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द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-076
वेदव्यासः
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शकुनिना दुर्योधनस्य चिन्तया कार्श्यादिकं बोधितेन धृतराष्ट्रेण दुर्योधनम् प्रति चिन्ताकारणप्रश्नः।। 1।। दुर्योधनेन तत्कथनपुर्वकं धृतराष्ट्रं प्रति द्यूताभ्यनुज्ञानप्रार्थनम्।। 2।। धृतराष्ट्रेण द्यूतसभानिर्माणाज्ञापनपूर्वकं पाण्डवानयनाय विदुरं प्रति चोद नम्।। 3।।

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वैशम्पायन उवाच।। 2-76-1x
अनुभूय तु राज्ञस्तं राजसूयं सुदुर्मतिः।
`युधिष्ठिरस्य शकुनिर्दुर्योधसुसंयुतः।।
2-76-1a
2-76-1b
विवेश हास्तिनपुरं दुर्योधनमतेन सः।
वाढमित्येव शकुनिर्दृढं हृदि चकार ह।।
2-76-2a
2-76-2b
अस्वस्थतां चतां दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रस्य पापकृत्।
भारतानां च दुष्टात्मा क्षयाय हि नृपक्षयः'।।
2-76-3a
2-76-3b
प्रियकृन्मतमाज्ञाय पूर्वं दुर्योधनस्य तत्।
प्रज्ञाचक्षुषमासीनं शकुनिः सौबलस्तदा।।
2-76-4a
2-76-4b
दुर्योधनवचः श्रुत्वा धृतराष्ट्रं जनाधिपम्।
उपगम्य महाप्राज्ञं शकुनिर्वाक्यमब्रवीत्।।
2-76-5a
2-76-5b
शकुनिरुवाच। 2-76-6x
दुर्योधनो महाराज विवर्णो हरिणः कृशः।
दीनश्चिन्तापरश्चैव तं विद्धि मनुजाधिप।।
2-76-6a
2-76-6b
न वै परीक्षसे सम्यगसह्यं शत्रुसंभवम्।
ज्येष्ठपुत्रस्य हृच्छोकं किमर्थं नावबुध्यसे।।
2-76-7a
2-76-7b
`एवमुक्तः शकुनिना धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
दुर्योधनं समाहूयं इदं वचनमब्रवीत्'।।
2-76-8a
2-76-8b
धृतराष्ट्र उवाच। 2-76-9x
दुर्योधन कृतोमूलं भृशमार्तोऽसि पुत्रक।
श्रोतव्यश्चेन्मया सोऽर्थो ब्रूहि मे कुरुनन्दन।।
2-76-9a
2-76-9b
अयं त्वां शकुनिः प्राह विवर्णं हरिमं कृशम्।
चिन्तयंश्च न पश्यामि शोकस्य तव सम्भवम्।।
2-76-10a
2-76-10b
ऐश्वर्यं हि महत्पुत्र त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
भ्रातरः सुहृदश्चैव नाचरन्ति तवाप्रियम्।।
2-76-11a
2-76-11b
आच्छादयसि प्रावारानश्नासि पिशितौदनम्।
आजानेया वहन्त्यश्वाः केनासि हरिणः कृशः।।
2-76-12a
2-76-12b
शयनानि महार्हाणि योषितश्च मनोरमाः।
गुणवन्ति च वेश्मानि विहाराश्च यथासुखम्।।
2-76-13a
2-76-13b
देवनामिव ते सर्वं वाचि बद्धं न संशयः।
स दीन इव दुर्धर्ष कस्माच्छोचसि पुत्रक।।
2-76-14a
2-76-14b
`मात्रा पित्रा च पुत्रस्य यद्वै कार्यं परं स्मृतम्।
प्राप्तस्त्वमसि तत्तात निखिलां नः कुलश्रियम्।।
