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वेदव्यासः
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दक्षिणदिग्विजये शूरसेनादीञ्जितवतः सहदेवस्य माहिष्मत्यां नीलेन सह युद्धम् ।। 1।।
नोलस्य अग्निसाहाय्यकरणकारणकथनम्।। 2।।
सहदेवस्तुत्या तुष्टस्याग्नेराज्ञया नीलेनार्चितस्य सहदेवस्य विभीषणात्करग् रहणार्थं घटोत्कचप्रेषणम्।। 3।।

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वैशम्पाय उवाच।। 2-32-1x
तथैव सहदेवोऽपि धर्मराजेन पूजितः।
महत्या सेनया राजन्प्रययौ दक्षिणां दिशम्।।
2-32-1a
2-32-1b
स शूरसेनान्कार्त्स्न्येन पूर्वमेवाजयत्प्रभुः।
मत्स्यराजं च कौरव्यो वशे चक्रे बलाद्बली।।
2-32-2a
2-32-2b
अधिराजाधिपं चैव दन्तवक्रं महाबलम्।
जिगाय करदं चैव कृत्वा राज्ये न्यवेशयत्।।
2-32-3a
2-32-3b
सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम्।
तथैवापरमत्स्यांश्च व्यजयत्स पटच्चरान्।।
2-32-4a
2-32-4b
निषादभूमिं गोशृङ्गं पर्वतप्रवरं तथा।
तरसैवाजयद्धीमाञ्श्रेणिमन्तं च पार्थिवम्।।
2-32-5a
2-32-5b
नरराष्ट्रं च निर्जित्य कुन्तिभोजमुपाद्रवत्।
प्रीतिपूर्वं च तस्यासौ प्रतिजग्राह शासनम्।।
2-32-6a
2-32-6b
ततश्चर्मण्वतीकूले जम्भकस्यात्मजं नृपम्।
ददर्श वासुदेवेन शेषितं पूर्ववैरिणा।।
2-32-7a
2-32-7b
चक्रे तेन स सङ्ग्रामं सहदेवेन भारत।
स तमाजौ विनिर्जित्य दक्षिणाभिमुखो ययौ।।
2-32-8a
2-32-8b
सेकानपरसेकांश्च रत्नानि विविधानि च।।
ततस्तेनैव सहितो नर्मदामभितो ययौ।
2-32-9a
2-32-9b
`भगदत्तं महाबाहुं क्षत्रियं नरकात्मजम्।
अर्जुनाय करं दत्तं श्रुत्वा तत्र न्यवर्तत'।।
2-32-10a
2-32-10b
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ सैन्येन महतावृतौ।
जिगाय समरे वीरावाश्विनेयः प्रतापवान्।।
2-32-11a
2-32-11b
ततो रत्नान्युपादाय पुरं भोजकटं ययौ।
तत्र युद्धमभूद्राजन्दिवसद्वयमच्युत।।
2-32-12a
2-32-12b
स विजित्य दुराधर्षं भीष्मकं माद्रिनन्दनः।
कोसलाधिपतिं चैव तथा वेणातटाधिपम्।।
2-32-13a
2-32-13b
कान्तारकांश्च समर तथा प्राकोटकान्नृपान्।
नाटकेयांश्च समरे तथा हेरम्बकान्युधि।।
2-32-14a
2-32-14b
मारुधं च विनिर्जित्य रम्यग्राममथो बलात्।
नाचीनानर्बुकांश्चैव राजानश्च महाबलः।।
2-32-15a
2-32-15b
तांस्तानाटविकान्सर्वानजयत्पाण्डुनन्दनः।
नाताधिपं च नृपतिं वशे चक्रे महाबलः।।
2-32-16a
2-32-16b
पुलिन्दांश्च रणे जित्वा ययौ दक्षिणतः पुरः।
युयुधे पाण्ड्यराजेन दिवसं नकुलानुजः।।
2-32-17a
2-32-17b
तं जित्वा स महाबाहुः प्रययौ दक्षिणापथम्।
गुहामासादयामास किष्किन्धां लोकविश्रुताम्।।
2-32-18a
2-32-18b
`पुरा वानरराजेन वालिना चाभिरक्षिताम्।
ततः कोसलराजस्य रामस्यैवानुगेन च।
सुग्रीवेणाभिगुप्तां तां प्रविष्टस्तमथाह्वयत्'।।
2-32-19a
2-32-19b
2-32-19c
तत्र वानरराजाभ्यां मैन्देन द्विविदेन च।
युयुधे दिवसान्सप्त न च तौ विकृतिं गतौ।।
