महाभारतम्-02-सभापर्व-064
← सभापर्व-063 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-064 वेदव्यासः |
सभापर्व-065 → |
शिशुपालेन भीष्मस्तृतकृष्णचरित्रापहसनपूर्वकं भीष्मोपालम्भनम्।।
|
शिशुपाल उवाच। | 2-64-1x |
बिभीषिकाभिर्बह्वीभिर्भीषयन्भीष्म पार्थिवान्। न व्यपत्रपसे कस्माद्वृद्धः सन्कुलपांसनः।। | 2-64-1a 2-64-1b |
युक्तमेतत्तृतीयायां प्रकृतौ वर्तता त्वया। वक्तुं धर्मादपेतार्थं त्वं हि सर्वकुरूत्तमः।। | 2-64-2a 2-64-2b |
नावि नौरिव सम्बद्धा यथान्धो वान्धमन्वियात्। तथाभूता हि कौरव्या येषां भीष्म त्वमग्रणीः।। | 2-64-3a 2-64-3b |
पूतनाघातपूर्वाणि कर्माण्यस्य विशेषतः। त्वया कीर्तयताऽस्माकं भूयः प्रव्यथितं मनः।। | 2-64-4a 2-64-4b |
अवलिप्तस्य मूर्शस्य केशवं स्तोतुमिच्छतः। कथं भीष्म न ते जिह्वा शतधेयं विदीर्यते।। | 2-64-5a 2-64-5b |
यत्र कुत्सा प्रयोक्तव्या भीष्म बालतरैर्नरैः। तमिमं ज्ञानवृद्धः सन्गोपं संस्तोतुमिच्छसि।। | 2-64-6a 2-64-6b |
यद्यनेन हता बाल्ये शकुनिश्चित्रमत्र किम्। तौ वाऽश्ववृषभौ भीष्ण यौ न युद्धविशारदौ।। | 2-64-7a 2-64-7b |
चेतनारहितं काष्ठं यद्यनेन निपातितम्। पादेन शकटं भीष्ण तत्र किं कृतमद्भुतम्।। | 2-64-8a 2-64-8b |
`अर्कप्रमाणौ तौ वृक्षौ यद्यनेन निपातितौ। ' नागश्च दमितोऽनेन तत्र को विस्मयः कृतः'।। | 2-64-9a 2-64-9b |
वल्मीकमात्रः सप्ताहं यद्यनेन धृतोऽचलः। तदा गोवर्धनो भीष्म न तच्चित्रं मतं मम।। | 2-64-10a 2-64-10b |
भुक्तमेतेन बह्वन्नं क्रीडता नगमूर्धनि। इति ते भीष्ण शृण्वानाः परे विस्मयमागताः।। | 2-64-11a 2-64-11b |
यस्य चानेन धर्मज्ञ भुक्तमन्नं बलीयसः। स चानेन हतः कंस इत्येतत्तु बलीयसः। | 2-64-12a 2-64-12b |
स चानेन हतः कंस इत्येतत्तु महाद्भुतम्।। न ते श्रुतमिदं भीष्म नूनं कथयतां सताम्। | 2-64-13a 2-64-13b |
यद्वक्ष्ये त्वामधर्मज्ञं वाक्यं कुरुकुलाधम।। स्त्रीषु गोषु न शस्त्राणि पातयेद्ब्राह्मणेषु च। | 2-64-14a 2-64-14b |
इति सन्तोऽनुशासन्ति सञ्जना धर्मिणः सदा। भीष्म लोके हि तत्सर्वं वितथं त्वयि दृश्यते।। | 2-64-15a 2-64-15b |
ज्ञानवृद्धं च वृद्धं च भूयांसं केशवं मम। अजानत इवाख्यासि संस्तुवन्कौरवाधम।। | 2-64-16a 2-64-16b |
गोघ्रः स्त्रीघ्नश्च सन्भीष्म त्वद्वाक्याद्यदि पूज्यते। एवम्भूतश्च यो भीष्म कथं संस्तवमर्हति।। | 2-64-17a 2-64-17b |
असौ मतिमतां श्रेष्ठो य एष जगतः प्रभुः। सम्भावयति चाप्येवं त्वद्वाक्याच्च जनार्दनः। एवमेतत्सर्वमिति तत्सर्वं वितथं ध्रुवम्।। | 2-64-18a 2-64-18b 2-64-18c |
