महाभारतम्-02-सभापर्व-097
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दुर्योधनेन धृतराष्ट्रसमीपे अर्जुनप्रभाववर्णनम्।। 1।। दुर्योधनदुर्बोधनेन धृतराष्ट्रस्य पुनर्द्यूताय पाण्डवानयनाभ्यनुज्ञा।। 2।।
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दुर्योधन उवाच।। | 2-97-1x |
शृणु राजन्पुराऽचिन्त्यानर्जुनस्य च साहसान्। अर्जुनो धन्विनां श्रेष्ठो दुष्करं कृतवान्पुरा।। | 2-97-1a 2-97-1b |
द्रुपदस्य पुरे राजन्द्रौपद्याश्च स्वयंवर।। आबालवृद्धसङ्क्षोभे सर्वक्षत्रसमागमे। क्षिप्रकारी जले मत्स्यं दुर्निरीक्ष्यं ससर्ज ह।। | 2-97-2a 2-97-2b 2-97-2c |
सर्वैर्नृपैरसाध्यं तत्कार्मुकप्रवरं च वै। क्षणेन सज्यमकरोत्सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।। | 2-97-3a 2-97-3b |
ततो यन्त्रमयं विध्वा विसारं फल्गुनो बली। कृष्णया हेममाल्येन स्कन्धे स परिवेष्टितः।। | 2-97-4a 2-97-4b |
ततस्तया वृतं पार्थं दृष्ट्वा सर्वे नृपास्तदा। रोषात्सर्वायुधान्गृह्य क्रुद्धा वीरा महौजसः। वैकर्तनं पुरस्कृत्य सर्वे पार्थमुपाद्रवन्।। | 2-97-5a 2-97-5b 2-97-5c |
स सर्वान्पार्थिवान्दृष्ट्वा क्रुद्धान्पार्थो महाबलः। वारयित्वा शरैस्तीक्ष्णैरजयत्तत्र स स्वयम्।। | 2-97-6a 2-97-6b |
जित्वा तु तान्महीपालान्सर्वान्कर्णपुरोगमान्। लेभे कृष्णां शुभां पार्थो युध्वा वीर्यबलात्तदा।। | 2-97-7a 2-97-7b |
सर्वक्षत्रसमूहेषु अम्बां भीष्मो यथा पुरा। ततः कदाचिद्बीभत्सुस्तीर्ययात्रां ययौ स्वयम्।। | 2-97-8a 2-97-8b |
अथोलूपीं शुभां तात नागराजसतां तदा। नागेष्वाप वराग्र्येषु प्रार्थितोऽथ यथा तथा।। | 2-97-9a 2-97-9b |
ततो गोदावरीं कृष्णां कावेरीं चावगाहत। तत्र पाण्ड्यं समासाद्य तस्य कन्यामवाप सः।। | 2-97-10a 2-97-10b |
लब्ध्वा जिष्णुर्मुदं तत्र ततो याम्यां दिशं ययौ।। | 2-97-11a |
स दक्षिणं समुद्रान्तं गत्वा चाप्सरसां च वै। कुमारतीर्थमासाद्य मोक्षयामास चार्जुनः।। | 2-97-12a 2-97-12b |
ग्राहरूपाश्च ताः पञ्च अतिशौर्येण वै बलात्। कन्यातीर्थं समभ्येत्य ततो द्वारवतीं ययौ।।। | 2-97-13a 2-97-13b |
तत्र कृष्णनिदेशात्स सुभद्रां प्राप्य फल्गुनः। तामारोप्य रथोपस्थे प्रययौ स्वपुरीं प्रति।। | 2-97-14a 2-97-14b |
अथादाय गते पार्थे ते श्रुत्वा सर्वयादवाः। तमभ्यधावन्त्सङ्क्रुद्धाः सिंहव्याघ्रगणा इव।। | 2-97-15a 2-97-15b |
प्रद्युम्नः कृतवर्मा च गदः सारणसात्यकी। आहुकश्चैव साम्बश्च चारुदेष्णो विदूरथः।। | 2-97-16a 2-97-16b |
