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द्वितीयपर्व
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वेदव्यासः
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नकुलस्य पश्चिमदिग्विजयः।। 1।।

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वैशम्पायन उवाच।। 2-35-1x
नकुलस्य तु वक्ष्यामि कर्माणि विजयं तथा।
वासुदेवजितामाशां यथाऽसावजयत्प्रभुः।।
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निर्याय खाण्डवप्रस्थात्प्रतीचीमभितो दिशम्।
उद्दिश्य मतिमान्प्रायान्महत्या सेनया सह।।
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सिंहनादेन महता योधानां गर्जितेन च।
रथनेमिनिनादैश्च कम्पयन्वसुधामिमाम्।।
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ततो बहु धनं रम्यं गावाढ्यं धनधान्यवत्।
कार्तिकेयस्य दयितं रोहीतकुपाद्रवत्।।
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तत्र युद्धं महच्चासीच्छूरैर्मत्तमयूरकैः।
मरुभूमिं स कार्त्स्न्येन तथैव बहुधान्यकम्।।
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शैरीषकं महेत्थं च वशे चक्रे महाद्युतिः।
आक्रोशं चैव राजर्षि तेन युद्धमभून्महत्।।
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तान्दशार्णान्स जित्वा च प्रतस्थे पाण्डुनन्दनः।
शिबींस्त्रिगर्तानम्बष्ठान्मालवान्पञ्च कर्पटान्।।
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तथा मध्यमकेयांश्च वाटधानान्द्विजानथ।
पुनश्च परिवृत्याथ पुष्करारण्यवासिनः।।
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गणानुत्सवसङ्केतान्व्यजयत्पुरुषर्षभः।
सिन्धुकूलाश्रिता ये च ग्रामणीया महाबलाः।।
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शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्।
वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः।।
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कत्स्नं पञ्चनन्दं चैव तथैवामरपर्वतम्।
उत्तरज्योतिषं चैव तथा दिव्यकटं पुरम्।।
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द्वारपालं च तरसा वशे चक्रे महाद्युतिः।
रामठान्हारहूणांश्च प्रतीच्याश्चैव ये नृपाः।।
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तान्सर्वान्स वशे चक्रे शासनादेव पाण्डवः।
तत्रस्थः प्रेषयामास वासुदेवाय भारत।।
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स चास्य गतभी राजन्प्रतिजग्राह शासनम्।
ततः शाकलमभ्येत्य मद्राणां पुटभेदनम्।।
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मातुलं प्रीतिपूर्वेण शल्यं चक्रे वशे बली।
स तेन सत्कृतो राज्ञा सत्कारार्हो विशाम्पते।।
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रत्नानि भूरीण्यादाय सम्प्रतस्थे युधां पतिः।
ततः सागरकुक्षिस्थान्म्लेच्छान्परमदारुणान्।।
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पह्लवान्वर्बरांश्चैव किरातान्यवनाञ्शकान्।
ततो रत्नान्यपादाय वशे कृत्वा च पार्थिवान्।
न्यवर्तत कुरुश्रेष्ठो नकुलश्चित्रमार्गवित्।।
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करमाणां सहस्राणि कोशं तस्य महात्मनः।
ऊहर्दश महाराज कृच्छ्रादिव महाधनम्।।
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इन्द्रप्रस्थगतं वीरमभ्येत्य स युधिष्ठिरम्।
ततो माद्रीसुतः श्रीमान्धनं तस्मै न्यवेदयत्।।
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एवं विजित्य नकुलो दिशं वरुणपालिताम्।
प्रतीचीं वासुदेवेन निर्जितां भरतर्षभ।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
दिग्विजयपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।। 35।।
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