2-76-15a
2-76-15b
उपस्थितः सर्वकामैस्त्रिदिवे वासवो यथा।
विविधैरन्नपानैश्च प्रवरैः किं नु शोचसि।।
2-76-16a
2-76-16b
निरुक्तं निगमं छन्दः षडङ्गान्यस्त्रशास्त्रवान्।
अधीती कृतविद्यस्त्वं दशव्याकरणैः कृपात्।।
2-76-17a
2-76-17b
हलायुधात्कृपाद्द्रोणादस्त्रविद्यामधीतवान्।
भ्राताज्येष्ठः स्थितो राज्ये किमु शोचसि पुत्रक।।
2-76-18a
2-76-18b
पृथग्जनैरलभ्यं यदशनाच्छादनं बहु।
प्रभुः सन्भुञ्जसे पुत्र संस्तुतः सूतमागधैः।।
2-76-19a
2-76-19b
तस्य ते विदितप्रज्ञ शोकमूलमिदं कथम्।
लोकेस्मिञ्ज्येष्ठभागन्यस्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।।
2-76-20a
2-76-20b
वैशम्पायन उवाच।। 2-76-21x
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा मन्दः क्रोधवशानुगः।
पितरं प्रत्युवाचेदं स्वमतिं सम्प्रकाशयन् '।।
2-76-21a
2-76-21b
दुर्योधन उवाच।। 2-76-22x
अश्नाम्याच्छादये चाहं यथा कुपुरुषस्तथा।
अमर्षं धारये चोग्रं निनीषुः कालपर्ययम्।।
2-76-22a
2-76-22b
अमर्षणः स्वाः प्रकृतीरभिभूय परं स्थितः।
क्लेशान्मुमुक्षुः परजान्स वै पुरुष उच्यते।।
2-76-23a
2-76-23b
सन्तोषो वै श्रियं हन्ति ह्यभिमानं च भारत।
अनुक्रोशभये चोभे यैर्वृतो नाश्नुते महत्।।
2-76-24a
2-76-24b
न मां प्रीणाति मद्भुक्तं श्रियं दृष्ट्वा युधिष्ठेरे।
अतिज्वलन्तीं कौन्तेये विवर्णकरणीं मम।।
2-76-25a
2-76-25b
नृद्व्यतोत्मानं हीयमानं निशाम्य च।
अदृश्यामपि कौन्तेय श्रियं पश्यन्निवोद्यताम्।।
2-76-26a
2-76-26b
तस्मादहं विवर्णश्च दीनश्च हरिमः कृशः।
अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः।।
2-76-27a
2-76-27b
त्रिंशद्दासीक एकैको यान्बिभर्ति युधिष्ठिरः।
दशान्यानि सहस्राणि यतीनामूर्ध्वरेतसाम्।
भुञ्जते रुक्मपात्रीभिर्युधिष्ठिरनिवेशने।।
2-76-28a
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2-76-28c
कदलीमृगमोकानि कृष्णश्यामारुणानि च।
काम्भोजः प्राहिणोत्तस्मै परार्ध्यानपि कम्बलान्।
गजयोषिद्गवाश्वस्य शतशोऽथ सहस्रशः।।
2-76-29a
2-76-29b
2-76-29c
शतं चोष्ट्रवामीनां शतानि विचरन्त्युत।
राजन्या बलिमादाय समेता हि नृपक्षये।।
2-76-30a
2-76-30b
पृथग्विधानि रत्नान पार्थिवाः पृथिवीपते।
आहरन्क्रतुमुख्येऽस्मिन्कुन्तीपुत्राय भूरिशः।।
2-76-31a
2-76-31b
न क्वचिद्धि मया तादृग्दृष्टपूर्वो न च श्रुतः।
यादृग्धनागमो यज्ञे पाण्डुपुत्रस्य धीमतः।।
2-76-32a
2-76-32b
`असत्यं चेदिदं सर्वं सञ्जयं प्रष्टुमर्हसि'।
अपर्यन्तं धनौघं तं दृष्ट्वा शत्रोरहं नृप।
