महाभारतम्-02-सभापर्व-047
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बलिनिपीडितैरिन्द्रादिभिः प्रार्धितेन हरिणा अदित्यां वामनत्वेनावतीर्य बलि म्प्रति याचनम्।। 1।। त्रिविक्रमरूपिणो हरेः पादाङ्गुष्ठनखनिर्भिण्णोर्ध्वाण्डाद्गङ्गायाः प्रादु र्भावो बलिनिग्रहश्च ।। 2।।
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भीष्म उवाच।। | 2-47-1x |
पुरा त्रेतायुगे राजन्बलिर्वैरोजनोऽभवत्। दैत्यानां पार्थिवो वीरो बलेनाप्रतिमो बली।। | 2-47-1a 2-47-1b |
तदा बलिर्महाराज दैत्यसङ्घैः समावृतः। विजेतुं तरसा शक्रमिन्द्रस्थानमवाप सः।। | 2-47-2a 2-47-2b |
तेन वित्रासिता देवा बलिनाऽऽखण्डलादयः। ब्रह्माणं तु पुरस्कृत्य गत्वा क्षीरोदधिं तदा।। | 2-47-3a 2-47-3b |
तुष्टुवुः सहिताः सर्वे देवं नारायणं प्रभुम्। स तेषां दर्शनं चक्रे विबुधानां हरिस्तदा।। | 2-47-4a 2-47-4b |
प्रसादजं तस्य विभोरदित्यां जन्म उच्यते। अदितेरपि पुत्रत्वमेत्य यादवनन्दनः।। | 2-47-5a 2-47-5b |
एष विष्णुरिति ख्यात इन्द्रस्यावरजोऽभवत्। तस्मिन्नेव च काले तु दैत्येन्द्रो बलवीर्यवान्।। | 2-47-6a 2-47-6b |
अश्वमेधं क्रतुश्रेष्ठमाहर्तुमुपचक्रमे। वर्तमाने तदा यज्ञे दैत्येन्द्रस्य युधिष्ठिर।। | 2-47-7a 2-47-7b |
स विष्णुर्मानवो भूत्वा प्रच्छन्नो ब्रह्मसंवृतः। मुण्डो यत्रोपवीती च कृष्णाजिनधरः शिखी।। | 2-47-8a 2-47-8b |
पालाशदण्डं सङ्गृह्य वामनोऽद्भुतदर्शनः। विश्य स बलेर्यज्ञे वर्तमानो च दक्षिणाम्।। | 2-47-9a 2-47-9bप्र |
देहीत्युवाच दैत्येन्द्रं विक्रमांस्त्रीनिहैव ह। दीयतां त्रिपदीमात्रमित्ययाचन्महासुरम्।। | 2-47-10a 2-47-10b |
स तथेति प्रतिश्रुत्य प्रददौ विष्णवे तदा। तेन लब्ध्वा हिरर्भूमिं जृम्भयामास वै भृशम्।। | 2-47-11a 2-47-11b |
स शिशुः सदिवं खं च पृथिवीं वच विशाम्पते। त्रिभिर्विक्रमणैश्चैव सर्वमाक्रमताभिभूः।। | 2-47-12a 2-47-12b |
बलेर्बलवतो यज्ञे बलिना विष्णुना पुरा। विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्याः क्षोभितास्ते महासुराः।। | 2-47-13a 2-47-13b |
विप्रचित्तिमुखाः क्रुद्धाः सर्वसङ्घा महासुराः। नानावक्रा महाकाया नानावेषधरा नृप।। | 2-47-14a 2-47-14b |
नानाप्रहरणा रौद्रा नानामाल्यानुलेपनाः। स्वान्यायुधानि सङ्गृह्य प्रदीप्ता इव तेजसा।। | 2-47-15a 2-47-15b |
क्रममाणं हरि तत्र उपावर्तन्त भारत। प्रमथ्य सर्वान्दैतेयान्पादहस्ततलैस्तु तान्।। | 2-47-16a 2-47-16b |
रूपं कृत्वा महाभीमं जहाराशु स मेदिनीम्। सम्प्राप्य दिवमाकाशमादित्यसदने स्थितः।। | 2-47-17a 2-47-17b |
अत्यरोचत भूतात्मा आदित्यस्यैव तेजसा। प्रकाशयन्दिशः सर्वाः प्रदिशश्च महायशाः।। | 2-47-18a 2-47-18b |
शुशुभे स महाबाहुः सर्वलोकान्प्रकाशयन्। तस्य विक्रमतो भूमिं चन्द्रादित्यौ स्तनान्तरे।। | 2-47-19a 2-47-19b |
नभस्तु क्रममाणस्य नाभ्यां किल तदा स्थितौ। परमाक्रममाणस्य नानुभ्यां तौ व्यवस्थितौ।। | 2-47-20a 2-47-20b |
विष्णोरमितवीर्यस्य वदन्त्येवं द्विजातयः। अथास्य पादाक्रमणात्पफालाण्डो युधिष्ठिरः।। | 2-47-21a 2-47-21b |
तच्छिद्रात्स्यन्दिनी तस्य पादभ्रष्टा तु निम्नगा। ससार सागरं सा तु पावनी सागरंगमा।। | 2-47-22a 2-47-22b |
जहार मेदिनीं सर्वां हत्वा दानवपुङ्गवान्। आसुरी श्रियमाहृत्य त्रील्लोकान्स जनार्दन।। | 2-47-23a 2-47-23b |
सपुत्रदारानसुरान्पाताले संन्यवेशयत्। नमुचिः शम्बरश्चैव प्रह्लादश्च महामनाः।। | 2-47-24a 2-47-24b |
महाभूतानि भूतात्मा सविशेषानि वै हरिः। कालं च सकलं राजन्गात्रभूतान्यदर्शयत्।। | 2-47-25a 2-47-25b |
तस्य गात्रे जगत्सर्वमानीतमधिपश्यति। न किञ्चिदस्ति लोकेषु यदनाप्तं महात्मना।। | 2-47-26a 2-47-26b |
तद्धि रूपमुपेन्द्रस्य देवदानवमानवाः। दृष्ट्वा संमुमुहुः सर्वे विष्णुतेजोऽभिपीडिताः।। | 2-47-27a 2-47-27b |
बलिर्बद्धोऽभिमानी च यज्ञवाटे महात्मना। विरोचनकुलं सर्वं पाताले विनिवेशितम्।। | 2-47-28a 2-47-28b |
एवंविधानि कर्माणि कृत्वा गरुडावाहनः। न विस्मयमुपागच्छत्पारमेष्ठ्येन तेजसा।। | 2-47-29a 2-47-29b |
स सर्वमसुरैश्वर्यं सम्प्रदाय शचीपतेः। त्रैलोक्यं च ददौ शक्रे विष्णुर्दानवसूदनः।। | 2-47-30a 2-47-30b |
एष ते वामनो नाम प्रादुर्भावो महात्मनः। वेदविद्भिर्द्विजैरेतच्छ्रूयते वैष्णवं यशः। मानुषेषु ततो विष्णोः प्रादुर्भावांस्तथा शृणु।। | 2-47-31a 2-47-31b 2-47-31c |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अर्घाहरणपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47 ।। |
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