आत्मानमात्मनाऽऽधातुं यदि शक्तो जनार्दनः। अकामयन्तं तं भीष्म कथं साध्विव पश्यसि।। | 2-64-19a 2-64-19b |
न गाथा गाथिनं शास्ति बहुचेदपि गायति। प्रकृतिं यान्ति भूतानि कुलिङ्गशकुनिर्यथा।। | 2-64-20a 2-64-20b |
नूनं प्रकृतिरेषा ते जघन्या नात्र संशयटः। `नदीसुतत्वात्ते चित्तं चञ्चलं न स्थिरं स्मृतम्' ।। | 2-64-21a 2-64-21b |
अतः पापीयसी चैषां पाण्डवानामपीष्यते। येषामर्च्यतमः कृष्णस्त्वं च येषां प्रदर्शकः।। | 2-64-22a 2-64-22b |
धर्मवांस्त्वमधर्मज्ञः सतां मार्गादवप्लुतः। को हि धर्मिणमात्मानं जानञ्ज्ञानविदां वरः।। | 2-64-23a 2-64-23b |
कुर्याद्यथा त्वया भीषम कृतं धर्ममवेक्षता। चेत्त्वं धर्मं विजानासि यदि प्राज्ञा मतिस्तव।। | 2-64-24a 2-64-24b |
अन्यकामा हि धर्मज्ञा कन्यका प्राज्ञमानिना। अम्बा नामेति भद्रं ते कथं साऽपहृता त्वया।। | 2-64-25a 2-64-25b |
तां त्वयाऽपहृतां भीष्म कन्यां नैषितवान्नृपः। भ्राता विचित्रवीर्यस्ते सतां मार्गमनुस्मरन्।। | 2-64-26a 2-64-26b |
भार्ययोर्यस्य चान्येन मिषतः प्राज्ञमानिनः। तव जातान्यपत्यानि सज्जनाचरिते पथि।। | 2-64-27a 2-64-27b |
को हि धर्मोऽस्ति ते भीषम ब्रह्मचर्यमिदं वृथा। यद्धारयसि मोहाद्वा क्लीबत्वाद्वा न संशयः।। | 2-64-28a 2-64-28b |
न त्वं तव धर्मज्ञ पश्याम्युपचरं क्वचित्। न हि ते सेविता वृद्धा य एवं धर्ममब्रवीः।। | 2-64-29a 2-64-29b |
इष्टं दत्तमधीतं च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः। सर्वमेतदपत्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। | 2-64-30a 2-64-30b |
व्रतोपवासैर्बहुभिः कृतं भवति भीष्म यत्। सर्वं तदनपत्यस्य मोघं भवति निश्चयात्।। | 2-64-31a 2-64-31b |
सोऽनपत्यश्च वृद्धश्च मिथ्याधर्मानुशासनात्। हंसवत्त्वमपीदानीं ज्ञातिभ्यः प्राप्नुया वधम्।। | 2-64-32a 2-64-32b |
एवं हि कथयन्त्यन्ये नरा ज्ञानविदः पुरा। भीष्म यत्तदहं सम्यग्वक्ष्यामि तव शृण्वतः।। | 2-64-33a 2-64-33b |
वृद्धः किल समुद्रान्ते कश्चिद्धंसोऽभवत्पुरा। धर्मवागन्यथावृत्तः पक्षिणः सोऽनुशास्ति च।। | 2-64-34a 2-64-34b |
धर्म चरत माऽधर्ममिति तस्य वचः किल। पक्षिणः शुश्रुवुर्भीष्म सततं धर्मवादिनः।। | 2-64-35a 2-64-35b |
हंसस्य तु वचः श्रुत्वा मुदिताः सर्वपक्षिणः। ऊचुश्चैव स्वगा हंसं परिवार्य च सर्वशः।। | 2-64-36a 2-64-36b |
कथयस्व भवान्सर्वं पक्षिणां तु समासतः। को हि नाम द्विजश्रेष्ठ ब्रूहि नो धर्म उत्तमः।। | 2-64-37a 2-64-37b |
