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द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-060
वेदव्यासः
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शर्ववरगर्वितेन बाणासुरेण स्वतनयया उषया सह गूढं रममाणस्य अनिरुद्घस्य कारा गृहप्राषणम्।।1।। नारदाद्विदितपौत्रवृत्तेन कृष्णेन सरामप्रद्युम्नेन बाणं निर्जित्य उषया सह अनिरुद्घानयनम्।। 2।।

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भीष्म उवाच।। 2-60-1x
द्वारकायां ततः कृष्णः स्वदारेषु दिवानिशम्।
सुखं लब्ध्वा महाराज प्रमुमोद महायशाः।।
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पौत्रस्य कारणाच्चक्रे विबुधानां प्रियं तदा।
सावसवैः सुरैः सर्वैर्दुष्करं भरतर्षभ।।
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बाणो नामाऽभवद्राजा बलेर्ज्येष्ठसुतो बली।
वीर्यवान्भरतश्रेष्ठ स च बाहुसहस्रवान्।।
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ततस्तेपे तपस्तीव्रं सत्वेन मनसा नृप।
रुद्रमाराधयामास स च बाणः समा बहु।।
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तस्मै बहुवरा दत्ताः शङ्करेण महात्मना।
तांश्च लब्ध्वा वरान्बाणो दुर्लभानसुरैर्भुवि।।
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स शोणितपुरे राज्यं चकाराप्रतिमो बली।
त्रासिताश्च सुराः सर्वे तेन बाणेन पाण्डव।।
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विजित्य विबुधान्सेन्द्रान्बाणः संवत्सरान्बहून्।
अशासत महद्राज्यं कुबेर इव भारत।।
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ततो राजन्नुषा नाम बाणस्य दुहिता यथा।
येनोपायेन कौन्तेय अनिरुद्धो महाद्युतिः।।
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प्राद्युम्निस्तामुषां प्राप्य प्रच्छन्नः प्रमुमोद ह।
अथ बाणो महातेजास्तदा तत्र युधिष्ठिर ।।
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तं गृह्यनिलयं ज्ञात्वा प्राद्युम्निं सुतया तदा।
गृहीत्वा कारयामास वस्तुं कारागृहे बलात्।।
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स कुमारः सुखार्होऽथ तदा दुःखसमन्वितः।
बामेन घातितो राजन्ननिरुद्धो मुमोह च।।
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एतस्मिन्नेव काले तु नारदो मुनिपुङ्गवः।
द्वारकां प्राप्य कौन्तेय कृष्णं दृष्ट्वा वचोऽब्रवीत्।।
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कृष्ण कृष्ण महाबाहो यदूनां कीर्तिवर्धन।
पौत्रस्ते बाध्यमानोऽत्र बाणेनामिततेजसा।।
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कृच्छ्रं प्राप्तोऽनिरुद्धो वै शेते कारागृहे सदा।
एतदुक्त्वा सुरर्षिर्वै बाणस्याथ पुरं ययौ।।
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नारदस्य वचः श्रुत्वा ततो राजञ्जनार्दनः।
जाहूय बलदेवं हि प्रद्युम्नं च महाद्युतिम्।।
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आरुरोह गरुत्मन्तं ताभ्यां सह जनार्दनः।
ततः सुपर्णमारुह्य जयाय भरतर्षभ।।
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जग्मुः क्रुधा महावीर्या बाणस्य नगरं प्रति।
अथासाद्य महाराज तत्पुरं ददृशुश्च ते।।
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ताम्रप्राकारसङ्गुप्तां हेमप्रासादसङ्कुलाम्।
दृष्ट्वा मुदा युताः सर्वे विस्मयं परमं ययुः।।
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तथा बाणपुरस्यासन्द्वारस्था देवताः सदा।
महेश्वरो गुहश्चैव भद्रकाली विनायकः।।
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2-60-19b
अथ कृष्णो बलाज्जित्वा द्वारपालान्युधिष्ठिर।
सुसङ्क्रुद्धो महातेजाः शङ्खचक्रगदासिभृत्।।
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आससादोत्तरद्वारं शङ्करेणाभिरक्षितम्।
तत्र तस्थौ महातेजाः शूलपाणिर्महेश्वरः।।
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2-60-21b
पिनाकं सशरं गृह्य बाणस्य हितकाम्यया।
ज्ञात्वा तमागतं कृष्णं व्यादितास्यमिवान्तकम्।।
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ततस्तौ चक्रतुर्युद्धं वासुदेवमहेश्वरौ।
तद्युद्धमभवद्घोरमचिन्त्यं रोमहर्षणम्।।
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अन्योन्यं तौ ततक्षाते अन्योन्यजयकाङ्क्षिणौ।
दिव्यान्यस्त्राणि तौ देवौ क्रुद्धौ मुमुचतुस्तदा।।
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ततः कृष्णो रणं कृत्वा मुहूर्तं शूलपाणिना।
विजित्य तं महादेवं ततो युद्धे शूलपाणिना।
अन्यांश्च जित्वा द्वारस्थान्प्रविवेश पुरोत्तमम्।।
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प्रविश्य बाणमासाद्य स तत्राथ जनार्दनः।
चक्रे युद्धं महाक्रुद्धस्तेन बाणेन भरतर्षभ।
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बाणोऽपि सर्वशस्त्राणि शितानि भरतर्षभ।
सुसङ्क्रुद्धस्तदा युद्धे पातयामास केशवे।।
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पुनरुद्यम्य शस्त्राणि सहस्रं सर्वबाहुभिः।
मुमोच बाणः सङ्क्रुद्धः कृष्णं प्रति रणाजिरे।।
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ततः कृष्णस्तदा कृत्त्वा तानि सर्वाणि भारत।
कृत्त्वा मुहूर्तं बाणेन युद्धं राजन्नगोक्षजः।।
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चक्रमुद्यम्य रोषाद्वै दिव्यं शस्त्रोत्तमं ततः।
सहस्रबाहूंश्चिच्छेद बाणस्यामिततेजसः।।
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ततो बाणो महाराज कृष्णेन भृशपीडितः।
भिन्नबाहुः पपाताशु विशाख इव पादपः।।
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स पातयित्वा बाणैस्तं बाणं कृष्णस्त्वरान्वितः।
प्राद्युम्निं मोचयामास क्षिप्रं राजगृहात्तदा।।
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मोक्षयित्वाऽथ गोविन्दः प्राद्युम्निं सह भार्यया।
बाणस्य सर्वरत्नानि असङ्ख्यानि जहार सः।।
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गोधनानि च सर्वस्वं स बाणस्यालये बलात्।
जहार च हृषीकेशो यदूनां कुलवर्धनः।।
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ततः स सर्वरत्नानि चाहृत्य मधुसूदनः।
क्षिप्रमारोपयाञ्चक्रे सर्वस्वं गरुडोपरि।।
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त्वरयाऽथ स कौन्तेय बलदेवं महाबलम्।
प्रादुम्निं च महावीर्यमनिरुद्धं महाद्युतिम्।।
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उषां च सुन्दरीं राजन्भृत्यदारगणैः सह।
सर्वानेतान्समारोप्य गरुडोपरि वीर्यवान्।।
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मुदा युक्तो महातेजाः पीताम्बरधरो बली।
दिव्याभरमचित्राङ्गः शङ्कचक्रगदासिभृत्।
आरुरोह गरुत्मन्तमुदयं भास्करो यथा।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
अर्घाहरणपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः।। 60।।
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