महाभारतम्-02-सभापर्व-094
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कर्णप्रलपितम्।। 1।। क्रुद्धं भीमं निवार्य युधिष्ठिरस्य धृतराष्ट्रसमीपगमनम्।। 2।।
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कर्ण उवाच।। | 2-94-1x |
या नः श्रुता मनुष्येषु स्त्रियो रूपेण संमताः। तासामेतादृशं कर्म न कस्याश्चन शुश्रुम।। | 2-94-1a 2-94-1b |
क्रोधाविष्टेषु पार्थेषु धार्तराष्ट्रेषु चाप्यति। द्रौपदी पाण्डुपुत्राणां कृष्णा शान्तिरिहाभवत्।। | 2-94-2a 2-94-2b |
अप्लवेऽम्भसि मग्नानामप्रतिष्ठे निमज्जताम्। पाञ्चाली पाण्डुपुत्राणां नौरेषां पारगाऽभवत्।। | 2-94-3a 2-94-3b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-94-4x |
तद्वै श्रुत्वा भीमसेनः कुरुमध्येऽत्यमर्षणः। स्त्री गतिः पाण्डुपुत्राणामित्युवाच सुदुर्मनाः।। | 2-94-4a 2-94-4b |
भीम उवाच।। | 2-94-5x |
त्रीणि ज्योतींषि पुरुष इति वै देवलोऽब्रवीत्। अपत्यं कर्म विद्या च यतः सृष्टाः प्रजास्ततः।। | 2-94-5a 2-94-5b |
अमेध्ये वै गतप्रामे शून्ये ज्ञातिभिरुज्झिते। देहे त्रितयमेवैतत्पुरुषस्योपयुज्यते।। | 2-94-6a 2-94-6b |
तन्नो ज्योतिरभिहतं दाराणामभिमर्शनात्। धनञ्जय कथं स्वित्स्यादपत्यमभिमृष्टजम्।। | 2-94-7a 2-94-7b |
अर्जुन उवाच।। | 2-94-8x |
न चैवोक्ता न चानुक्ता हीनतः परुषा गिरः। भारत प्रतिजल्पन्ति सदा तूत्तमपूरुषाः।। | 2-94-8a 2-94-8b |
स्मरन्ति सुकृतान्येव न वैराणि कृतान्यपि। सन्तः प्रतिविजानन्तो लब्धसम्भावनाः स्वयम्।। | 2-94-9a 2-94-9b |
भीम उवाच।। | 2-94-10x |
इहैवैतानहं सर्वान्हन्मि शत्रून्समागतान्। अथ निष्क्रम्य राजेन्द्र समूलान्हन्मि भारत।। | 2-94-10a 2-94-10b |
किं नो विवदितेनेह किमुक्तेन च भारत। अद्यैवैतान्निहन्मीह प्रशाधि पृथिवीमिमाम्।। | 2-94-11a 2-94-11b |
इत्युक्त्वा भीमसेनस्तु कनिष्ठैर्भ्रातृभिः सह। मृगमध्ये यथा सिंहो मुहुर्मुहुरुदैक्षत।। | 2-94-12a 2-94-12b |
सान्त्व्यमानो वीक्षमाणः पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा। खिद्यत्येव महाबाहुरन्तर्दाहेन वीर्यवान्।। | 2-94-13a 2-94-13b |
क्रुद्धस्य तस्य स्रोतोभ्यः कर्णादिभ्यो नराधिप। सधूमः सस्फुलिङ्गार्चिः पावकः समजायत।। | 2-94-14a 2-94-14b |
भ्रुकुटीकृतदुष्प्रेक्ष्यमभवत्तस्य तन्मुखम्। युगान्तकाले सम्प्राप्ते कृतान्तस्येव रूपिणः।। | 2-94-15a 2-94-15b |
युधिष्ठिरस्तमावार्य बाहुना बाहुशालिनम्। मैवमित्यब्रवीच्चैनं जोषमास्वेति भारत।। | 2-94-16a 2-94-16b |
निवार्य च महाबाहुं कोपसंरक्तलोचनम्। पितरं समुपातिष्ठद्धृतराष्ट्रं कृताञ्जलिः।। | 2-94-17a 2-94-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि चतुर्नवतितमोऽध्यायः।।94 ।। |
2-94-16 जोषं तूष्णीम्।।
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