अन्ये च यादवाः सर्वे बलदेवपुरोगमाः। एकमेव परे कृष्णं गजवाजिरथैर्युताः।। | 2-97-17a 2-97-17b |
अथासाद्य वने यान्तं परिवार्य धनञ्जयम्। चक्रुर्युद्धं सुसङ्क्रुद्धा बहुकोट्यश्च यादवाः।। | 2-97-18a 2-97-18b |
एक एव तु पार्थस्तैर्युद्धं चक्रे सुदारुणम्। तेन तेषां समं युद्धं मुहूर्तं प्रबभूव ह।। | 2-97-19a 2-97-19b |
ततः पार्थो रणे सर्वान्वारयित्वा शितैः शरैः। बलाद्विजित्य राजेन्द्र वीरस्तान्सर्वयादवान्। तां सुभद्रामथादाय शक्रप्रस्थं विवेश ह।। | 2-97-20a 2-97-20b 2-97-20c |
भूयः शृणु महाराज फल्गुनस्य च साहसम्। ददौ स वह्नेर्बिभत्सुः प्रार्थितं खाण्डवं वनम्।। | 2-97-21a 2-97-21b |
लब्धमात्रे तु तेनाथ भगवान्हव्यवाहनः। भक्षितुं खाण्डवं राजंस्तत्रस्थानुपचक्रमे।। | 2-97-22a 2-97-22b |
ततस्तं भक्षयन्तं वै सव्यसाची विभावसुम्। रथा धन्वी शरान्गृह्य स कलापयुतः प्रभुः। पालयामास राजेन्द्र स्ववीर्येण महाबलः।। | 2-97-23a 2-97-23b 2-97-23c |
ततः श्रुत्वा महेनद्रस्तु मेघांस्तान्सन्दिदेश ह। तेनोक्ता मेघसङ्घास्ते ववर्षुरतिवृष्टिभिः।। | 2-97-24a 2-97-24b |
ततो मेघगाणान्पार्थः शरव्रातैः समान्ततः। खगमैर्वारयामास तदाश्चर्यमिवाभवत्।। | 2-97-25a 2-97-25b |
वारितान्मेघसङ्घांश्च श्रुत्वा क्रुद्धः पुरन्दरः। पाण्डरं गजमास्थाय सर्वदेवगणैर्वृतः। ययौ पार्थेन संयोद्धुं रक्षार्थं खाण्डवस्य च।। | 2-97-26a 2-97-26b 2-97-26c |
रुद्राश्च मरुतश्चैव वसवश्चाश्विनौ तदा। आदित्याश्चैव साध्याश्च निश्वेदेवाश्च भारत। गन्धर्वाश्चैव सहिता अन्ये देवगणाश्च ये।। | 2-97-27a 2-97-27b 2-97-27c |
ते सर्वे शस्त्रसम्पन्ना दीप्यमानाः स्वतेजसा। धनञ्जयं जिघांसन्तः प्रपेतुर्विबुधाधिपाः।। | 2-97-28a 2-97-28b |
युगान्ते यानि दृश्यन्ते निमित्तानि महान्त्यपि। सर्वाणि तत्र दृश्यन्ते निमित्तानि महीपते।। | 2-97-29a 2-97-29b |
ततो देवगमाः सर्वे पार्थं समभिदुद्रुवुः। असम्भ्रान्तस्तु तान्दृष्ट्वा स तां देवमयीं चमूम्।। | 2-97-30a 2-97-30b |
त्वरितः फल्गुनो गृह्य तीक्ष्णांस्तानाशुगांस्तदा। इन्द्रं देवांश्च सम्प्रेक्ष्य तस्थौ काल इवात्यये।। | 2-97-31a 2-97-31b |
ततो देवगणाः सर्वे बीभत्सुं सपुरन्दराः। अवाकिरञ्छरव्रातैर्मानुषं तं महीपते।। | 2-97-32a 2-97-32b |
ततः पार्थो महातेजा गाण्डिवं गृह्य सत्वरः। वारयामास देवानां शरव्रातैः शरांस्तदा।। | 2-97-33a 2-97-33b |