शर्म नैवाभिगच्छामि चिन्तयानो विशाम्पते।।
2-76-33a
2-76-33b
2-76-33c
ब्रह्मणा वाटधानाश्च गोमन्तः शतसङ्घशः।
त्रिखर्वं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः।।
2-76-34a
2-76-34b
कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयाञ्शुभान्।
त्रैखर्वाः प्रतिवेद्यास्मै लेभिरेऽथ प्रवेशनम्।।
2-76-35a
2-76-35b
यथैव मधु शक्राय धारयन्त्यमरस्त्रियटः।
तदस्मै कांस्यमाहार्षीद्वारुणं कलशोदधिः।।
2-76-36a
2-76-36b
शङ्खप्रवरमादाय वासुदेवोऽभिषिक्तवान्।
शक्यं रुक्मसहस्रस्य बहुरत्नविभूषितम्।।
2-76-37a
2-76-37b
दृष्ट्वा च मम तत्सर्वं ज्वररूपमिवाभवत्।
गृहीत्वा तत्तु गच्छन्ति समुद्रौ पूर्वदक्षिणौ।।
2-76-38a
2-76-38b
तथैव पश्चिमं यान्ति गृहीत्वा भरतर्षभ।
त्तरं तु न गच्छन्ति विना तात पतत्रिणः।
तत्र गत्वाऽर्जुनो दण्डमाजहारामितं धनम्।।
2-76-39a
2-76-39b
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`कृतां बैन्दुसरै रत्नैर्मयेन स्फाटिकच्छदाम्।
अपश्यं नलिनीं पूर्णामुदकस्येव भारत।।
2-76-40a
2-76-40b
उत्कर्षन्तं च वासश्च प्राहसन्मां वृकोदरः।
किङ्कराश्च सभापाला जहसुर्भरतर्षभ।।
2-76-41a
2-76-41b
पित्रोरर्थे विशेषेण प्रावृण्वं तत्र जीवितम्।
तत्र त्म यदि शक्तः स्यां घातयेयं वृकोदरम्।।
2-76-42a
2-76-42b
सपत्नेनापहासो हि स मां दहति भारत।। 2-76-43a
तत्र स्फाटिकतोयां हि स्फाटिकाम्बुजशोभिताम्।
सभां पुष्करिणीं मत्वा पतितोऽस्मि नराधिप।।
2-76-44a
2-76-44b
तत्र मामहसद्भीमः सह पार्थेन सस्वरम्।
द्रौपदी चसह स्त्रीभिः पातयन्ती मनो मम।।
2-76-45a
2-76-45b
क्लिन्नवस्त्रस्य च जले किङ्करा राजचोदिताः।
ददुर्वासांसि मेऽन्यानि तच्च दुःखतरं मम।।
2-76-46a
2-76-46b
अस्तम्भा इव तिष्ठन्ति स्तम्भा इव सहस्रशः।
सोहं तत्राहतो राजन्स्फटिकाभ्यन्तरे विभो।।
2-76-47a
2-76-47b
अद्वारेण विनिर्गच्छन्द्वारसंस्थानरूपिणा।
अभिहत्य शिलां भूयो ललाटेनास्मि विक्षतः।।
2-76-48a
2-76-48b
आमृशन्निव तां दृष्ट्वा मार्गान्तरमुपाविशम्।
इदं द्वारमिदं राजन्नद्वारमिति मां प्रति।
अद्भुतं प्रहसन्वाक्यं बभाषे स वृकोदरः।।
2-76-49a
2-76-49b
2-76-49c
स्त्रियश्च तत्र मां दृष्ट्वा जहसुस्तादृशं नृप।
सर्वं हासकरं तेषां सदस्यानां नरर्षभ।।
2-76-50a
2-76-50b
न श्रुतानि न दृष्टानि यानि रत्नान मे क्वचित्।
तानि मे तत्र दृष्टानि तेन तप्तोस्मि दुःखितः।।
2-76-51a
2-76-51b
हुताशनं प्रवेक्ष्यामि प्रवेक्ष्यामि महोदधिम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते'।।