2-32-20a
2-32-20b
ततस्तुष्टौ महात्मानौ सहदेवाय वानरौ।
ऊचतुश्चैव संहृष्टौ प्रीतिपूर्वमिदं वचः।।
2-32-21a
2-32-21b
गच्छ पाण्डवशार्दूल रत्नान्यादाय सर्वशः।
अविघ्नमस्त कार्याय धर्मराजाय धीमते।।
2-32-22a
2-32-22b
ततो रत्नान्युपादाय पुरीं माहिष्मतीं ययौ।।
तत्र नीलेन राज्ञा स चक्रे युद्धं नरर्षभः।।
2-32-23a
2-32-23b
पाण्डवः परवीरघ्नः सहदेवः प्रतापवान्।।
ततोऽस्य सुमहद्युद्धमासीद्भीरुभयङ्करम्।।
2-32-24a
2-32-24b
सैन्यक्षयकरं चैव प्राणानां संशयावहम्।
चक्रे तस्य हि साहाय्यं भगवान्हव्यवाहनः।।
2-32-25a
2-32-25b
ततो रथा हया नागाः पुरुषाः कवचानि च।
प्रतीप्तानि व्यदृश्यन्त सहदेवबले तदा।।
2-32-26a
2-32-26b
ततः सुसंभ्रान्तमना बभूव कुरुनन्दनः।
नोत्तरं प्रतिवक्तुं च शक्तोऽभूज्जनमेजय।।
2-32-27a
2-32-27b
जनमेजय उवाच। 2-32-28x
किमर्थं भगवान्वह्निः प्रत्यमित्रोऽभवद्युधि।
सहदेवस्य यज्ञार्थं घटमानस्य वै द्विज।।
2-32-28a
2-32-28b
वैशम्पायन उवाच। 2-32-29x
तत्र माहिष्मतीवासी भगवान्हव्यवाहनः।
श्रूयते हि गृहीतो वै पुरस्तात्पारदारिकः।।
2-32-29a
2-32-29b
नीलस्य राज्ञो दुहिता बभूवतातीव शोभना।
साऽग्निहोत्रमुपातिष्ठद्बोधनाय पितुः सदा।।
2-32-30a
2-32-30b
व्यजनैर्धूयमानोऽपि तावत्प्रज्वलते न सः।।
यावच्चारुपुटौष्ठेन वायुना न विधूयते।।
2-32-31a
2-32-31b
ततः स भगवानग्निश्चकमे तां सुदर्शनाम्।
नीलस्य राज्ञः सर्वेषामुपनीतश्च सोऽभवत्।।
2-32-32a
2-32-32b
ततो ब्रह्मणरूपेण रममाणो यदृच्छया।।
चकमे तां वरारोहां कन्यामुत्पललोचनाम्।।
तं तु राजा यथाशास्त्रमशासद्धार्मिकस्तदा।।
2-32-33a
2-32-33b
2-32-33c
प्रजज्वाल ततः कोपाद्भगवान्हव्यवाहनः।
तं दृष्ट्वा विस्मितो राजा जगाम शिरसाऽवनिम्।।
2-32-34a
2-32-34b
ततः कालेन तां कन्यां तथैव हि तदा नृपः।
प्रददौ विप्ररूपाय वह्रये शिरसा नतः।।
2-32-35a
2-32-35b
प्रतिगृह्य च तां सुभ्रुं नीलराज्ञः सुतां तदा।
चक्रे प्रसादं भगवांस्तस्य राज्ञो विभावसुः।।
2-32-36a
2-32-36b
वरेण च्छन्दयामास तं नृपं स्विष्टकृत्तमः।
अभयं च स जग्राह स्वसैन्ये वै महीपतिः।।
2-32-37a
2-32-37b
ततः प्रभृति ये केचिदज्ञानात्तां पुरीं नृपाः।
जिगीषन्ति बलाद्राजंस्ते दह्यन्ते स्म वह्निना।।
2-32-38a
2-32-38b
स्यां पुर्यां तदा चैव माहिष्मत्यां कुरूद्वह।
बभूवुरनतिग्राह्य योषितश्छन्दतः किल।।
2-32-39a
2-32-39b
एवमग्निर्वरं प्रादात्स्त्रीणामप्रतिवारणे।
रिण्यस्तत्र च राजानस्तत्पुरं भरतर्षभ।
2-32-40a
2-32-40b
र्जयन्ति च राजानस्तत्पुरं भरतर्षभ।
भयादग्नेर्महाराज तदाप्रभृति सर्वदा।।
2-32-41a
2-32-41b
सहदेवस्तु धर्मात्मा सैन्यं दृष्ट्वा भयार्दितम्।
परीतमग्निना राजन्नाकम्पत यथाऽचलः।
उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा सोऽब्रवीत्पावकं ततः।।
2-32-42a
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सहदेव उवाच। 2-32-43x