पुनः क्रुद्धाः सुराः सर्वे मर्त्यं तं सुभहाबलाः। नानाशस्त्रैर्ववर्षुस्तं सव्यसाची महीपते।। | 2-97-34a 2-97-34b |
तान्पार्थः शस्त्रवर्षान्वै विसृष्टान्विबुधैस्तदा। द्विधा त्रिधा स चिच्छेद स एव निशितैः शरैः।। | 2-97-35a 2-97-35b |
पुनश्च पार्थः सङ्क्रुद्धो मण्डलीकृतकार्मुकः। देवसङ्घाञ्छरैस्तीक्ष्णैरर्पयन्वै समन्ततः।। | 2-97-36a 2-97-36b |
ततो देवगणाः सर्वे युध्वा पार्थेन वै मुहुः। रणे जेतुमशक्यं तं ज्ञात्वा ते भरतर्षभ।। | 2-97-37a 2-97-37b |
शान्तास्ते विबुधाः सर्वे पार्थबाणाभिपीडिताः। सद्विपं वासवं त्यक्त्वा दुद्रुवुः सर्वतो दिशम्।। | 2-97-38a 2-97-38b |
प्राचीं रुद्राः सगन्धर्वा दक्षिणां मरुतो ययुः। दिशं प्रतीचीं भीतास्ते वसवश्च तथाऽश्विनौ ।। | 2-97-39a 2-97-39b |
आदित्याश्चैव विश्वे च दुद्रुवुर्वा उदङ्मुखाः। साध्याश्चोर्ध्वमुखा भीताश्चिन्तयन्तोऽस्य सायकान्।। | 2-97-40a 2-97-40b |
एवं सुरगणाः सर्वे प्राद्रवन्त्सर्वतो दिशम्। मुहुर्मुहुः प्रेक्षमाणाः पार्थमेव सकार्मुकम्।। | 2-97-41a 2-97-41b |
विद्रुतान्देवसङ्घांस्तान्रणे दृष्ट्वा पुरन्दरः। ततः क्रुद्धो महातेजाः पार्थं बाणैरवाकिरत्।। | 2-97-42a 2-97-42b |
पार्थोऽपि शक्रं विव्याथ मानुषो विबुधाधिपम्।। | 2-97-43a |
ततः सोऽश्ममयं वर्षं व्यसृजद्विबुधाधिपः। तच्छरैरर्जुनो वर्षं प्रतिजाघ्नेऽत्यमर्षणः।। | 2-97-44a 2-97-44b |
अथ संवर्धयामास तद्वर्षं देवराडपि। भूय एव महावीर्यं जिज्ञासुः सव्यसाचिनः।। | 2-97-45a 2-97-45b |
सोऽश्मवर्षं महावेगमिषुभिः पाण्डवोऽपि च। विलयं गमयामास हर्षयन्पाकशासनम्।। | 2-97-46a 2-97-46b |
उपादाय तु पाणिभ्यामङ्गदं नाम पर्वतम्। सद्रुमं व्यसृजच्छक्रो जिघांसुः श्वेतवाहनम्।। | 2-97-47a 2-97-47b |
ततोऽर्जुनो वेगवद्भिर्ज्वलमानैरजिह्यगैः। बाणैर्विध्वंसयामास गिरिराजं सहस्रधा।। | 2-97-48a 2-97-48b |
शक्रं च पातयामास शरैः पार्थो महान्युधि। ततः शक्रो महाराज रणे वीरं धनञ्जयम्।। | 2-97-49a 2-97-49b |
ज्ञात्वा जेतुमशक्यं तं तेजोबलसमन्वितम्। परां प्रीति ययौ तत्र पुत्रशौर्येण वासवः।। | 2-97-50a 2-97-50b |
तदा तत्र न तस्यास्ति दिवि कश्चिन्महायशाः। समर्थो निर्जये राजन्नपि साक्षात्प्रजापतिः।। | 2-97-51a 2-97-51b |
ततः पार्थः शरैर्हत्वा यक्षराक्षसपन्नगान्। दीप्ते चाग्नौ महातेजाः पातयामास सन्ततम्।। | 2-97-52a 2-97-52b |
प्रतिषेधयितुं पार्थं न शेकुस्तत्र केचन। दृष्ट्वा निवारितं शक्रं दिवि देवगणैः सह।। | 2-97-53a 2-97-53b |