हंस उवाच।। | 2-64-38x |
प्रजास्वहिंसा धर्मो वै हिंसाऽधर्मः खगव्रजाः। एतदेवानुबोद्धव्यं धर्माधर्मः समासतः।। | 2-64-38a 2-64-38b |
शिशुपाल उवाच।। | 2-64-39x |
वृद्धहंसवचः श्रुत्वा पक्षिणस्ते सुसंहिताः। ऊचुश्च धर्मलुब्धास्ते स्मयमाना इवाण्डजाः।। | 2-64-39a 2-64-39b |
धर्मं यः कुरुते नित्यं लोके धीरतरोऽण्डजः। स यत्र गच्छेद्धर्मात्मा तन्मे ब्रूहीह तत्त्वतः।। | 2-64-40a 2-64-40b |
हंस उवाच।। | 2-64-41x |
बाला यूयं न जानीध्वं धर्मसूक्ष्मं विहङ्गमाः। धर्मं यः कुरुते लोके सततं शुभबुद्धिना। न चायुषोऽन्ते स्वं देहं त्यक्त्वा स्वर्गं स गच्छति।। | 2-64-41a 2-64-41b 2-64-41c |
तथाऽहमपि च त्यक्त्वा काले देहमिमं द्विजाः। स्वर्गलोकं गमिष्यामि इयं धर्मस्य वै गतिः।। | 2-64-42a 2-64-42b |
एवं धर्मकथां चक्रे स हंसः पक्षिणां भृशम्। पक्षिणः शुश्रुवुर्भीष्म सततं धर्ममेव ते।। | 2-64-43a 2-64-43b |
अथास्य भक्ष्यमाजह्रुः समुद्रजलचारिणः। अण्डजा भीष्म तस्यान्ये धर्मार्थमिति शुश्रुम।। | 2-64-44a 2-64-44b |
ते च तस्य समभ्याशे निक्षिप्याण्डानि सर्वशः। समुद्राम्भस्यमोदन्त चरन्तो भीष्म पक्षिणः।। | 2-64-45a 2-64-45b |
तेषामण्डानि सर्वेषां भक्षयामास पापकृत्। स हंसः सम्प्रमत्तानामप्रमत्तः स्वकर्मणि।। | 2-64-46a 2-64-46b |
ततः प्रक्षीयमाणेषु तेषु तेष्वण्डजोऽपरः। अशङ्कत महाप्राज्ञः स कदाचिद्ददर्श ह।। | 2-64-47a 2-64-47b |
ततः सङ्कथयामास दृष्ट्वा हंसस्य किल्बिषम्। तेषां परमदुःखार्तः स पक्षी सर्वपक्षिणाम्।। | 2-64-48a 2-64-48b |
ततः प्रत्यक्षतो दृष्ट्वा पक्षिणस्ते समीपगाः। निजघ्नस्तं तदा हंसं मिथ्यावृत्तं कुरूद्वह।। | 2-64-49a 2-64-49b |
एवं त्वां हंसधर्माणमपीमे वसुधाधिपाः। निहन्युर्भीष्म सङ्क्रुद्धाः पक्षिणस्तं यथाण्डजम्।। | 2-64-50a 2-64-50b |
गाथामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः। भीष्म यां तां च ते सम्यक्वथयिष्यामि भारत।। | 2-64-51a 2-64-51b |
अन्तरात्मन्यभिहते रौषि पत्ररथाशुचि। अण्डभक्षणकर्मैतत्तव वाचमतीयते।। | 2-64-52a 2-64-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि शिशुपालवधपर्वणि चतुःषष्टितोऽध्यायः।। 64 ।। |
2-64-2 तृतीयायां प्रकृतौ नपुंसकत्वे।। 2-64-20 कुलिगोनाम भूशायी पक्षी मासाहसमित्यनिशं वदन्नपि सिंहदंष्टान्तरस्थं मांसमा दत्ते स्वयं साहसमतिशयितं करोति।।
सभापर्व-063 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-065 |