त्वदर्थोऽयं समारम्भः कृष्णवर्त्मन्नमोस्तु ते।
मुखं त्वमसि देवानां यज्ञस्त्वमसि पावक।।
2-32-43a
2-32-44b
पावनात्पावकश्चासि वहनाद्धव्यवाहनः।
वेदास्त्वदर्थं जाता वै जातवेदास्ततो ह्यसि।।
2-32-44a
2-32-44b
चित्रभानुः सुरेशश्च अनलस्त्वं विभावसो।
स्वर्गद्वारस्पृशश्चासि हुताशो ज्वलनः शिखी।।
2-32-45a
2-32-45b
वैश्वानरस्त्वं पिङ्गेशः प्लवङ्गो भूरितेजसः।
कुमारसूस्त्वं भगवान्रुद्रगर्भो हिरण्यकृत्।।
2-32-46a
2-32-46b
अग्निर्ददातु मे तेजो वायुः प्राणं ददातु मे।
पृथिवी बलमादध्याच्छिवं चापो दिशन्तु मे।।
2-32-47a
2-32-47b
अपां गर्भ महासत्व जातवेदः सुरेश्वर।
देवानां मुखमग्ने त्वं सत्येन विपुनीहि माम्।।
2-32-48a
2-32-48b
ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव दैवतैरसुरैरपि।
नित्यं सुहुत यज्ञेषु सत्येन विपुनीहि माम्।।
2-32-49a
2-32-49b
धूमकेतुः शिखी च त्वं पापहाऽनिसम्भवः।
सर्वप्राणिषु नित्यस्थः सत्येन विपुनीहि माम्।।
2-32-50a
2-32-50b
एवं स्तुतोऽसि भगवन्प्रीतेन शिचिना मया।
तुष्टिं पुष्टिं श्रुतं चैव प्रीति चाग्ने प्रयच्छ मे।।
2-32-51a
2-32-51b
वैशम्पायन उवाच। 2-32-52x
इत्येवं मन्त्रमाग्नेयं पठन्यो जुहुयाद्विभुम्।
ऋद्धिमान्सततं दान्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
2-32-52a
2-32-52b
सहदेव उवाच। 2-32-53x
यज्ञविघ्नमिमं कर्तुं नार्हस्त्वं यज्ञवाहन।
एवमुक्त्वा तु माद्रेयः कुशैरास्तीर्य मेदिनीम्।।
2-32-53a
2-32-53b
विधिवत्पुरुषव्याघ्रः पावकं प्रत्युपाविशत्।
प्रमुखे तस्य सैन्यस्य भीतोद्विग्रस्य भारत।।
2-32-54a
2-32-54b
न चैनमत्यगाद्वह्निरुवाच महोदधिः।
तमुपेत्य शनैर्वह्निरुवाच कुरुनन्दनम्।।
2-32-55a
2-32-55b
सहदेवं नृणां देवं सान्त्वपूर्वमिदं वचः।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कौरव्य जिज्ञासेयं कृता मया।।
2-32-56a
2-32-56b
वेद्मि सर्वमभिप्रायं तव धर्मसुतस्य च।
मया तु रक्षितव्या पूरियं भरतसत्तम।।
2-32-57a
2-32-57b
यावद्राज्ञो हि नीलस्य कुले वंशधरा इति।
ईप्सितं तु करिष्यामि मनसस्तव पाण्डव।।
2-32-58a
2-32-58b
तत उत्थाय हृष्टात्मा प्राञ्जलिः शिरसा नतः।
पूजयामास माद्रेयटः पावकं भरतर्षभ।।
2-32-59a
2-32-59b
पावके विनिवृत्ते तु नीलो राजाऽभ्यगात्तदा।
पावकस्याज्ञया चैनमर्चयामास पार्थिवः।।
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2-32-60b
सत्कारेण नरव्याघ्रं सहदेवं युधां पतिम्।
प्रतिगृह्य च तां पूजां करे च विनिवेश्य च।।
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2-32-61b
माद्रीसुतस्ततः प्रायाद्विजयी दक्षिणां दिशम्।
त्रैपुरं स वशे कृत्वा राजानममितौजसम्।।
2-32-62a
2-32-62b
निजग्राह महाबाहुस्तरसा पौरवेश्वरम्।
आकृतिं कौशिकाचार्यं यत्ने महता ततः।।
2-32-63a
2-32-63b
वशे चक्रे महाबाहुः सुराष्ट्राधिपतिं तदा।
सुराष्ट्रविषयस्थश्च प्रेषयामास रुक्मिणे।।
2-32-64a