यथा सुपर्णः सोमार्थं विबुधानजयत्पुरा। तथा जित्वा सुरान्पार्थस्तर्पयामास पावकम्।। | 2-97-54a 2-97-54b |
ततोऽर्जुनः स्ववीर्येण तर्पयित्वा विभावसुम्। रथं ध्वजं च सहयं दिव्यानस्त्रांश्च पाण्डवः।। | 2-97-55a 2-97-55b |
गाण्डीवं च धनुः श्रेष्ठं तूणी चाक्षयसायकौ। एतान्यपि च बीभत्सुर्लेभे कीर्ति च भारत।। | 2-97-56a 2-97-56b |
भूयोऽपि शृणु राजेन्द्र पार्थो गत्वोत्तरां दिशम्। विजित्य नववर्षांश्च सपुरांश्च सपर्वतान्।। | 2-97-57a 2-97-57b |
जम्बुद्वीपं वशे कृत्वा सर्वं तद्भरतर्षभ। बलाज्जित्वा नृपान्सर्वान्करे चविनिवेश्य च।। | 2-97-58a 2-97-58b |
रत्नान्यादाय सर्वाणि गत्वा चैव पुनः पुरीम्। ततो ज्येष्ठं महात्मानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्। राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं कारयामास भारत।। | 2-97-59a 2-97-59b 2-97-59c |
स तान्यन्यानि कर्माणि कृतवानर्जुनः पुरा। अर्जुनेन समो वीर्ये त्रिषु लोकेषु न क्वचित्।। | 2-97-60a 2-97-60b |
देवदानवयक्षाश्च पिशाचोरगराक्षसाः। भीष्मद्रोणादयः सर्वे कुरवश्च महारथाः।। | 2-97-61a 2-97-61b |
लोके सर्वनृपाश्चैव वीराश्चान्ये धनुर्धराः। एते पार्थं रणे युक्ताः प्रतियोद्धुं न शक्नुयुः।। | 2-97-62a 2-97-62b |
अहं हि नित्यं कौरव्य फल्गुनं हृदि संस्थितम्। अपश्यं चिन्तयित्वा तं समुद्विग्नोऽस्मि तद्भयात्।। | 2-97-63a 2-97-63b |
गृहे गृहे च पश्यामि तात पार्थमहं सदा। शरगाण्डीवसंयुक्तं पाशहस्तमिवान्तकम्।। | 2-97-64a 2-97-64b |
अपि पार्थसहस्राणि भीतः पश्यामि भारत। पार्थभूतमिदं सर्वं नगरं प्रतिभाति मे।। | 2-97-65a 2-97-65b |
पार्थमेव हि पश्यामि रहिते तात भारत। दृष्ट्वा स्वप्नगतं पार्थमुद्धमामि विचेतनः।। | 2-97-66a 2-97-66b |
अकारादीनि नामानि अर्जुनग्रस्तचेतसः। अश्वाक्षराम्बुजाश्चैव त्रासं सञ्जनयन्ति मे।। | 2-97-67a 2-97-67b |
नास्ति पार्थादृते तात परवीराद्भयं मम। प्रह्लादं वा बलिं वापि हन्याद्धि विजयो रणे।। | 2-97-68a 2-97-68b |
तस्मात्तेन महाराज युद्धं नस्तात न क्षमम्। अहं तस्य प्रभावज्ञो नित्यं दुःखं वहामि च।। | 2-97-69a 2-97-69b |
पुरा हि दण्डकारण्ये मारीचस्य यथा भयम्। भवेद्रामे महावीर्ये तथा पार्थे भयं मम।। | 2-97-70a 2-97-70b |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-97-71x |
जानाम्येव महद्वीयं जिष्णोरेतद्दुरासदम्। एतद्वीरस्य पार्थस्य कार्षीस्त्वं तु विप्रियम्।। | 2-97-71a 2-97-71b |
