महाभारतम्-02-सभापर्व-079
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दुर्योधनेन धृतराष्ट्रसमीपे राजसूयवर्णनादि।। 1।।
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दुर्योधन उवाच।। | 2-79-1x |
आर्यास्तु ये वै राजानः सत्यसन्धा महाव्रताः। पर्याप्तविद्या वक्तारो वेदान्तावभृथप्लुताः।। | 2-79-1a 2-79-1b |
धृतिमन्तो ह्रीनिषेवा धर्मात्मानो नाशस्विनः। मूर्धाभिषिक्तास्ते चैनं राजानः पर्युपांसते।। | 2-79-2a 2-79-2b |
दक्षिणार्थं समानीत राजभिः कांस्यदोहनाः। आरण्या बहुसाहस्रा अपश्यंस्तत्रतत्र गाः।। | 2-79-3a 2-79-3b |
आजह्रस्तत्र सत्कृत्य स्वयमुद्यम्य भारत। अभिषेकार्थमव्यग्रा भाण्डमुच्चावचं नृपाः।। | 2-79-4a 2-79-4b |
बाह्लीको रथमाहार्षीज्जाम्बूनदविभूषितम्। सुदक्षिणस्तु युयुजे श्वेतैः काम्भोजजैर्हयैः।। | 2-79-5a 2-79-5b |
सुनीथः प्रीतिमांश्चैव ह्यनुकर्षं महाबलः। ध्वजं चेदिपतिश्चैवमहार्षीत्स्वयमुद्यतम्।। | 2-79-6a 2-79-6b |
दाक्षिणात्यः सन्नहनं स्रगुष्णीषे च मागधः। वसुदानो महेष्वासो गजेन्द्रं षष्टिहायनम्।। | 2-79-7a 2-79-7b |
मत्स्यस्त्वक्षान्हेमनद्धानेकलव्य उपानहौ। आवन्त्यस्त्वभिषेकार्थमपो बहुविधास्तथा।। | 2-79-8a 2-79-8b |
चेकितान उपासङ्गं धनुः काश्य उपाहरत्। असिं च सुत्सरुं शल्यः शैक्यं काञ्चनभूषणम्।। | 2-79-9a 2-79-9b |
अभ्यपिञ्चत्ततो धौम्यो व्यासश्च समुहातपाः। नारदं च पुरस्कृत्य देवलं चासितं मुनिम्।। | 2-79-10a 2-79-10b |
प्रीतिमन्त उपातिष्ठन्नभिषेकं महर्षयः। जामदग्न्येन सहितास्तथान्ये वेदपारगाः।। | 2-79-11a 2-79-11b |
अभिजग्मर्महात्मानो मन्त्रवद्भूरिदक्षिणम्। महेन्द्रमिव देवेन्द्रं दिवि सप्तर्षयो यथा।। | 2-79-12a 2-79-12b |
अधारयच्छत्रमस्य सात्यकिः सत्यविक्रमः। धनञ्जयश्च व्यजने भीमसेनश्च पाण्डवः।। | 2-79-13a 2-79-13b |
चामरे चापि शुद्धे द्वे यमौ जगृहतुस्तथा। उपागृह्णाद्यमिन्द्राय पुराकल्पे प्रजापतिः।। | 2-79-14a 2-79-14b |
तमस्मै शङ्खमाहार्षीद्वारुणं कलशोदधिः। शैक्यं निष्कसहस्रेण सुकृतं विश्वकर्मणा।। | 2-79-15a 2-79-15b |
तेनाभिषिक्तः कृष्णेन तत्र मे कश्मलोऽभवत्। गच्छन्ति पूर्वादपरं समुद्रं चापि दक्षिणम्।। | 2-79-16a 2-79-16b |
उत्तरं तु गच्छन्ति विना तात पतत्र्रिभिः। तत्र स्म दध्मुः शतशः शङ्खान्मङ्गलकारकान्।। | 2-79-17a 2-79-17b |
प्राणदन्त समाध्मातास्ततो रोमाणि मेऽहृषन्। प्रापतन्भूमिपालाश्च ये तु हीनाः स्वतेजसा।। | 2-79-18a 2-79-18b |
धृष्टद्युम्नः पाण्डवाश्च सात्यकिः केशवोऽष्टमः। सत्वस्था वीर्यसम्पन्ना ह्यन्योन्यप्रियदर्शनाः।। | 2-79-19a 2-79-19b |
विसञ्ज्ञान्भूमिपान्दृष्ट्वा मां च ते प्राहसंस्तदा। ततः प्रहृष्टो बीभत्सुः प्रादाद्धेमविषाणिनाम्।। | 2-79-20a 2-79-20b |
शतान्यनडुहां पञ्च द्विजमुख्येषु भारत। न रन्तिदेवो नाभागो यौवनाश्वो मनुर्न च।। | 2-79-21a 2-79-21b |
न च राजा पृथुर्वैन्यो न चाप्यासीद्भगीरथः। ययातिर्नहुषो वापि यथा राजा युधिष्ठिरः।। | 2-79-22a 2-79-22b |
यथाऽतिमात्रं कौन्तेयः श्रिया परमया युतः। राजसूयमवाप्यैवं हरिश्चन्द्र इव प्रभुः।। | 2-79-23a 2-79-23b |
एतां दृष्टा श्रियं पार्थे हरिश्चन्द्रे यथा विभो। कथं तु जीवितं श्रेयो मम पश्यसि भारत।। | 2-79-24a 2-79-24b |
अन्धेनेव युगं नद्धं विपर्यस्तं नराधिप। कनीयांसो विवर्धन्ते ज्येष्ठा हीयन्त एव च।। | 2-79-25a 2-79-25b |
एवं दृष्ट्वा नाभिविन्दामि शर्म समीक्षमाणोऽपि कुरुप्रवीर। तेनाहमेवं कृशतां गतश्च विवर्णतां चैव सशोकतां च।। | 2-79-26a 2-79-26b 2-79-26c 2-79-26d |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि ऊनाशीतितमोऽध्यायः।।79 ।। |
2-79-2 हीनिषेवा लज्जावन्तः।।
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