2-32-64b
राज्ञे भोजकटस्थाय महामात्राय धीमते।
भीष्मकायस धर्मात्मा साक्षादिन्द्रसखाय वै।।
2-32-65a
2-32-65b
च चास्य प्रतिजग्राह ससुतः शासनं तदा।
प्रीतिपूर्वं महाराज वासुदेवमवेक्ष्य च।।
2-32-66a
2-32-66b
ततः स रत्नान्यादाय पुनः प्रायाद्युधां पतिः।
ततः शूर्पारकं चैव तालाकटमथापि च।।
2-32-67a
2-32-67b
वशे चक्रे महातेजा दण्डकांश्च महाबलः।
सागरद्वीपवासांश्च नृपतीन्म्लेच्छयोनिजान्।।
2-32-68a
2-32-68b
निषादान्पुरुषादांश्च कर्णप्रावरणानपि।
ये च कालमुखा नाम नरराक्षसयोनयः।।
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कृत्स्नं कोलगिरिं चैव सुरभीपट्टनं तथा।
द्वीपं ताम्राह्वयं चैव पर्वतं रामकं तथा।।
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तिमिङ्गिलं च स नृपं वशे कृत्वा महामतिः।
एकपादांश्च पुरुषान्केरलान्वनवासिनः।।
2-32-71a
2-32-71b
नगरीं सञ्जयन्तीं च पाषण्डं करहाटकम्।
दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत्।।
2-32-72a
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पाण्ड्यांश्च द्रविडांश्चैव सहितांश्चोड्रकेरलैः।
अन्ध्रांस्तावनांश्चैव कलिङ्गानुष्ट्रकर्णिकान्।।
2-32-73a
2-32-73b
आटवीं च पुरीं रम्यां यवनानां पुरं तथा।
दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत्।।
2-32-74a
2-32-74b
`तात्रपर्णी ततो गत्वा कन्यातीर्थमतीत्य च।
दक्षिणां च दिशं सर्वा विजित्य कुरुनन्दनः।।
2-32-75a
2-32-75b
उत्तरं तीरमासाद्य सागरस्योर्मिमालिनः।
चिन्तयामास कौन्तेयो भ्रातुः पुत्रं घटोत्कचम्।।
2-32-76a
2-32-76b
ततश्चिन्तितमात्रस्तु राक्षसः प्रत्यदृश्यत।
तं मेरुशिखराकारमागतं पाण्डुनन्दनः।।
2-32-77a
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भृगुकच्छात्ततो धीमान्साम्नैवामित्रकर्शनः।
आगम्यतामिति प्राह धर्मराजस्य शसनाः।।
2-32-78a
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स राक्षसपरीवारस्तं प्रणम्याशु संस्थितः।
घटोत्कचं महात्मानं राक्षसं घोरदर्शनम्।।
2-32-79a
2-32-79b
तत्रस्थः प्रेषयामास पौलस्त्याय महात्मने'।
बिभीषणाय धर्मात्मा प्रीतिपूर्वमरिन्दमः।।
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स चास्य प्रतिजग्राह शासनं प्रीतिपूर्वकम्।
तच्च कृष्णकृतं धीमानभ्यमन्यत स प्रभुः।।
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2-32-81b
ततः सम्प्रेषयामास रत्नानि विविधानि च।
चन्दनागुरुकाष्ठानि दिव्यान्याभरणानि च।।
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वासांसि च महार्हाणि मणींश्चैव महाधनान्।। 2-32-82x
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
दिग्विजयपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32।।
सभापर्व-031 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-033
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