द्यूतं वा शस्त्रयुद्धं वा दुवाक्यं वा कथञ्चन। एतेष्वेवं कृते तस्य विग्रहश्चैव वो भवेत्।। | 2-97-72a 2-97-72b |
तस्मात्त्वं पुत्र पार्थेन नित्यं स्नेहेन वर्तय। यश्च पार्थेन सम्बन्धो वर्तते चेन्नरो भुवि।। | 2-97-73a 2-97-73b |
तस्य नास्ति भयं किञ्चित्रिषु लोकेषु भारत। तस्मात्त्वं जिष्णुना वत्स नित्यं स्नेहेन वर्तय।। | 2-97-74a 2-97-74b |
दुर्योधन उवाच।। | 2-97-75x |
द्यूते पार्थस्य कौरव्य मायया निकृतिः कृता। तस्माद्वि नो जयस्तात अन्योपायेन नो भवेत्।। | 2-97-75a 2-97-75b |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-97-76x |
उपायश्च न कर्तव्यः पाण्डवान्प्रति भारत। पार्थान्प्रति पुरा वत्स बहूपायाः कृतास्त्वया।। | 2-97-76a 2-97-76b |
तानुपायान्हि कौन्तेया बहुशो व्यतिचक्रमुः। तस्माद्वितं जीविताय नः कुलस्य जनस्य च।। | 2-97-77a 2-97-77b |
त्वं चिकीर्षसि चेद्वत्स समित्रः सहबान्धवः। सभ्रातृकस्त्वं पार्थेन नित्यं स्नेहेन वर्तय।। | 2-97-78a 2-97-78b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-97-79x |
धृतराष्ट्रवचः श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा। चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु विधिना चोदितोऽब्रवीत्'।। | 2-97-79a 2-97-79b |
पुनर्दीव्याम भद्रं ते वनवासाय पाण्डवैः। एवमेतान्वशे कर्तुं शक्ष्यामः पुरुषर्षभ।।ष | 2-97-80a 2-97-80b |
ते वा द्वादश वर्षाणि वयं वा द्यूतनिर्जिताः। प्रविशेम महारण्यमजिनैः प्रतिवासिताः।। | 2-97-81a 2-97-81b |
त्रयोदशं च स्वजनैरज्ञाताः परिवत्सरम्। ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश।। | 2-97-82a 2-97-82b |
निवसेम वयं ते वा तथा द्यूतं प्रवर्तताम्। अक्षानुप्त्वा पुनर्द्यूतमिदं कुर्वन्तु पाण्डवः।। | 2-97-83a 2-97-83b |
एतत्कृत्यतमं राजन्नस्माकं भरतर्षभ। अयं हि शकुनिर्वेद सविद्यामक्षसम्पदम्।। | 2-97-84a 2-97-84b |
दृढमूलं वयं राज्ये मित्राणि परिगृह्य च। सारवद्विपुलं सैन्यं सत्कृत्य च दुरासदम्।। | 2-97-85a 2-97-85b |
ते च त्रयोदशं वर्षं पारयिष्यन्ति चेद्व्रतम्। जेष्यामस्तान्वयं राजत्रोचतां ते परन्तप।। | 2-97-86a 2-97-86b |
धृतराष्ट्र उवाच।। | 2-97-87x |
तूर्णं प्रत्यानयस्वैतान्कामं व्यध्वगतानपि। आगच्छन्तु पुनर्द्यूतमिदं कुर्वन्तु पाण्डवः।। | 2-97-87a 2-97-87b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-97-88x |
