महाभारतम्-02-सभापर्व-087
← सभापर्व-086 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-087 वेदव्यासः |
सभापर्व-088 → |
दुर्योधनेन विदुरोपालम्भः।। 1।। विदुरेण धृतराष्ट्रस्य हितोपदेशः।। 2।।
|
दुर्योधन उवाच।। | 2-87-1x |
परेषामेव यशसा श्लोघसे त्वं सदा क्षत्तः कुत्सयन्धार्तराष्ट्रान्। जानीमहे विदुर यत्प्रियस्त्वं बालानिवास्मानवमन्यसे नित्यमेव।। | 2-87-1a 2-87-1b 2-87-1c 2-87-1d |
स विज्ञेयः पुरुषोऽन्यत्रकामो निन्दाप्रशंसे हि तथा युनक्ति। जिह्वाऽऽत्मनो हृदयस्थं व्यनक्ति जानीमहे त्वन्मनसः प्रातिकूल्यम्।। | 2-87-2a 2-87-2b 2-87-2c 2-87-2d |
उत्सङ्गे च व्याल इवाहितोऽसि मार्जरवत्पोषकं चोपहंसि। भर्तृघ्नं त्वां न हि पापीय आहु- स्तस्मात्क्षत्तः किं न बिभेषि पापात्।। | 2-87-3a 2-87-3b 2-87-3c 2-87-3d |
जित्वा शत्रून्फलमाप्तं महद्वै माऽस्मान्क्षत्तः परुषामीह वोचः। द्विषद्भिस्त्वं सम्प्रयोगाभिनन्दी मुहुर्देषं यासि नः सम्प्रयोगात्।। | 2-87-4a 2-87-4b 2-87-4c 2-87-4d |
अमित्रतां याति नरोऽक्षमं ब्रुव- न्निगूहते गुह्यममित्रसंस्तवे। तदाश्रितोऽपत्रप किं नु बाधसे यदिच्छसि त्वं तदिहाभिभाषतसे।। | 2-87-5a 2-87-5b 2-87-5c 2-87-5d |
मा नोऽवमंस्था विद्य मानस्तवेदं शिक्षस्व बुद्धिं स्थविराणां सकाशात्। यशो रक्षस्व विदुर सम्प्रणीतं मा व्यापृतः परकार्येशु भूस्त्वम्।। | 2-87-6a 2-87-6b 2-87-6c 2-87-6d |
अहं कर्तेति विदूर मा च मंस्था मा नो नित्यं परुषाणीह वोचः। न त्वां पृच्छामि विदुर यद्धितं मे स्वस्ति क्षत्तर्मा तितिक्षून् क्षिण् त्वम्।। | 2-87-7a 2-87-7b 2-87-7c 2-87-7d |
एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता गर्भे शयानं पुरुषं शास्ति शास्ता। तेनानुशिष्टः प्रवणादिवाम्भो यथा नियुक्तोऽस्ति तथा भवामि।। | 2-87-8a 2-87-8b 2-87-8c 2-87-8d |
भिनत्ति शिरसा शैलमहिं भोजयते च यः। धीरेव कुरुते तस्य कार्याणामनुशासनम्। यो बलादनुशास्तीह सोऽमित्रं तेन विन्दति।। | 2-87-9a 2-87-9b 2-87-9c |
मित्रतामनुवृत्तं तु समुपेक्षत्यपण्डितः। दीप्य यः प्रदीप्ताग्निं प्राच्किरं नाभिधावति। भस्मापि न स विन्देत शिष्टं क्वचन भारत।। | 2-87-10a 2-87-10b 2-87-10c |
न वासयेत्पारवर्ग्यं द्विषन्तं विशेषतः क्षत्तरहितं मनुप्यम्। स यत्रेच्छसि विदुर तत्र गच्छ सुसान्त्विता ह्यसती स्त्री जहाति।। | 2-87-11a 2-87-11b 2-87-11c 2-87-11d |
विदुर उवाच।। | 2-87-12x |
एतावता पुरुषं ये त्यजन्ति तेषां सख्यमन्तवद्ब्रूहि राजन्। राज्ञां हि चित्तानि परिप्लुतानि सान्त्वं दत्वा मुसलैर्घातयन्ति।। | 2-87-12a 2-87-12b 2-87-12c 2-87-12d |
अबालत्वं मन्यसे राजपुत्र बालोऽहमित्येव सुमन्दबुद्धे। यः सौहृदे पुरुषं स्थापयित्वा पश्चादेनं दूषयते स बालः।। | 2-87-13a 2-87-13b 2-87-13c 2-87-13d |
न श्रेयसे नीयते मन्दबुद्धिः स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा। ध्रुवं न रोचेद्भरतर्षभस्य पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः।। | 2-87-14a 2-87-14b 2-87-14c 2-87-14d |
अतः प्रियं चेदनुकाङ्क्षसे त्वं सर्वेषु कार्येषु हिताहितेषु स्त्रियश्च राजञ्जडपङ्गुकांश्च पृच्छ त्वं वै तादृशांश्चैव सर्वान्।। | 2-87-15a 2-87-15b 2-87-15c 2-87-15d |
लभ्यते खलु पापीयान्नरोऽनु प्रियवागिह। अप्रियस्य हि पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः | 2-87-16a 2-87-16b |
यस्तु धर्मपरश्च स्याद्धित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये। अप्रियाण्याह पथ्यानि तेन राजा सहायवान्।। | 2-87-17a 2-87-17b |
अव्याधइजं कटुजं तीक्ष्णमुष्णं यशोमुषं परुषं पूतिगन्धिम्। सतां पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो मन्युं महाराज पिब प्रशाम्य ।। | 2-87-18a 2-87-18b 2-87-18c 2-87-18d |
वैचित्रवीर्यस्य यशो धनं च वाञ्छाम्यहं सहपुत्रस्य शश्वत्। यथा तथा तेऽस्तु नमश्चतेऽस्तु ममापि च स्वस्ति दिशन्तु विप्राः।। | 2-87-19a 2-87-19b 2-87-19c 2-87-19d |
आशीविषान्नेत्रविषान्कोपयेन्न च पण्डितः। एवं तेऽहं वदामीदं प्रयतः कुरुनन्दन।। | 2-87-20a 2-87-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः।। 87 ।। |
2-87-3 पापीयः पापीयांसम्।।
2-87-11 पारवर्ग्यं शत्रुपक्षजातम्।।
सभापर्व-086 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-088 |