2-76-52a
2-76-52b
इदं चाद्भुतमत्रासीत्तन्मे निगदतः शृणु।। 2-76-53a
पूर्णे शतसहस्रे तु विप्राणां भुञ्जतां सदा।
स्थापितस्तत्र सञ्ज्ञार्थं शङ्खो ध्मायति नित्यसः।।
2-76-54a
2-76-54b
मुहुर्मुहुः प्रणदतस्तस्य शङ्खस्य भारत।
अनिशं शब्दमश्रौषं ततो रोमाणि मेऽहृषन्।।
2-76-55a
2-76-55b
पार्थिवैर्बहुभिः कीर्णमुपस्थानं दिदृक्षुभिः।
अशोभत महाराज नक्षत्रैर्द्यैरिवामला।।
2-76-56a
2-76-56b
सर्वरत्नान्युपादाय पार्थिवा वै जनेश्वर।
ज्ञे तस्य महाराज पाण्डुपुत्रस्य धीमतः।।
2-76-57a
2-76-57b
वैश्या इव महीपाला द्विजातिपरिवेषकाः।
न सा श्रीर्देवराजस्य यमस्य वरुणस्य च।
गुह्यकाधिपतेर्वापि या श्री राजन्युधिष्ठिरे।।
2-76-58a
2-76-58b
2-76-58c
तां दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रस्य श्रियं परमिक्रामहम्।
शान्तिं न परिगच्छामि दह्यमानेन चेतसा।।
2-76-59a
2-76-59b
`अप्राप्य पाण्डवैश्वर्यं शमो मम न विद्यते।
अरीन्बाणैः शाययिष्ये शयिष्ये वा हतः परैः।।
2-76-60a
2-76-60b
एतादृशस्य मे किं तु जीवितेन परन्तप।
वर्धन्ते पाण्डवा राजन्वयं हि स्थितवृद्धयः'।।
2-76-61a
2-76-61b
शकुनिरुवाच।। 2-76-62x
यामेतामतुलां लक्ष्मीं दृष्टवानसि पाण्डवे।
तस्याटः प्राप्तावुपायं मे शृणु सत्यपराक्रम।।
2-76-62a
2-76-62b
अहमक्षेष्वभिज्ञोऽस्मि पृथिव्यामपि भारत।
हृदयज्ञः पणज्ञश्च विशेषज्ञश्च देवने।।
2-76-63a
2-76-63b
द्यूतप्रियश्च कौन्तेयो न च जानाति देवितुम्।
आहूतश्चैष्यति व्यक्तं नित्यमेवाह्वयत्स्वयम्।।
2-76-64a
2-76-64b
नियतं तं विजेष्यामि कृत्वा तु कपटं विभो।
आनयामि समृद्धिं तां दिव्यां चोपाह्वयस्व तम्।।
2-76-65a
2-76-65b
वैशम्पायन उवाच।। 2-76-66x
एवमुक्तः शकुनिना राजा दुर्योधनस्ततः।
धृतराष्ट्रमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत्।।
2-76-66a
2-76-66b
अयमुत्सहते राजञ्श्रियमाहर्तुमक्षवित्।
द्यूतेन पाण्डुपुत्रस्य तदनुज्ञातुमर्हसि।।
2-76-67a
2-76-67b
धृतराष्ट्र उवाच।। 2-76-68x
क्षत्ता मन्त्री महाप्राज्ञः स्थितो यस्यास्मि शासने।
तेन सङ्गम्य वेत्स्यामि कार्यस्यास्य विनिश्चयम्।।
2-76-68a
2-76-68b
स हि धर्मं पुरस्कृत्य दीर्घदर्शी परं हितम्।
उभयोटः पक्षयोर्युक्तं वक्ष्यत्यर्थविनिश्चयम्।।
2-76-69a
2-76-69b
दुर्योधन उवाच। 2-76-70x
निवर्तयिष्यति त्वाऽसौ यदि क्षत्ता समेष्यति।
निवृत्ते त्वयि राजेन्द्र मरिष्येऽहमसंशयम्।।
2-76-70a
2-76-70b
स त्वं मयि मृते राजन्विदुरेण सुखी भव।
भोक्ष्यसे पृथिवीं कृत्स्नां किं मया त्वं करिष्यसि।।
