयेद्ब्राह्मणेषु च।
2-64-14a
2-64-14b
इति सन्तोऽनुशासन्ति सञ्जना धर्मिणः सदा।
भीष्म लोके हि तत्सर्वं वितथं त्वयि दृश्यते।।
2-64-15a
2-64-15b
ज्ञानवृद्धं च वृद्धं च भूयांसं केशवं मम।
अजानत इवाख्यासि संस्तुवन्कौरवाधम।।
2-64-16a
2-64-16b
गोघ्रः स्त्रीघ्नश्च सन्भीष्म त्वद्वाक्याद्यदि पूज्यते।
एवम्भूतश्च यो भीष्म कथं संस्तवमर्हति।।
2-64-17a
2-64-17b
असौ मतिमतां श्रेष्ठो य एष जगतः प्रभुः।
सम्भावयति चाप्येवं त्वद्वाक्याच्च जनार्दनः।
एवमेतत्सर्वमिति तत्सर्वं वितथं ध्रुवम्।।
2-64-18a
2-64-18b
2-64-18c
आत्मानमात्मनाऽऽधातुं यदि शक्तो जनार्दनः।
अकामयन्तं तं भीष्म कथं साध्विव पश्यसि।।
2-64-19a
2-64-19b
न गाथा गाथिनं शास्ति बहुचेदपि गायति।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि कुलिङ्गशकुनिर्यथा।।
2-64-20a
2-64-20b
नूनं प्रकृतिरेषा ते जघन्या नात्र संशयटः।
`नदीसुतत्वात्ते चित्तं चञ्चलं न स्थिरं स्मृतम्' ।।
2-64-21a
2-64-21b
अतः पापीयसी चैषां पाण्डवानामपीष्यते।
येषामर्च्यतमः कृष्णस्त्वं च येषां प्रदर्शकः।।
2-64-22a
2-64-22b
धर्मवांस्त्वमधर्मज्ञः सतां मार्गादवप्लुतः।
को हि धर्मिणमात्मानं जानञ्ज्ञानविदां वरः।।
2-64-23a
2-64-23b
कुर्याद्यथा त्वया भीषम कृतं धर्ममवेक्षता।
चेत्त्वं धर्मं विजानासि यदि प्राज्ञा मतिस्तव।।
2-64-24a
2-64-24b
अन्यकामा हि धर्मज्ञा कन्यका प्राज्ञमानिना।
अम्बा नामेति भद्रं ते कथं साऽपहृता त्वया।।
2-64-25a
2-64-25b
तां त्वयाऽपहृतां भीष्म कन्यां नैषितवान्नृपः।
भ्राता विचित्रवीर्यस्ते सतां मार्गमनुस्मरन्।।
2-64-26a
2-64-26b
भार्ययोर्यस्य चान्येन मिषतः प्राज्ञमानिनः।
तव जातान्यपत्यानि सज्जनाचरिते पथि।।
2-64-27a
2-64-27b
को हि धर्मोऽस्ति ते भीषम ब्रह्मचर्यमिदं वृथा।
यद्धारयसि मोहाद्वा क्लीबत्वाद्वा न संशयः।।
2-64-28a
2-64-28b
न त्वं तव धर्मज्ञ पश्याम्युपचरं क्वचित्।
न हि ते सेविता वृद्धा य एवं धर्ममब्रवीः।।
2-64-29a
2-64-29b
इष्टं दत्तमधीतं च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः।
सर्वमेतदपत्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।
2-64-30a
2-64-30b
व्रतोपवासैर्बहुभिः कृतं भवति भीष्म यत्।
सर्वं तदनपत्यस्य मोघं भवति निश्चयात्।।
2-64-31a
2-64-31b
सोऽनपत्यश्च वृद्धश्च मिथ्याधर्मानुशासनात्।
हंसवत्त्वमपीदानीं ज्ञातिभ्यः प्राप्नुया वधम्।।
2-64-32a
2-64-32b
एवं हि कथयन्त्यन्ये नरा ज्ञानविदः पुरा।
भीष्म यत्तदहं सम्यग्वक्ष्यामि तव शृण्वतः।।
2-64-33a
2-64-33b
वृद्धः किल समुद्रान्ते कश्चिद्धंसोऽभवत्पुरा।
धर्मवागन्यथावृत्तः पक्षिणः सोऽनुशास्ति च।।
2-64-34a
2-64-34b
धर्म चरत माऽधर्ममिति तस्य वचः किल।