ततो द्रोणः सोमदत्तो बाह्लीकश्चैव गौतमः। विदुरो द्रोणपुत्रश्च वैश्यापुत्रश्च वीर्यवान्।। | 2-97-88a 2-97-88b |
भूरिश्रवाः शान्तनवो विकर्णश्च महारथः। मा द्यूतमित्यभाषन्त शमोऽस्त्विति च सर्वशः।। | 2-97-89a 2-97-89b |
अकामानां च सर्वेषां सुहृदामर्थदर्शिनाम्। अकरोत्पाण्डवाह्वानं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः।। | 2-97-90a 2-97-90b |
अथाब्रवीन्महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्। पुत्रहार्दाद्धर्मयुक्ता गान्धारी शोककर्शिता।। | 2-97-91a 2-97-91b |
जाते दुर्योधने क्षत्ता महामतिरभाषत। नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः।। | 2-97-92a 2-97-92b |
व्यनदज्जातमात्रो हि गोमायुरिव भारत। अन्तो नूनं कुलस्यास्य कुरवस्तन्निबोधत।। | 2-97-93a 2-97-93b |
मा निमज्जीः स्वदोषेण महाप्सु त्वं हि भारत। मा बालानामशिष्टानामभिमंस्था मतिं प्रभो।। | 2-97-94a 2-97-94b |
मा कुलस्य क्षये घोरे कारणं त्वं भविष्यसि। बद्धं सेतुं को नु भिन्द्याद्धमेच्छान्तं च पावकम्।। | 2-97-95a 2-97-95b |
शमे स्थितान्को नु पार्थान्कोपयेद्भरतर्षभ। स्मरन्तं त्वामाजमीढं स्मारयिष्याम्यहं पुनः।। | 2-97-96a 2-97-96b |
शास्त्रं न शास्ति दुर्बुद्धिं श्रेयसे चेतराय च। न वै वृद्धो बालमतिर्भवेद्राजन्कथञ्चन।। | 2-97-97a 2-97-97b |
त्वन्नेत्राः सन्तु ते पुत्रा मा त्वां दीर्णाः प्रहासिषुः। तस्मादयं मद्वचनात्त्यज्यतां कुलपांसनः।। | 2-97-98a 2-97-98b |
तथा ते न कृतं राजन्पुत्रस्नेहान्नराधिप। तस्य प्राप्तं फलं विद्धि कुलान्तकरणाय यत्।। | 2-97-99a 2-97-99b |
शमेन धर्मेण नयेन युक्ता या ते बुद्धिः साऽस्तु ते मा प्रमादीः। प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्री- र्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान्।। | 2-97-100a 2-97-100b 2-97-100c 2-97-100d |
अथाब्रवीन्महाराजो गान्धारीं धर्मदर्शिनीम्। अन्तः कामं कुलस्यास्तु न शक्नोमि निवारितुम्।। | 2-97-101a 2-97-101b |
यथेच्छन्ति तथैवास्तु प्रत्यागच्छन्तु पाण्डवाः। पुनर्द्यूतं च कुर्वन्तु मामकाः पाण्डवैः सह।। | 2-97-102a 2-97-102b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः।।97।। |
2-97-90 अकामानां द्यूतमनिच्छतां सताम्।।
2-97-98 त्वन्नेत्रास्त्वमेव नेता येषां ते त्वन्नेत्राः। दीर्णास्त्वत्तो भिन्नर्म यादाः।।
सभापर्व-096 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-098 |