शम्पायन उवाच।।
2-76-71a
2-76-71b
2-7-72x
आर्तवाक्यं तु तत्तस्य प्रणयोक्तं निशम्य सः।
धृतराष्ट्रोऽब्रवीत्प्रेष्यन्दुर्योधनमते स्थितः।।
2-76-72a
2-76-72b
स्थूणासहस्रैर्बृहतीं शतद्वारां सभां मम।
मनोरमां दर्शनीयामाशु कुर्वन्तुं शिल्पिनः।।
2-76-73a
2-76-73b
ततः संस्तीर्य रत्नैस्तां तक्ष्ण आनाय्य सर्वशः।
सुकृतां सुप्रवेशां च निवेदयत मेऽशनैः।।
2-76-74a
2-76-74b
दूर्योधनस्य शान्त्यर्थमिति निश्चित्य भूमिपः।
धृतराष्ट्रो महाराज प्राहिणोद्विदुराय वै।।
2-76-75a
2-76-75b
अपृष्ट्वा विदुरं स्वस्यन नासीत्कश्चिद्विनिश्चयः।
द्यूते दोषांश्च जानन्स पुत्रस्नेहादकृष्यत।।
2-76-76a
2-76-76b
तच्छ्रुत्वा विदुरो धीमान्कलिद्वारमुपस्थितम्।
विनाशमुखमुत्पन्नं धृतराष्ट्रमुपाद्रवत्।।
2-76-77a
2-76-77b
सोऽभिगम्य महात्मानं भ्राता भ्रातरमग्रजम्।
मूर्ध्ना प्रणम्य चरणाविदं वचनमब्रवीत्।।
2-76-78a
2-76-78b
विदुर उवाच। 2-76-79x
नाभिनन्दामि ते राजन्व्यवसायमिमं प्रभो।
पुत्रैर्भेदो यथा न स्थाद्‌द्यूतहेतोस्तथा कुरु।।
2-76-79a
2-76-79b
धृतराष्ट्र उवाच। 2-76-80x
क्षत्तः पुत्रेषु पुत्रैर्मे कलहो न भविष्यति।
यदि देवाः प्रसादं नः करिष्यन्ति न संशयः।।
2-76-80a
2-76-80b
अशुभं वा शुभं वापि हितं वा यदि वाऽहितम्। 2-76-81a
मयि सन्निहिते द्रोणे भीष्मे त्वयि च भारत।
अनयो दैवविहितो न कथञ्चिद्भविष्यति।।
2-76-82a
2-76-82b
गच्छ त्वं रथमास्थाय हयैर्वातसमैर्जवे।
खाण्डवप्रस्थमद्यैव समानय युधिष्ठिरम्।।
2-76-83a
2-76-83b
न वाच्यो व्यवसायो मे विदुरैतद्ब्रवीमि ते।
दैवमेव परं मन्ये येनैतदुपपद्यते।।
2-76-84a
2-76-84b
इत्युक्तो विदुरो धीमान्नेदमस्तीति चिन्तयन्।
आपगेयं महाप्राज्ञमभ्यगच्छत्सुदुः खितः।।
2-76-85a
2-76-85b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
द्यूतपर्वणि षट्‌सप्ततितमोऽध्यायः।। 76 ।।

टिप्पणी सम्पाद्यताम्

2-76-9 कुतोमूलं किंमुलम्। कुतइति प्रथमार्थे तसिः।। 2-76-29 कदलीमृगा हरिणविशेषास्तेषां मोकान्यजिनानि तान्येव कृष्णश्यामारुणानि चित्र वर्णानीत्यर्थः।। 2-76-34 वाटाः क्षेत्रादिवृत्तयस्तासां धाना अभिनवोद्भेदो येषां ते सस्यादिसम्पन्नक ्षेत्रादिवृत्तिमन्त इत्यर्थः।। 2-76-37 शैक्यं वरत्रामयं पात्राधारभूतं शिक्यं कावडीति प्रसिद्धं तत्र स्थितं पात् रं शैक्यम्। एतेन सामुद्रय आप उक्ताः।।

सभापर्व-075 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-077
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