पक्षिणः शुश्रुवुर्भीष्म सततं धर्मवादिनः।।
2-64-35a
2-64-35b
हंसस्य तु वचः श्रुत्वा मुदिताः सर्वपक्षिणः।
ऊचुश्चैव स्वगा हंसं परिवार्य च सर्वशः।।
2-64-36a
2-64-36b
कथयस्व भवान्सर्वं पक्षिणां तु समासतः।
को हि नाम द्विजश्रेष्ठ ब्रूहि नो धर्म उत्तमः।।
2-64-37a
2-64-37b
हंस उवाच।। 2-64-38x
प्रजास्वहिंसा धर्मो वै हिंसाऽधर्मः खगव्रजाः।
एतदेवानुबोद्धव्यं धर्माधर्मः समासतः।।
2-64-38a
2-64-38b
शिशुपाल उवाच।। 2-64-39x
वृद्धहंसवचः श्रुत्वा पक्षिणस्ते सुसंहिताः।
ऊचुश्च धर्मलुब्धास्ते स्मयमाना इवाण्डजाः।।
2-64-39a
2-64-39b
धर्मं यः कुरुते नित्यं लोके धीरतरोऽण्डजः।
स यत्र गच्छेद्धर्मात्मा तन्मे ब्रूहीह तत्त्वतः।।
2-64-40a
2-64-40b
हंस उवाच।। 2-64-41x
बाला यूयं न जानीध्वं धर्मसूक्ष्मं विहङ्गमाः।
धर्मं यः कुरुते लोके सततं शुभबुद्धिना।
न चायुषोऽन्ते स्वं देहं त्यक्त्वा स्वर्गं स गच्छति।।
2-64-41a
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2-64-41c
तथाऽहमपि च त्यक्त्वा काले देहमिमं द्विजाः।
स्वर्गलोकं गमिष्यामि इयं धर्मस्य वै गतिः।।
2-64-42a
2-64-42b
एवं धर्मकथां चक्रे स हंसः पक्षिणां भृशम्।
पक्षिणः शुश्रुवुर्भीष्म सततं धर्ममेव ते।।
2-64-43a
2-64-43b
अथास्य भक्ष्यमाजह्रुः समुद्रजलचारिणः।
अण्डजा भीष्म तस्यान्ये धर्मार्थमिति शुश्रुम।।
2-64-44a
2-64-44b
ते च तस्य समभ्याशे निक्षिप्याण्डानि सर्वशः।
समुद्राम्भस्यमोदन्त चरन्तो भीष्म पक्षिणः।।
2-64-45a
2-64-45b
तेषामण्डानि सर्वेषां भक्षयामास पापकृत्।
स हंसः सम्प्रमत्तानामप्रमत्तः स्वकर्मणि।।
2-64-46a
2-64-46b
ततः प्रक्षीयमाणेषु तेषु तेष्वण्डजोऽपरः।
अशङ्कत महाप्राज्ञः स कदाचिद्ददर्श ह।।
2-64-47a
2-64-47b
ततः सङ्कथयामास दृष्ट्वा हंसस्य किल्बिषम्।
तेषां परमदुःखार्तः स पक्षी सर्वपक्षिणाम्।।
2-64-48a
2-64-48b
ततः प्रत्यक्षतो दृष्ट्वा पक्षिणस्ते समीपगाः।
निजघ्नस्तं तदा हंसं मिथ्यावृत्तं कुरूद्वह।।
2-64-49a
2-64-49b
एवं त्वां हंसधर्माणमपीमे वसुधाधिपाः।
निहन्युर्भीष्म सङ्क्रुद्धाः पक्षिणस्तं यथाण्डजम्।।
2-64-50a
2-64-50b
गाथामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।
भीष्म यां तां च ते सम्यक्वथयिष्यामि भारत।।
2-64-51a
2-64-51b
अन्तरात्मन्यभिहते रौषि पत्ररथाशुचि।
अण्डभक्षणकर्मैतत्तव वाचमतीयते।।
2-64-52a
2-64-52b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
शिशुपालवधपर्वणि चतुःषष्टितोऽध्यायः।। 64 ।।

2-64-2 तृतीयायां प्रकृतौ नपुंसकत्वे।। 2-64-20 कुलिगोनाम भूशायी पक्षी मासाहसमित्यनिशं वदन्नपि सिंहदंष्टान्तरस्थं मांसमा दत्ते स्वयं साहसमतिशयितं करोति।।

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